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Tuesday 23 August 2016

आध्यात्मिक उन्नति का सोपान-देवयज्ञ

यज्ञ का महत्त्व
    क्या आप नित्य दैनिक यज्ञ करते हैं? अजी कहाँ समय मिलता है, फिर इस मँहगाई के जमाने में आप घी फूँकने की बात करते हैं, घी खाने को मिल जाये यही बहुत है, आदि उत्तर आजकल प्रायः सभी अनपढ़ नहीं अपितु पढ़े लिखे लोग भी यही उत्तर देते हैं। आष्चर्य तो तब होता है जब विज्ञान के ज्ञाता भी यही बातें दोहराते हैं।
    हमारा एक पुराना शिष्य एम.एस.सी. उत्तीर्ण करने के बाद हमारे पास आकर बोला-गुरूजी, आप विद्यालय में दैनिक यज्ञ के बाद प्रायः यज्ञ के महत्त्व पर व ईष्वर की स्तुति पर कुछ बातें बताते थे। तब हम नादान थे, आपकी बात बलात् स्वीकार कर लेते थे, किन्तु अब मैंने एम.एस.सी. पास कर लिया है, अब आपके प्रत्येक बात का उत्तर देने में समर्थ हूँ। मैं ईष्वर को नहीं मानता हूँ, विज्ञान के नित-नये आविष्कारों ने यह सिद्ध कर दिया है कि मानव-बुद्धि ही सर्वोपरि है, ईश्वर नाम की कोई सत्ता नहीं है।
    यह सुनकर हम तो आश्चर्य में पड़ गये कि विज्ञान की प्रगति व्यक्ति को नास्तिक बना ही है जब कि सृष्टि में छिपे हुए नित्य नये अज्ञात नियमों की खोज विज्ञान है। विज्ञान की यह खोज, यहाँ आविष्कार उस नियामक का, नियन्ता का बोध देता है। फिर भी हमने छात्र पर स्नेहभरी दृष्टि डालकर कहा-हमारे एक प्रष्न का उत्तर आप देंगे-जरा बतायें हम जो रोटी खाते हैं, उसका शरीर में क्या बनता है? छात्र का उत्तर था-जी, शरीर के पोषक तत्त्व बनते हैं, रक्त, माँस, मज्जा आदि। हमने सरलता से कहा कि सौ रोटियाँ यहाँ अभी मँगवाते हैं, आप वैज्ञानिकों से कहें जिस प्रक्रिया से ये शरीर में रक्तादि बनते हैं वैसे ही ये यहाँ बना दें। षिष्य शान्त था। हमने उससे कहा परमात्मा की क्या उत्तम रचना है कि शरीर निर्माण के साथ सभी के शरीर में एक जैसे यन्त्र बना दिये, जो खाये हुए पदार्थो को शरीर के पुष्ट बनाने में लग जाते हैं, यह सब के शरीर में एक जैसा है। यही तो उसका नियम है, अद्भुत नियम है।
    मैंने कहा-पुत्रा! वैज्ञानिकों के सम्मेलन में ही एक महान् वैज्ञानिक ने कहा था कि वैज्ञानिकों को अपने सफल नूतन आविष्कार के लिए उस जगत् पिता के आगे नतमस्तक होना चाहिए, अन्यथा क्या हम सिर का एक बाल भी बना सकते हैं? नहीं बना सकते।
    शिष्य वह भी आधुनिक शिष्य जल्दी हार माननेवाला नहीं था, बोला चलिये ईष्वर पर फिर कभी बात कर लेंगे किन्तु मैं आज तक अच्छी तरह यह नहीं समझ पाया कि हमें प्रतिदिन यज्ञ क्यों करना चाहिये, व्यर्थ घी फूंकने से क्या लाभ, फिर यज्ञ में मन्त्र बोलने से क्या लाभ है, साथ ही यज्ञ में समिधा आदि प्रयोग का विषेष विधान है। आदि-आदि बातें कभी समझ में नहीं आयी। कृपया यज्ञ शब्द का अर्थ समझाते हुए क्रमषः नित्य क्यों करना चाहिये, इसको आज समझ दें। आप तो जानते ही है कि मनुष्य स्वभावतः महत्त्व जानने पर ही, लाभ जानने पर ही श्रद्धा भाव से किसी कर्म को साधु सम्पन्न करने में प्रवृत्त होता है।
    हमें अपने षिष्य का विचार अच्छा लगा, कि उसे थोड़ा बहुत समझाया, किन्तु सोचा क्यों न यह विचार सब तक पहुँचे। तो आइये पहले यह विचार करें कि प्रतिदिन यज्ञ क्यों करें?
    वर्तमान में अनेक समस्याओकं से घिरा हुआ मनुष्य पीड़ित है। धन है तो शान्ति नहीं है। पुत्र है तो शान्ति नहीं, समस्त सुख के साधन है फिर भी जीवन अधूरा अधूरा है। लगता कुछ कमी है, कुछ खो गया है, सब कुछ पाने पर भी कुछ पाना शेष है, क्या है वह यह समझ में नहीं आता है। सत्य तो यह है कि भौतिकता, केवल भौतिक सम्पत्ति की दौड़ ने हमें यह टीस, यह व्याकुलता, यह अशान्ति दे दी है। भौतिक सम्पत्ति ने हमें क्या दिया है, यह एक शायर के शब्दों में इस प्रकार है-
    इस दौर-ए तरक्की के अन्दाज निराले हैं।
    जेहनों में तो अन्धेरे हैं सड़कों पर उजियाले हैं।।
    सत्य ही बाहरी दृष्टि से हम उन्नत हैं किन्तु मनों में अन्धेरे हैं।
    क्या आप इस अन्धेरे से बचना चाहते हैं, क्या शान्ति चाहते हैं, मानसिक शान्ति, वह शान्ति जो प्रत्येक दशा में हमें आनन्दित रखे, तो हम आप से कहेंगे बिना अधिक सोचे समझे आप घर में प्रतिदिन यज्ञ करना आरम्भ कर दें। यज्ञ में वर्णित मन्त्रों, के भाव, जिसका वर्णन हम आगे करेंगे, से आपके चित्त का पर्यावरण शुद्ध होगा, अन्तः करण में पवित्रता का संचार होगा, अशान्ति दूर होगी-और आप शान्ति पा सकेंगे।
    हम संसार में रहते हैं, स्वाभावकि रूप से इस शरीर को स्वस्थ रखने के लिए हमें वायु, जल व अन्न की आवश्यकता है। प्रकाश देनेवाला सूर्य न हो, शीतलता, अन्न व औषधि आदि जीवन शक्ति डालनेवाला, रस डालने वाला चन्द्र न हो, बादल न हों, वर्षा न हो, ऋतुओं की अनुकूलता न हो, वृक्ष न हो, फल-फूल न हो आदि सृष्टि की प्राकृतिक सम्पदा न होते हमारा जीवन कैसे चलेगा, कभी आपने इस पर विचार किया है। ये शुद्ध होंगे तो हमारा जीवन शुद्ध होगा, स्वस्थ होगा और ये दूषित रहेंगे तो शरीर स्वस्थ न रहेगा और अस्वस्थ शरीर मात्र सुख के साधनों को एकत्रित कर लेने मात्र से सुखी शान्त नहीं होगा।
    कभी आपने सोचा ये दूषित क्यों होते हैं? जबकि प्रकृति तो शुद्ध वायु, शुद्ध जल, शुद्ध प्रकाश आदि की सम्पत्ति देती है। थोड़े से चिन्तन से यह स्पष्ट हो जायेगा कि मनुष्य अपने लिए सुख के साधन चाहता है, इन साधनों के लिए बड़ी-बड़ी फैक्टरियाँ, कारें, स्कूटर आदि अनेक साधन बना लिये हैं। इन साधनों का धुंआ, गैस आदि अन्तरिक्ष को दूषित कर रहा है। दूसरे हम प्रकृति से प्रत्येक तत्व शरीर में शुद्ध रूप में ग्रहण करते हैं किन्तु जब इन्हें शरीर से निकालते हैं तो पूर्ण दूषित रूप में निकालते हैं।
    वायु हम शुद्ध, सुगन्धित ग्रहण करते हैं किन्तु हमारी सांस दुर्गन्धमय होती है, हम जलीय तत्व शुद्ध रूप में ग्रहण करते हैं किन्तु पसीने, मूत्रादि रूप में दूषित निकालते हैं, हम अन्न तो शुद्ध पवित्र ही ग्रहण करते हैं किन्तु     मल के रूप में अत्यन्त दुर्गन्ध शरीर से निकालते हैं। इस प्रकार हम स्वयं प्राकृतिक पर्यावरण को दूषित कर देते हैं।
    प्रष्न यह है कि जब यह दूषित पर्यावरण हमारे लिए हानिप्रद है, यह दूषित अन्तरिक्ष हम को अशुद्ध वायु, अशुद्ध जल एवं अशुद्ध अन्नादि प्रदान करेगा तो हम कैसे स्वस्थ रह सकेंगे, कैसे सुखी रह सकेंगे। प्रकृति के ये देव-वायु देवता, जल देवता, अन्न देवता आदि तथा इनका प्रमुख स्थान अन्तरिक्ष देवता ही दोषमय होगा और उनको दूषित करने के भी हम ही कारण हैं तो इन्हें शुद्ध कैसे करें। व्यास जी ने इस रहस्य को इन शब्दों में प्रकट किया है-
    देवान्.......श्रेयोऽवाप्स्यथ।। गीता अ. १!!११!!
    इस यज्ञ के द्वारा इन जड़ देवों को शुद्ध करो वे देव तुम्हें स्वस्थ सुखी रखेंगे। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे को स्वस्थ रखने से परम कल्याण की प्राप्ति होगी। वैसे भी ब्राह्यणग्रन्थों के भी वचन है-‘‘स्वर्गकामो यजेत’’ 1, ‘‘नौर्ह वा एषा स्वग्र्या यदग्निहोत्रम्’’ 2 ‘‘यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म’’।3
    अर्थात् स्वर्ग की कामना है तो यज्ञ करना चाहिए। निश्चय से यह अग्निहोत्र ही स्वर्ग की नौका है। यज्ञ श्रेष्ठतम कर्म है। ऐसे अनेक वचन यह सन्देष देते हैं कि हमें सुख के लिए, शान्ति के लिए, पर्यावरण शुद्धि के लिए प्रतिदिन यज्ञ करना चाहिए।
    पर्यावरण भौतिक भी है, मानसिक भी! भौतिक पर्यावरण के दूषित होने के कारण हम ही हैं। अपनी सुविधा के लिए कल-कारखाने, रेलगाड़ी आदि अनेक साधन अन्तरिक्ष को अपने धुएं से, गैसीय तत्व से दूषित कर रहे हैं। इस भौतिक उन्नति ने हमें क्या दिया है?
    आज परिवार टूट रहे हैं, विघटन बढ़ गया है। एक पुत्र धन के लिए, जायदाद के लिए, एकाधिपत्य के लिए पिता की मृत्यु की प्रतीक्षा करता है। भारत का वह आदर्ष-
    ‘मातृदेवो भव पितृदेवो भव’ तैत्तिरीयोपनिषत्-१.११.२
    मता के भक्त, पिता के भक्त बनो-
    अनुव्रतःपितुः पुत्रो, मात्रा भवतु संमनाः।। तथा अथर्व. ३.३0.२
    मा भ्राता........भद्रया ।। अथर्व ३. ३0.३
    अर्थात् -पुत्र पिता की आज्ञा का पालन करने वाला बने, माता का आदर करे।
    भाई भाई से, बहन-बहन से तथा भाई-बहन से , बहन-भाई से द्वेष न करे, साथ रहते हुए समान व्रतवाले (स्नेह, तप, त्यागवाले) होकर परस्पर कल्याणकारी वाणी वाले अर्थात् पारस्परिक व्यवहार इतना शुद्ध, पवित्र तथा मधुर हो जिससे कि भद्र-इहलोक कल्याण तथा परलोक कल्याण हो।
    यह आदर्श, यह पुनीत भाव आज दिवा स्वप्न हो गया है, कारण स्पष्ट है मानसिक पर्यावरण की अशुद्धि। इस मानसिक पर्यावरण की अशुद्धि। इस मानसिक पर्यावरण की अशुद्धि ‘यज्ञ’ द्वारा दूर होती है। यज्ञ ही वह साधन है जो फिर से उस मानव का जिसमें त्याग, तपस्या, स्नेह, समर्पण के गुण हो, का निर्माण कर सकता है।
    यज्ञ में बोले जाने वाले मन्त्र अन्तरिक्ष में दूषित ध्वनि तरंगों में परिवर्तन की सामथ्र्य रखते हैं, चित्त पर पड़े जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों को, अशुद्ध संस्कारों को शुद्ध करते हैं, मन्त्रों में निहित भावों के द्वारा आचरण में पवित्रता का संचार होता है, यज्ञ में की जाने वाली विधि जीवन निर्माण की दिषा को प्रबुद्ध बनाती है। प्रतिदिन किये जाने वाले यज्ञ के द्वारा, दैनिक यज्ञ के द्वारा भौतिक मानसिक एवं सामाजिक पर्यावरण का शुद्धिकरण होता है। भौतिक, मानसिक एवं सामाजिक रोगों के विनाश का साधन, सर्वोतम साधन दैनिक यज्ञ है।
    वैसे भी मनुष्य लोकव्यवहार में उपकार करने वाले के प्रति कृतज्ञ होता है, उसके गुणों का यत्र तत्र सर्वत्र वर्णन कर आत्मतोष पाता है। किसी सुन्दर कलाकृति को देखकर प्रसन्न होता है, प्रशंसा करता है, वाह-वाह करता है, जो इस कार्य को नहीं करता उसे अज्ञानी मूढ़ समझा जाता है। कृतज्ञता का भाव, किये हुए उपकार को मानने का भाव जिसमें नहीं होता है, समाज उसे कृतघ्न कहकर हेय दृष्टि से देखता है।
    हमारे विचार से जो दैनिक यज्ञ नहीं करता है, वह ईष्वर के कृत उपकारों के प्रति कृतज्ञता का भाव नहीं रखता। सृष्टि में उसकी सुन्दर उपादेय कलाकृति को देखकर उसकी प्रशंसा, उसकी स्तुति नहीं करता है, वह समाज में ज्ञानवान् है? यह कैसे कहा जा सकता है। उस कलाकार की कृति ने सूर्य, चन्द्र, आकाष, अन्तरिक्ष, वायु, अग्नि आदि अनेक उपादेय तत्त्व बनाये हैं, जिनके अभाव में हमारा जीवन ही कठिन नहीं असम्भव हो जाता। उसने नेत्र दिये हैं, प्रकाष दिया है, जिससे हम विविध सौन्दर्य को देखकर आनन्दित होते हैं, रसना दी है विविध वस्तुओं का रसास्वादन कर आनन्दित होते हैं, कान दिये है जो विविध नाद सौन्दर्य से चित्त को आल्हादित करते हैं। हमारे पाठक इनमें से एक के अभाव की कल्पना करें फिर चिन्तन करें तो उस कलाकार के कला कौषलका अपने ऊपर हुए उपकारों का भाव जागृत हो जायेगा। इन उपकारों को गुणनुवाद करना परमेष्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना हमारा नैतिक कर्तव्य हो जाता है। इस कर्तव्य पूर्ति का साधन ‘दैनिक यज्ञ’ है।
यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का द्वितीय मन्त्र है-
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे। ४0/२

 अर्थात् -इस संसार में कर्म करते हुए ही सौ वर्ष तक (आयु पर्यन्त) जीने की इच्छा रखनी चाहिए। यहाँ कर्म करने के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है। किन्तु कर्म इस प्रकार निष्काम भाव से करने चाहिये, जिससे कर्म बन्धन के कारण न बनें।
    क्या आप चाहते है कि वह गुर सीख लें कि हम कर्म भ्ज्ञी करें किन्तु कर्म बन्धन के कारण न बनें। इस प्रकार फलेच्छा रहित, आसक्ति रहित कर्म करने का अभ्यास होना चाहिए। दैनिक यज्ञ ही वह अभ्यास है जिसके करने से, जीवन को यज्ञमय बनाने से, प्रत्येक कर्म को समर्पण भाव से करने की प्रवृत्ति का विकास होता है। श्रीमद् भगवद्गीता ने इस भाव को इन सरल शब्दों में व्यक्त किया है-
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र........समाचार।। १३/९
    यज्ञ के अतिरिक्त यज्ञीय भाव से रहित किये गये कर्म बन्धन में, दुःख में, प्रपञ्च में फंसाने वाले होते हैं, अतः समर्पण भाव से कर्म करना चाहिये, आसक्ति के लगाव के तृष्णा के त्याग से ही समर्पण भाव का जीवन में समावेश हो सकता है।
    अन्त में हम तो यही कहेंगे कि आप उलझन भरे, समस्याओं से भरे हुए जीवन से छुटकारा चाहते है, यदि आप चाहे हैं प्रतिदिन नवीन से नवीन रोगों के शिकार होकर स्वस्थ रहने के आनन्द को न खावें, भौतिक पर्यावरण की अशुद्धि से बचें, यदि मानसिक चिन्ताओं की सुरसा राक्षसी से बचना चाहते हैं, यदि आप में यह अभिलाषा हो कि हम उस अनन्त वैभव सम्पन्न, आनन्द-निधान के प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट कर अपने को उदात्त बनावें, निष्चय से हम यदि संसार के बन्धनों से छूटना चाहते हैं, वासनाओं के जाल से मुक्त होकर अहर्निष आनन्द में रहना चाहते हैं तो संकल्प लें कि हम दैनिक यज्ञ करेंगे, अवष्य ही करेंगे।
यज्ञ ही देवपूजा है
कुछ वर्षो पूर्व बम्बई में श्री रामचन्द्र आर्य ने ‘अन्धेरी’ में ‘सामवेद पारायण यज्ञ’ रखा। इस यज्ञ के अवसर पर लेखक ने यज्ञ विषयक अनेक शंकाओं का सरल समाधान किया था। उस अवसर पर एक यज्ञ-श्रद्धालु ने कहा-
    ‘ब्रह्मा जी एक प्रष्न हमारा है, उसका समाधान करने की कृपा करें। प्रष्न पूछने पर उन्होंने कहा आर्यसमाजी नास्तिक होते हैं। यह कैसे? वे उत्तर में बोले-कभी किसी भी अवसर पर मन्दिर में जाते नहीं हैं, सिर झुकाते नहीं हैं, पूजा पाठ करते नहीं हैं। हाँ यज्ञ अवष्य कर लेते हैं। नामकरण, चूड़ाकर्म, विवाह, गृहप्रवेश आदि कोई कार्य हो तो बस यज्ञ कर लेते हैं। न किसी देवी-देवता की पूजा करते हैं, न सत्यनारायण की कथा करते हैं। भला जो पूजा न करता हो, वह आस्तिक कैसा? भला हवन कर लेना, यज्ञ कर लेना क्या कोई देव पूजा हुई?
    हमारी दृष्टि में प्रश्न बहुत अच्छा था, पूछने वाले बहुपठ या शास्त्रज्ञ नहीं थे, किन्तु श्रद्धालु अवष्य थे। वे इसका सरल समाधान चाहते थे। सरल से तात्पर्य सामान्य व्यक्ति के गले में उत्तर जाये, उसकी समझ में आ जाये, ऐसा समाधान। आइये! विचार करें कि यज्ञ देव पूजा है या नहीं। प्रष्न कत्र्ता का उचित समाधान हो, प्रतिदिन मन्दिर में जाकर सिर झुकाना, नमन करना मात्र को पूजा समझने वाले व्यक्ति की दृष्टि से समाधान।
 पूजा किसे कहते हैं-
    इसको समझने के लिए पहले जन सामान्य की दृष्टि से पूजा किसे कहते हैं, वह क्यों करते हैं, इसे समझ लें तो उत्तम रहेगा।
    जन सामान्य की दृष्टि में पूजा का तात्पर्य तो केवल इतना मात्र है कि किसी मूर्ति के आगे सिर झुका देना, अगरबत्ती या धूप जला देना, अधिक से अधिक शंख, घंटा आदि बजाकर आरती कर लेना देव पूजा है, परमेष्वर की पूजा है। हमारे एक अध्यापक साथी अंग्रेजी प्रवक्ता हैं, पढ़े लिखे हैं, एक दिन हमसे बोले-शास्त्री जी, आप प्रतिदिन यज्ञ करते हैं तो मैं भी प्रतिदिन बिना ईष्वर की पूजा किये कुछ खाता-पीता नहीं हूँ। मैंने कहा-यह आपका नियम है, वत्र्तमान समय को देखते हुए अच्छा नियम है।
    एक दिन हमें उनके घर जाने का अवसर मिला। हम प्रातः 8 बजे उनके यहाँ पहुंचे, उनके साथ अन्य साथी के यहाँ ‘कथा’ में जाने का विचार बना था। देखा तो एक केटली में चाय थी, वे चाय पी रहे थे, बोले-दो तीन कप चाय पीने के बाद ही मैं शौचादि नित्य कर्म करता हूँ। मैंने कहा-जल्दी करो, वहाँ मित्र के यहाँ ‘कथा’ में समय पर पहुँचना है। बोले -बस 15-20 मिनट लगेगें, तब तक आप आज के समाचार पढ़ लीजिये। सचमुच वे तैयार होकर बीस मिनट में आ गये, बोले-बस अभी आया, बिना ‘पूजा’ किये बाहर नहीं निकलता हूँ, बस जरा पूजा कर आऊँ। हमने सोचा-अब इतनी देर से बैंठे हैं तो और सही, जाना तो है इनके साथ ही। बस जी, आ गये बोले-शास्त्री जी, चलिये। मैंने आष्चर्य से पूछा-पूजा? बोले -कर आया। हमने पूछा-इतनी जल्दी, बोले-देर क्या लगती है? घर के बड़े से आले में विष्णु, कृष्ण, हनुमान व देवी के चित्र रखे हैं, बस धूप बत्ती जलाकर सब पर घुमा दी, मन में कल्याण करो, अपराध क्षमा करो कहा-बस पूजा हो गयी।
    यह सब हमने इस भाव को दर्शाने के लिए लिखी कि जब एक पढ़ा लिखा एम.ए. पास व्यक्ति उक्त कार्य को पूजा सझता है तो सामान्य जन की तो बात ही क्या? आपने देखा होगा चलते-चलते मन्दिर दीखा तो सिर झुका दिया, हाथ जोड़ लिये सोचा-पूजा हो गयी। एक आदरणीय बहन ने अपना अनुभव बताया-एकान्त रास्ते में मेरा स्कूटर खराब हो गया, मैंने सोचा-प्लक खोलकर देखूँ। इतने में क्या देखती हूँ कि एक मोटर साईकिल पर एक युवक-युवती थे। पीछे बैठी युवती ने बड़ी जोर से एक ओर देखकर हाथ उठाकर -‘हाय हनु’ कहा। उनकी गाड़ी जाने पर बहन जी ने सोचा-उधर कोई है नहीं, फिर इसने ‘हाय’ कहकर किसको विष किया। अर्थात् सम्मान दिया। वे बोली-‘‘ध्यान से देखने पर दिखाई दिया कि दूसरी ओर एक छोटी सी हनुमान की मूर्ति थी। उस हनुमान भक्त ने ‘हाय हनु’ कहकर उसकी भावनानुसार हनुमान की पूजा की।’’ वर्तमान समय में इसे ही ‘‘हाय हनु’’ वाली पूजा को देव पूजा समझा जाता है, यही उनकी दृष्टि में ईष्वर की पूजा है।
    आईये, विचार करे कि पूजा का तात्पर्य क्या हैं? शास्त्रानुसार-‘पूजनं नाम सत्कारः’  अर्थात् यथोचित व्यवहार करना, पूजा है। लोक व्यवहार में भी यही प्रचलित है। भूखा बालक जब भूख-भूख चिल्लाता है तो माँ कहती है दो मिनट में तेरी पेट पूजा करूँगी। यहाँ पूजा से तात्पर्य हाथ जोड़ना या पेट की आरती करना नहीं, अपितु यथोचित व्यवहार भोजन खिलाना है। दुष्ट के लिए कहते हैं, पीठ पूजा कर दो। मनु ने लिखा है-
‘‘यत्र नार्यस्तु.............भूषणाच्छादनाशनैः।३।५९।।
    अर्थात् नारियों की सदैव भूषण, वस्त्र तथा भोजनादि से पूजा-सत्कार, सम्मान करना चाहिए। इस प्रकार पूजा का अर्थ यथोचित व्यवहार, सत्कार, सम्मान करना होता है।
    पूजा क्यों-दुर्जन तोष न्याय से पूजा का अर्थ मात्र देवालयों में स्थित देव पूजा स्वीकार कर लिया जाये तो भी वह पूजा क्यों की जाती है? यह जानना आवष्यक है। प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी कामना से पूजा करता है। अपनी-अपनी इच्छा पूर्ति के लिए पूजा की जाती है। तात्पर्य यह है कि पूजा लाभ के लिए की जाती है, स्वर्ग-सुख प्राप्ति के लिए की जाती है।
    संसार में सुख किस से प्राप्त होता है, यदि इसका चिन्तन करें तो अनेक वस्तुएँ सुखदायक है, यही कहा जायेगा। किन्तु सत्य पूछें तो सब से अधिक सुख, जिसके बिना जीवन, जीवन ही न रहे, वह प्राप्त होता है-हवा, पानी एवं अन्न से। क्या हम यह अनुभव नहीं करते है कि हवा के बिना जीवन तो क्या संसार भी अत्यल्प समय के लिए भी नहीं टिक सकता है। जल के बिना कुछ दिनों चल सकते हैं किन्तु अधिक दिनों तक नहीं। आप कल्पना करे कि अनेक देषों का राजा यदि प्यासा मरूस्थल में भटक रहा हो, प्यास से तड़प रहा हो, व्याकुल हो रहा हो, उस समय उससे एक गिलास पानी का मूल्य मागे तो वह अपना सारा राज्य देने को तैयार होता है। निष्चय से प्यासे के लिये एक गिलास पानी के सामने सारा संसार ही तुच्छ हो जाता है, सारे संसार का वैभव व्यर्थ है। इसी प्रकार अन्न का महत्व भी जीवन में सर्व विदित है।
    अब आप विचार करें कि क्या मन्दिर, गुरूद्धारा मसिजद तथा चर्च में की जानेवाली तथ कथित पूजा से क्या वायु, जल एवं अन्न की शुद्धता के लिए कोई प्रयत्न होता है, जब कि वर्तमान में तो यत्र-तत्र सर्वत्र दूषित पर्यावरण पर अनेक देश क्या सारा विष्व ही चिन्तित है। तो इन तथा कथित पूजाओं से हमें क्या लाभ मिल रहा है, यह चिन्तनीय है। निस्सन्देह यह पूजा नहीं, सच्ची देव पूजा नहीं है। फिर प्रश्न है-सच्ची देव पूजा क्या है?
    देव पूजा शब्द में से पहले देव किसे कहते हैं, यह जान लेना आवष्यक है। निरूक्त में वर्णित -देवो दानाद् व दीपनाद् वा द्युस्थानों भवतीति वां 1 देव शब्द के स्पष्ट एवं शास्त्रीय अर्थ को छोड़कर जन सामान्य की दृष्टि से कहे तो-देव वह हैं जो देता है, बदले में कुछ चाहता नहीं हैं। सूर्य देवता, वायु देवता, वृक्ष देवता, पृथिवी देवता आदि जड़ देव जीवन देते हैं, बदले में कुछ नहीं चाहते हैं। चेतन देवों में माता, पिता, आचार्य, अतिथि, सन्त आदि आते है तथा समस्त देवों का देव परमपिता परमेष्वर है। ये सभी अर्थात् यथोचित व्यवहार, सम्मान, सुरक्षा द्वारा अधिक कल्याण, ग्रहण करना चाहते हैं। इस प्रकार चेतन देवों की तो हम पूजा करते रहते हैं, सम्मान करते रहते हैं, किन्तु जड़ की पूजा कैसे की जाये?
    इस प्रष्न के समाधान से पूर्व यह जान लेना आवष्यक है कि ये जड़ देवता हमारा क्या और कैसे कल्याण करते हैं? हमारा नित्य का अनुभव हमें यह बताता है कि बिना वायु, जल एवं अन्न के हमारा जीवन चलता नहीं है। इन तीनों की स्थिति द्युलोक, अन्तरिक्षलोक एवं पृथिवीलोक है। उक्त तीन लोक जीवन के लिए आवष्यक है। सृष्टि निर्माता परमेष्वर ने इन्हें शुद्ध, स्वस्थ एवं पवित्र निर्माण किया, किन्तु मानव ने अपनी भौतिक आवष्यकताओं की पूर्ति के लिए जो कल कारखाने, रेल, कार आदि अनेक निर्माण किये हैं। इन निर्माणों से द्यु, अन्तरिक्ष एवं पृथिवी दूषित होगी। हम दूषित जल, अन्न ग्रहण करेंगे तो अस्वस्थ होंगे। आनेवाली सन्तान लूली, लंगड़ी विक्षिप्त आदि रोगों से युक्त होगी। इन सबके कारण हम हैं, मनुष्य हैं, हमारी मात्र भौतिक उन्नति है।
    निष्चय से मन्दिरों में आरती करने से ये तीनों लोक, यह पर्यावरण शुद्धि न होगा। संसार की कोई पूजा पद्धति इन्हें शुद्ध, स्वस्थ करने में सक्षम नहीं है। इसीलिए हमारे दूरदर्शी महान् वैज्ञानिक ऋषियों, महर्षियों ने ‘यज्ञ की पावन पद्धति का आविष्कार किया था तथा यज्ञ को ही ‘देवपूजा’ कहा।
यज्ञ देवपूजा कैसे?
    ऊपर हमने जड़ चेतन देव बताये। इनमें से चेतन देवों की पूजा यथोचित सत्कार या व्यवहार से सम्भव है तथा वे हमारी पूजा से, सम्मान से तृप्त होकर हमारा कल्याण करते हैं। प्रश्न तो जड़ देवों का है, इनकी पूजा कैसे हो? यह तो स्वीकार है कि इनज ड़ देवों के शुद्ध होने से हमारा जीवन स्वस्थ्य एवं सुखमय होता है। वायु, जल, अन्न जीवन के लिए आवष्यक तत्त्व हैं। इनकी पूजा हम कैसे करें, बात बड़ी उलझन की है।
    थोड़ा विचार करें तो हमारे शास्त्रों ने सारे रहस्य स्पष्ट कर दिये हैं। हम अन्न जल से अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं तो क्या अन्न को शरीर में मलने से, सिर पर डाल देने मात्र से उन्हें अन्न जीवन प्रदान करेगा, उनकी तृप्ति होगी। नहीं, उनकी तृप्ति मुख द्वारा भोजन ग्रहण करने से होती है। इस प्रकार चेतन देवों का जीवन मुख द्वारा अन्न जलादि ग्रहण करने से चलता है। अन्न सूक्ष्म होकर उदर में जाता है, फिर पेट के यन्त्र उसे और सूक्ष्म करके सारे शरीर को ऊर्जा प्रदान करते हैं।
    इस आधार पर जड़देवों की पूजा के लिए, उन्हें तृप्त करने के लिए उनका मुख क्या है, क्या हो सकता है जो इन्हें सूक्ष्म होकर ऊर्जा प्रदान करें, इन्हें जीवनी शक्ति से युक्त रख सके? शतपथ ब्राह्मण मंे लिखा है-‘‘अग्निर्वै मुखं देवानाम्’’
    इन जड़ देवों का मुख अग्नि है, क्योंकि अग्नि में डाले हुए पदार्थ, पदार्थ विज्ञान के अनुसार नष्ट नहीं होते हैं अपितु रूपान्तरित होकर, सूक्ष्म होकर शक्तिशाली बनते हैं। सूक्ष्म होकर अन्तरिक्ष में वायु के माध्यम से फैलते हैं, व्यापक हो जाते हैं। सभी को जीवन शक्ति से संयुक्त कर देते हैं। अन्तरिक्ष में, द्युलोक में, व्याप्त पर्यावरण को शुद्ध करने में सक्षम हो जाते हैं। तभी-‘‘अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः’’ यजु 23//62 इस यज्ञ को भुवन की नाभि कहा है, जो पदार्थ अग्नि में डालते हैं, वे सूक्ष्म होकर वायु के माध्यम से ऊर्जस्वित होकर, शक्ति सम्पन्न होकर द्युलोक तक पहुँचते हैं। मनु महाराज ने स्पष्ट लिखा है-
    अग्नौ प्रास्ताहुतिः............प्रजाः।। मनु. ३। ७६।।
    अर्थात् अग्नि में अच्छी प्रकार डाली गयी घृत आदि पदार्थो की आहुति सूर्य को प्राप्त होती है-सूर्य की किरणों से वातावरण में मिलकर अपना प्रभाव डालती है, फिर सूर्य से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न पैदा होता है, उससे प्रजाओं का पालन-पोषण होता है। गीता मंे वर्णित है-
    अत्राद् भवन्ति..........कर्मसमुद्भवः।। गीता ३।१४
    अन्न से प्राणी, वर्षा से अन्न, देवयज्ञ से वर्षा तथा देवयज्ञ तो हमारे कर्मो के कारने से ही सम्पन्न होगा। निष्चय से देवयज्ञ ही वह साधन है जिस के द्वारा हम यथोचित रूप में चेतन देवों का सम्मान करते हैं तथा जड़ देवों की भी पूजा अर्थात् यथोचित व्यवहार द्वारा इन्हें दूषित नहीं होने देते हैं। अग्नि में डाले गये पदार्थ सूक्ष्म होकर वृक्ष देवता, वायु देवता, पृथिवी देवता, सूर्य देवता, चन्द्र देवता आदि सभी लाभकारी देवों को शुद्ध, स्वस्थ, पवित्र रखते हैं, और ये देव हमें स्वस्थ एवं सुखी बनाते हैं। गीता में इस तथ्य को कितने स्पष्ट शब्दों में वर्णित किया है-
    देवान्भावयतानेन .................परमावाप्स्यथ।। ३।११
    इस यज्ञ के द्वारा (अग्निहोत्र के द्वारा) तुम इन जड़ चेतन देवों को उत्तम बनाओ तब वे देव तुम्हारा कल्याण करेंगे। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे को स्वस्थ रखने से ही परम कल्याण की प्राप्ति होगी। यज्ञ का ही जीवन में अत्यनत महत्व है। यही सच्ची देवपूजा है। इसीलिए महा-भारत काल पर्यन्त यज्ञ का ही विधान प्राप्त होता है। किसी मूर्तिपूजा आदि का विधान नहीं मिलता क्योंकि यज्ञ के अतिरिक्त सभी पूजा पद्धतियों में वायु, जल, अन्न, वृक्षादि पर्यावरण के दोषो को दूर करने की सामथ्र्य नहीं है। जल-वायु शुद्ध होगा यज्ञ से, यथोचित व्यवहार से। अतः सच्चे अर्थो में यज्ञ ही देवपूजा है, सच्ची देवपूजा है। प्रतिदिन दैनिक यज्ञ करके इस देवपूजा को सम्पन्न करना हमारा नैतिक कत्र्तव्य है।
प्रथम सोपान-आचमन मन्त्र
कठोपनिषद का वचन है-
नायमात्मा..............तनंू स्वाम्।। २।२२
    यह आत्मा न प्रवचन से, मेधा बुद्धि से, न सत्संग से प्राप्त करने योग्य हैं, जिसको यह आत्मा (परमात्मा) स्वयं स्वीकार करता है, उसी को यह प्राप्त होता है, उीस को यह अपना स्वरूप प्रकट करता हैं।
    यहाँ स्वाभाविक रूप से मन में यह भाव बैठ जाता है कि परमात्मा जिसे चाहेगा, उसे अपना स्वरूप प्रकट करेगा, तो हमारे सम्पूर्ण सत्प्रयत्न बेकार होंगे, हमें कोई आवश्यकता नहीं है कि हम प्रतिदिन उस परमेष्वर की स्तुति उपसना करें, यज्ञादि सत्कर्म करें।
    इसका समाधान हम अपने व्यवहार से प्राप्त कर सकते हैं। व्यवहार में हम देखें कि एक पिता के तीन-चार पुत्रा हैं तो वे इन पुत्रों में किसे अधिक चाहते हैं या चाहेंगे? इसका उत्तर अत्यन्त स्पष्ट है पिता उस पुत्र को चाहेंगे, जो उनके आदेष का पालन करता है, उनकी सेवा करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो जो सत्पात्र होगा, उस पर ही पिता अपनी कृपा दृष्टि रखेंगे।
    इस व्यवहारिक सत्य को कठोरपनिषद् के वचन पर परखें तो यही बात समझ में आयेगी कि परमेष्वर अपनी कृपा दृष्टि उसी पर रखेंगे जो सत्पात्र होगा।
    हम वेद मार्ग पर चलें, वेद विरूद्ध मार्ग पर नहीं। इस आधार पर वेद मार्ग पर चलना सत्पात्र बनना है। परमेष्वर तो दया का समुद्र है, अपनी कृपा की वर्षा सतत करता रहता है, वह तो -‘‘अन्ति सन्तं न पश्यति अन्ति सन्तं जहाति’। अथर्व १0 । ८।३२
    इस वेद वचन के अनुसार कुपात्र या अज्ञानी उस परमात्मा को नहीं देख पाते हैं, किन्तु परमात्मा के नियम से कोई बच नहीं सकता है। बस उनकी कृपा सत्पात्र को ही प्राप्त होगी।
    बाहर बहुत वर्षा हो रही थी, रात्रि का समय था। आचार्य ने षिष्य से कहा-जा, एक घड़ा उठाकर बाहर रख दे, वर्षा का जल प्राप्त होगा। षिष्य शीघ्रता में घड़ा रख आया। थोड़ी देर में आचार्य ने घड़ा मंगवाया तो जल उसमें भरा नहीं था, कारण पात्र उल्टा रखा था। आचार्य ने कहा पात्र सीधा रखोगे तो वर्षा का जल उसमें भरेगा, जाओ, पात्र सीधा रखो। षिष्य थोड़ा आवेश में जाकर रख आया। थोड़ी देर में पात्र मंगवाया तो देखा कि वर्षा का जल उसमें नहीं भरा था, कारण कि आवेष में पात्र रखने से पात्र में छिद्र हो गया था। छिद्र युक्त पात्र में जल कैसे भर सकता था। आचार्य ने दूसरा पात्र पुनः रखने के लिए कहा, कारण कि वर्षा बहुत सुन्दर रूप में बरस रही थी। षिष्य दूसरा पात्र रख आया। आचार्य ने पुनः घड़ा भर गया होगा, इस आशा से मंगवाया, सत्य ही घड़ा भर गया था। आचार्य प्रसन्न हुए, किन्तु प्रकाष में घड़े को देखा तो सारा जल गन्दा था, कारण कि षिष्य गोबर भरे घड़े को बाहर रख आया था। आचार्य बोले-षिष्य वर्षा तो बहुत बरस री थी, किन्तु पात्र उल्टा हो तो वर्षा का जल न मिलेगा, छिद्र युक्त होगा तो भी नहीं मिलेगा, तथा गन्दगी से भरा पात्र होगा तो जल उपयोगी नहीं होगा। इसी प्रकार परमात्मा की कृपा की वर्षा तो सतत बरसती रहती है, केवल सत्पात्र ही उस कृपा को प्राप्त कर सकता है। सत्यपात्र बनने के लिए ही दैनिक यज्ञ करना आवष्यक है। सत्पात्र वह होता है जो विपरीत मार्ग पर, उल्टे मार्ग पर न चलें, जो छिद्र -दोष युक्त कर्म न करे तथा दूषित अन्तः करण की वृत्तिवाला न हो। दैनिक यज्ञ की सम्पूर्ण विधि व्यक्ति को सत्पात्र बने रहने में पूर्ण सहायक है। सत्पात्र को ही प्रभु की कृपा प्राप्त होती है।
आचमन मन्त्रों का महत्त्व-
आचमन करने के साथ निम्न व्रतों को ग्रहण करते हुए जीवन को यज्ञमय बनाना चाहिए।
    जल को अमृत’ कहा गया है। अमृत से तात्पर्य-‘‘न मृतम् अमृतम्’’ अर्थात् जल जीवनदायक अमृत स्वरूप है। संस्कृत में जल को जीवन कहते हैं। प्रभु कृपा से मानव शरीर मिला है, इसे जीवन युक्त बनाना चाहिए। प्रभु कृपा से हमारा जीवन जीवनमय बनें, अमृतमय, आनन्दमय बने। प्रथम आचमन के द्वारा यह व्रत लेना है।
    द्वितीय आचमन के समय जल अमृतमय तब होता है ज बवह गतिशील होता है। गति ही जीवन है। तदनुसार निरन्तर गतिशील रहकर, कर्म के द्वारा, सत्कर्म के द्वारा जीवन निर्माण का व्रत ग्रहण करना चाहिए। जिस प्रकार गतिशील जल में जीवन तत्त्व रहते हैं, वैसे ही निरन्तर कर्म के द्वारा जीवन को गतिशील बनाने की प्रेरणा द्वितीय आचमन से ग्रहण करना है।
    गतिषील जल निर्मल होता है। अतः तृतीय आचमन के साथ गति सदैव निर्मल, स्वच्छ, पवित्र हो, यह भावना ग्रहण करनी चाहिए। निर्मल अन्तःकरण में ही सत्य, यष एवं श्री शोभा, ऐष्वर्य का निवास होता है।
    केवल मन्त्र पाठ से गृहीत आचमन से भौतिक दृष्टि से, बाह्य रूप से भले ही लाभ मिले किन्तु आत्मिक लाभ दृढ़ संकल्प एवं तदनुकूल आचरण से होता है। आचमन मन्त्रों के अर्थानुसार यह भाव भी स्मरण रखने योग्य है।
    उपस्तरण का अर्थ बिछौना है। बिछौना आधार है, आश्रय है, माँ की गोद का आश्रय कितना आनन्दमय एवं शान्तिदायक होता है। उसी प्रकार ईष्वर भी सम्पूर्ण जगत् का आधार है, उसके आश्रय में रहकर मैं सदैव निर्भीक एवं आनन्दमय स्थिति में रहूँ।
    द्वितीय मन्त्र में अपिधानम्  का अर्थ है ओढ़नी। जिस प्रकार माँ की गोद में लेटा हुआ षिशु वस्त्र से आच्छादित होकर निर्भीक होता है। कभी षिषु निद्रा में भयभीत होता है तो माँ का हाथ उस पर आच्छादन का सहारा होता है। इस असार संसार में याजक को वह भाव ग्रहण करना चाहिए कि सर्वव्यापक परमेष्वर का हाथ सदैव याजक के ऊपर है। वह सर्वात्मना उसका रक्षक है, उसके रहते हुए संसार में किसका भय?
    पूज्य स्वामी केवलानन्द जी का संस्मरण इस आषय को पुष्ट करने वाला है। पूज्य स्वामी केवलानन्द जी किसी पर्वतीय प्रदेष की शोभा देखने गये थे। विचार यह हुआ कि पर्वत पर प्रातः शीघ्र चढ़ेगे। रात्रि में एक धर्मषाला में ठहरे। प्रातः शीघ्र उठकर स्नान ध्यान से निवृत्त होकर धर्मशाला के सामने वाटिका में टहलकर और लोगों के तैयार होने की प्रतीक्षा करने लगे। स्वामी जी जी आकृति भव्य, उस पर लम्बी दाढ़ी और भी अधिक भव्य थी। सबके तैयार होने पर सब ऊपर चढ़ने लगे, अभी कुछ दूर चले होंगे कि स्वामी जी ने देखा कि एक भद्र महिला की गोद में बैठा बालक स्वामी जी को घूंसा दिखा रहा था। स्वामी जी ने आष्चर्य से दृष्टि दूसरी ओर की थोड़ी देर बाद पुनः उनकी दृष्टि उस पर पड़ी तो फिर वही किया। चार-पांच बार घूंसा दिखाने की बात रही। पर्वत पर चढ़कर थोड़ी देर विश्राम करने पर स्वामी जी ने भद्र महिला से पूछ ही लिया-बेटी, मैं आपको जानता भी नहीं, फिर आपका यह बालक सारे रास्ते मुझे घूंसा क्यों दिखा रहा था? क्षमा याचना के साथ महिला ने उत्तर दिया कि बालक का कोई अपराध नहीं। प्रातः यह बालक नहा नहीं रहा था, तब मैंने उसे बाग में टहलते हुए आपको दिखाकर कहा-नहीं नहायेगा तो बाबाजी झोली में डालकर ले जायेंगे, तो शीघ्र स्नान कर लिया। यह मेरी गोद में था। अतः निर्भीक बनकर आपको घूंसा दिखाकर यह कह रहा था कि मुझे क्या ले जाओगे? मैं आपको मारूँगा।
    परमेश्वर के आश्रय में रहकर हमारे अन्दर भी निर्भीकता का भाव आना ही चाहिए।
    तृतीय आचमन में सत्य, यश एवं श्री की कामना है। निस्सन्देह सत्याचरण यष प्रदान करता है। यषस्वी व्यक्ति का ऐष्वर्य ही शोभा देनेवाला अर्थात् इहलोक एवं परलोक में सुखशान्ति देने वाला होता है। यजुर्वेद का वचन है-   
    दृष्ट्वा .......प्रजापितः।। १९।७७।।
    प्रजापति परमेष्वर ने भी सत्य और अनृत-असत्य के रूप को देखकर यह षिक्षा दी कि मनुष्य अनृत में अश्रद्धा और सत्य में श्रद्धा करे। इस प्रकार सत्याचरण का जीवन में विषेष महत्त्व है। असत्याचरण से प्राप्त धन सुख के साधन दे सकता है, पर सुख शान्ति नहीं। असत्यचरण से प्राप्त धन इस जीवन में थोड़ा सुख भले ही दे किन्तु परलोक तो नष्ट हो जाता है। मनु महाराज ने अर्थ की, धन की पवित्रता पर विशेष बल दिया है-
    सर्वेषामेव..........शुचिः।। मनु ५।१0६
    सभी पवित्रताओं में धन की पवित्रता सर्वश्रेष्ठ है। जो धनार्जन में पवित्र है, वही पवित्र है। मिट्टी जल की पवित्रता नहीं। अतः जीवन में सत्याचरण का विषेष महत्व है।
    स्वाहा शब्द से तात्पर्य
    प्रथम आचमन के समय स्वाहा कहते हुए यह संकल्प लेना चाहिए कि जल के समान-‘सु आह इति वा’ हम सदैव मधुर कोमल सर्वहितकारी वाणी बोलेंगे।
    द्वितीय आचमन के समय स्वाहा उच्चारण के साथ ‘स्वावाग् आह इति वा’  अपने अन्तरात्मा में परमात्मा का आश्रय उनकी कृपा दृष्टि सदैव मेरे ऊपर है ऐसा विचार करके याथातथ्य अर्थात् ज्ञानानुसार सत्य बात कहने का संकल्प लेना चाहिए।
    तृतीय आचमन के साथ स्वाहा का उच्चारण करते हुए श्रद्धा सहित ‘स्वाहुतं हविर्जुहोति इति वा’ अर्थात् स्वार्जित सत्याचरण से प्राप्त यष, लक्ष्मी (धनैष्वर्य) को सदैव संसार के कल्याणार्थ समर्पित करने का संकल्प लेना चाहिए।
    उक्त संकल्प मोक्ष प्राप्ति के पात्रत्व का अधिकारी बनाता हैं।
तीन आचमन क्यों?
    जिस प्रकार जल शान्त होता है, शान्ति देता है, जीवन देता है, उीस प्रकार हमें शान्त रहते हुए आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त हो। इन तापत्रय से मुक्ति का संकल्प आचमन से ग्रहण करना है।
    इसके अतिरिक्त -‘‘मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्’  के अनुसार मन, वाणी एवं कर्म की एकता के द्वारा महान् बनने का संकल्प लेना है।
अगड़स्पर्श मन्त्र
अंग स्पर्श मन्त्रों का महत्व-
    बांई हथेली में थोड़ा जल लेकर, दाहिने हाथ्ज्ञ की मध्यमा और अनाममिका अंगुलियों को मिलाकर मन्त्र निर्दिष्ट अंगों का पहले दक्षिण फिर वाम भाग के स्पर्श का विधान है। यहाँ पर ध्यान यह रखना है कि मध्यमा अंगुली-जीवन में मध्यम मार्ग, समन्वयात्मक मार्ग पर चलना अर्थात् त्याग-भोग, प्रवृत्ति-निवृत्ति, श्रेय-प्रेय का समन्वय करके चलने का भाव ग्रहण करना है। ‘‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’’  के अनुसार अति त्याग, अति भोग दोनों ही उचित नहीं है।
    द्वितीय अंगुली ‘अनामिका’ है। संसार में प्रषंसनीय कार्य करते हुए भी सम्मान, यष, नाम प्राप्ति की भावना से दूर रहना है। क्योंकि जिस स्वर्ग प्राप्ति के लिये, मोक्ष प्राप्ति के लिये यज्ञ क्रिया करते हैं, उसमें सम्मान, नाम आदि की प्राप्ति में ‘अहम्’ का समावेष होता है। ‘अहम्’ भी मोक्ष प्राप्ति में एक बाधक तत्व है। इसलिए-
    सम्मानाद्........सर्वदा।। मनु २/१६२
    अर्थात् विद्वान को, मोक्ष मार्ग के पथिक को विष के समान सम्मान से डरना चाहिए तथा अपमान भाव को अमृत के समान स्वीकार करना चाहिए। मनु के इस वचन के अनुसार अनामिका अंगुली का व्रत, ‘नाम’ (यष) की भावना से रहित कर्म करने का व्रत ग्रहण करना है।
    अग-स्पर्श के मन्त्र एवं विधि की आवष्यकता को निम्न उदाहरण से समझना उत्तम रहेगा-
    एक नवयुवक कार्लमाक्र्स के पास जाकर बोला-‘‘कामरेड, आप साम्यवाद का ढिंढोरा पीटते हैं मैं अत्यन्त निर्धन हूँ। मुझे धन की आवष्यकता है, धन दे’’। माक्र्स ने युवक को देखा और कहा-बड़े दुःख की बात है तुम्हारे पास धन नहीं है, अभी-अभी एक कम्पनी खुली है, उसे मनुष्य के अंगों का परीक्षण करना है, तुम अपने दोनों हाथ देकर आओ, तुम्हें दो लाख मिलेंगे। नवयुवक ने हाथों को देखकर कहा-यह सम्भव नहीं है। कामरेड ने पुनः कहा-वह कम्पनी दो पैर लेगी, दोनों पैरों के दो करोड़ देगी-जाओ, दो करोड़ ले आओ। नवयुवक ने फिर मना कर दिया। फिर माक्र्स बोले-‘वही कम्पनी तुम्हारी आंखें ले लेगी। दोनों आंखों के दो अरब रूपये मिल जायेंगे। नवुयुवक ने फिर मना किया। माक्र्स गम्भीर होकर ‘तुम तो कह रहे थे मैं अत्यन्त निर्धन हूँ किन्तु अरबों की सम्पत्ति तो तुम्हारे पास है।’ नवयुवक एक बड़ा महान् बोध लेकर चला गया।
    उक्त उदाहरण शरीर के अंग-प्रत्यंगों के महत्व को प्रकट करता है। इस अंग प्रत्यंग की पुष्टता के लिए इनकी वृत्ति सदैव सन्मार्ग पर रखने के लिए इन अंग स्पर्श के मन्त्रों का विधान है। ईष्वर की कृपा प्राप्त हो, हम सत्पात्र बनें, एतदर्थ ही अंग स्पर्ष करना आवष्यक है।
अंग स्पर्श मन्त्रों का भाव-
१.    ओं वाड़् म आस्येऽस्तु-    हे परमेष्वर! मेरे मुख में वाक् शक्ति प्रषस्त हो।
२.    ओं नसोर्मे प्राणोऽस्तु-        हे परमेष्वर! मेरे नासिका -छिद्रों में प्राण शक्ति हो।
३.    ओम् अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु-    हे परमेष्वर! मेरे नेत्रों में दृष्टि सामथ्र्य बना रहे।
४.    ओं कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु-    हे परमष्ेवर! म्ेरे कानों में श्रवण शक्ति हो।
५.    ओं बाह्नोर्मे बलमस्तु-        हे परमेष्वर! मेरी भुजाओं में बल हो।
६.    ओम् ऊर्वोम ओजोऽस्तु-    हे परमेष्वर! मेरी जंघाओं में ओज-शरीर को धारण                     करने की शक्ति हो।
७.    ओम् अरिष्टानि मेऽगांनि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु- हे परेष्वर! मेरा शरीर और अंग-                                प्रत्यग रोग रहित या दोष रहित                                 हों तथा ये अग-प्रत्यग मेरे शरीर                                 के साथ पुष्ट हों।
अर्थर्ववेद का वचन है-
इयं या............शान्तिरस्तु नः।।
अर्थात् यदि वाणी कठोर हो तो बड़े भयंकर परिणाम सामने आते हैं, परमेष्वर की कृपा से हमारी वाणी ज्ञान से प्रभाव युक्त होकर हमें सुख शान्ति देने वाली हो।
    महाराजा भर्तृहरि ने स्पष्ट लिखा है-

केयूरा न.................नीति शतक १८
केयूर, चन्द्रमा के समान उज्ज्वल हार, स्नान, चन्दन का लेप, पुष्प तथा सिर के बालों आदि की सजावट आदि कोई भी वस्तु कभी भी शोभा नहीं देती है। केवल सुसंस्कृत वाणी ही मनुष्य की शोभा बढ़ाती है। अन्य सारे आभूषण व्यर्थ हैं, केवल वाणी का आभूषण ही श्रेष्ठ आभूषण है।
    द्वितीय मन्त्र नासिका में प्राणों की शक्ति तथा घ्राणशक्ति, सूंघने का सामथ्र्य बना रहे, के लिए हैं। निस्सन्देह प्राण-अपान शक्ति उत्तम न हो, स्वस्थ न हो तो जीवन का चलना भी कठिन हो जाता है। नासिका के छिद्रों के स्वस्थ रहने पर ही घ्राण शक्ति, प्राण शक्ति उत्तम स्वस्थ रहती है। प्राणायाम क्रिया का आधार नासिका ही हैं। इन्द्रियों को दोषों से रहित करने में प्राणायाम (नासिका) का विषेष महत्व है। मनु महाराज का वचन है-
    दह्यन्ते........निग्रहात्।। ६/७१
    जैसे अग्नि में तपाने से सुवर्ण आदि धातुओं के मल नष्ट होकर शुद्ध होते हैं, वैसे ही प्राणयाम के द्वारा समस्त इन्द्रियों के दोष दूर हो जाते हैं। खाद्य पदार्थ सड़ गया हो, बासी हो गया हो इसका भी सम्यक् ज्ञान स्वस्थ घ्राण शाक्ति द्वारा ही सम्भव है। योग दर्षनकार ने तो यहां तक लिखा है कि- योगाड़ानुष्ठानादशुद्विक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः’। २/२८
    अर्थात् प्राणायाम के द्वारा क्रम-क्रम से अशुद्धि का नाश और ज्ञान का प्रकाष होता है।
    इस प्रकार नासिका का स्वस्थ रहना, घ्राणशक्ति का सबल रहना जीवन के लिए आवष्यक है।
    तृतीय मन्त्र में नेत्रों में दृष्टि-देखने की शक्ति बनी रहे, की प्रार्थना है। नेत्रों का महत्त्व नेत्र-हीन व्यक्ति से जान सकते हैं। संसार मे विविध सुन्दर वस्तुयें आनन्ददायी हैं, उन्हें नेत्रों से देखकर ही आनन्द उठाया जा सकता है। यह आनन्द तभी उठाया जा सकता है जब दृष्टि भद्रभाव से युक्त हो-‘‘भद्रं परयेमआक्षभिर्यजत्राः’’ ऋग्वेद १/८९/८ ऋग्वेद का वचन है-
    विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे। इन्द्रस्य युज्यः सखा।। १/२२/१९
    विष्णु के कर्मो को देखो, जिससे नियम निकलते हैं। यह विष्णु ही जीवात्मा का योग्य सखा है, मित्र है। नेत्रों के द्वारा परमात्मा निर्मित सृष्टि के नियमों को देखें, उससे अपने जीवन को नियमित, परोपकारमय या यज्ञीय बनायें। नेत्रवाले देखकर भी अनदेखा न करें इसलिये नेत्रों में उत्तमता से देखने की सामथ्र्य मांगी गयी है।
    चतुर्थ मन्त्र में कानों में सुनने की सामथ्र्य की याचना है। सत्पात्र बनने के लिए इस निरीक्षण की आवष्यकता है-‘‘भ्रदं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवाः’’ ऋग्वेद १/८९/८
    कानों से भद्र श्रेष्ठ बातें सुनें। आत्म निरीक्षण करें कि कहीं हममें निन्दित बातें सुनने का अभ्यास तो नहीं हो गया है। आज वैज्ञानिक स्वीकार करने लगे हैं कि ध्वनि का मन की तरंगों पर प्रभाव पड़ता है-शुभ वचनों का शुभ वचनों का अशुभ। अतः निन्दायुक्त, बातें, दूषित बातें न सुनें, न बोलें। दूसरों की निन्दा सुनने में यदि आनन्द आता है तो हमारी वृत्ति अच्छी नहीं है। उत्तम सुनें, उत्तम ही बोलें।
    पांचवें मन्त्र में बाहुओं में बल की याचना है। बल भुजाओं में हो। परमेष्वर दत्त भुजाओं का बल सज्जनों, दीनों, अनाथों की सहायता में प्रयुक्त हो। संसार में बल तीन प्रकार के होते हैं-ज्ञानबल, धनबल, और शारीरिक बल। इन तीनों बलों का सदुपयोग जो करता है, वही श्रेष्ठ मनुष्य होता है। किसी नीतिकार ने उचित ही लिखा है-
    विद्या विवादाय....................रक्षणाय।।
    दुष्ट की विद्या विवाद के लिए, धन अभिमान के लिए तथा शक्ति दूसरों को पीड़ा देने के लिए होती है, सज्जनों के ये बल इससे विपरीत कार्य के लिए होते हैं-विद्या ज्ञान के प्रसार के लिए, धन दान के लिए तथा शारीरिक बल सज्जनों, दीनों, अनाथों आदि पीड़ितों की रक्षा के लिए होता है। हमें सदैव यह ध्यान रखना है कि हमारी भुजाओं की शक्ति लोक कल्याणकारी कार्यो में लगे।
    षष्ठ मन्त्र में जंघाओं में ओज-शरीर को धारण करने की शक्ति की कामना है। शरीर को गतिशील रखना ही शरीर को धारण करने का आधार है। गतिशीलता ही जीवन है। यह गति जब स्वार्थ की सीमित सीमा में रहती है, तब उससे किसी पुण्य कार्य का सम्पादन नहीं होता है। तात्पर्य यह है कि अपने बच्चों को पालने की वृत्ति तो पशु-पक्षियों में भी प्राप्त होती है। अपने बच्चों को योग्य बनाना, उनके लिए जमीन जायदाद, वैभव आदि तो बनाना माता-पिता का नैतिक कत्र्तव्य तो हो सकता है, पर वह पुण्य का खाता नहीं होता। पुण्य का खाता तो तब आरम्भ होता है जब अपनों से ऊपर उठकर परायों का ध्यान करते हैं। उनकी गतिशीलता की सार्थकता दीन-दुःखी, अनाथ, अबला आदि के सहयोग में पूर्ण होती है। यह सहयोग ही जंघाओं का ओज है। हमारे महान् आत्माओं की यह घोषणा कितनी उत्तम है-
न त्वहं................प्राणिनामत्र्तिनाषनम्।।
न राज्य, न स्वर्ग (इहलोक सुख), न मोक्ष की ही कामना है। उनकी कामना तो केवल एक ही है, वह है- संसार के समस्त प्राणियों के दुःखों का नाष। यह कामना ऐसी गतिशीलता ही ओज है। हमें यह ओज मिले, यह जीवन मिले, शरीर का सामथ्र्य मिले। इसकी सार्थकता ही इस मन्त्र का भाव है।
    सप्तम मन्त्र में शरीर के रोग रहित होने की तथा शरीर के समस्त अवयवों के पुष्ट होने की कामना है।
    ‘‘ शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’’ कालिदास
    स्वस्थ शरीर से ही धर्म की साधना सम्पन्न हो सकती है। शरीर ही स्वस्थ न हो, पुष्ट न हो तो जीवन की साधारण आवष्यकताएँ भी पूर्ण करने में व्यक्ति असमर्थ हो जाता है। उसे सामान्य जीवन भी अच्छा नहीं लगता हैं, तब धर्म अधर्म का चिन्तन कैसे सम्भव हो सकता है। अतएव इस मन्त्र में सम्पूर्ण शरीर के स्वस्थ बने रहने की प्रार्थना की गयी है।
    इसके साथ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि स्वस्थ्य शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। एक सर्वविदित वचन है-
यन्मनसा ध्यायति............................................तदभिसम्पद्यते।
    जो मन से ध्यान करेंगे, वह वाणी में आयेगा, जो वाणी में होगा तदनुसार कर्म होंगे, कर्मानुसार ही कार्य की सफलता होगी। शुभ फल के लिए शुभ कर्म की आवष्यकता है, शुभ कर्म शुभ विचारों से सम्भव है, शुभ विचार शुभ मन से सम्भव है और शुभ मन की प्राप्ति स्वस्थ शरीर एवं ईष्वर की भक्ति से होती है। इन्द्रियों के संयमित न होने से व्यक्ति अनेक दोषों को प्राप्त होता है। मनु का वचन है-
इन्द्रियाणां..........नियच्छति।। २/९३
    इन इन्द्रियों का संचालक मन है। एक मात्र मन वह सोपान है जिससे व्यक्ति ऊँचेप र चढ़ता है और इसके शुद्ध न होने से व्यक्ति अनेक मार्गो से पतन के गत्र्त में गिर जाता है-
    ‘‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोंः’’
    मन ही तो मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का कारण होता है। प्रसिद्ध वचन है-
    आपदां कथितः ................तेन गम्यताम्।।
        इन्द्रियों को संयमित न करना आपत्ति का मार्ग है, उनको जीत लेना सम्पत्ति का मार्ग है, जो मार्ग अच्छा लगे उसी पर चलना चाहिए। इन्द्रियों का संयम मन पर है तथा मन शरीर के स्वस्थ होने पर स्वस्थ रहता हैं। मन का शुभत्व ईष्वर की कृपा से होता है, ईष्वर की कृपा सुपात्र को प्राप्त होती है। सुपात्रता समस्त शरीर के स्वस्थ एवं शुभ होने पर प्राप्त होती है। इसीलिये अंग स्पर्श का विधान मन्त्र सहित किया गया है।
    जल से अंग स्पर्श क्यों?
    अंग स्पर्श में जल का प्रयोग विशेष अभिप्राय से किया जाता है। जल की शीतलता का स्पर्ष सम्पूर्ण अवयवों को शीतल शान्ति रहने की प्रेरणा देता है। यदि मन्त्र के साथ-साथ जल की स्पर्शानुभूमि को मन से संयुक्त करके दृढ़ संकल्प हो तो इन्द्रियों पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। बिना जल के यह अनुभूति पवित्र न हो सकेगी। अतः जल का प्रयोग इस विधि में आवष्यक समझा गया है। वैसे भी मनु के विचारानुसार भी-
    ‘‘अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति’’ ५/१0९
    जल से शरीर शुद्ध होता है। जल शीतल, गतिशील एवं निर्मल होता है। हमारे शरीर की इन्द्रियां जल के समान शीतल-शान्त, गतिशील एवं निर्मल हों, इस संकल्प को बल प्राप्त होता है।
    आचमन एवं अंग स्पर्श का सम्पूर्ण प्रभाव मन के संयोजन से सफल होता है। बिना मन से किया गया सम्पूर्ण कार्य लाभकारी नहीं होता है।
द्वितीय सोपान
ईष्वर स्तुतिप्रार्थनोपासना मन्त्र
   
    आचमन एवं अंगस्पर्श के मन्त्रों के पश्चात् दैनिक यज्ञ में ईष्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना के मन्त्रों का पाठ करना चाहिये। महर्षि ने सर्वत्र शुभ कर्मो के आरम्भ में ईष्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना करने का निर्देष किया है। ये मन्त्र, अपनी अल्पता का बोध देते हैं, ईष्वर के सामथ्र्य का बोध देते हैं, सृष्टि के सभी विशाल तत्व उसी की सत्ता का परिचय देते हैं, ऐसा ईष्वर हमारा बन्धु है, वही हमारा कल्याण कत्र्ता है, इसी भाव को धारण कर सुपथ पर चलते हुए सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति हो सकती है, आदि भावों को पुष्ट करने वाले ये मन्त्र हैं। अतः हमारे विचार में पूर्ण श्रद्धा के साथ तन्मय होकर इन मन्त्रों का पाठ मधुर स्वर से करना चाहिए।
    इन मन्त्रों का इस दृष्टि से अधिक महत्व है कि इन्हें महर्षि दयानन्द ने आर्ष बुद्धि से संकलित किया है। ऋग्वेद के मन्त्रों की संख्या 10552 है, यजुर्वेद की संख्या 1975 है, सामवेद की मन्त्र संख्या 1875 है तथा अथर्ववेद के मन्त्रों की संख्या 5977 है। इस प्रकार चारों वेदों में कुल मन्त्र हुये 20379। इनमें महर्षि की आर्ष बुद्धि ने इन आठ मन्त्रों का चयन विषेष अभिप्राय से ही किया है। अतः हमारी सम्मति में आचमन अंगस्पर्ष मन्त्रों के बाद बिना किसी विवाद के इन मन्त्रों का पाठ अर्थ चिन्तन के साथ करना चाहिए। इन मन्त्रों में निहित भावों को जानने से पूर्व स्तुति, प्रार्थना, उपासना का तात्पर्य एवं उसके फल को जान लेना आवष्यक है।
    आर्योद्देष्यरत्नमाला के अनुसार महर्षि के शब्दों में स्तुति ‘‘जो ईष्वर वा किसी दूसरे पदार्थ के गुण, ज्ञान, कथन, श्रवण और सत्य भाषण करना है, वह स्तुति कहती है’’।
    प्रार्थना ‘‘अपने पूर्ण पुरूषार्थ के उपरान्त उत्तम कर्मो की सिद्धि के लिये परमेष्वर वा किसी सामथ्र्य वाले मनुष्य के सहाय लेने को प्रार्थना कहते है’’।
    उपासना-‘‘जिससे ईष्वर ही के आनन्द स्वरूप में अपने आत्मा को मग्न करना होता है, उसको उपासना कहते हैं’’।
    मनुष्य का स्वभाव होता है कि किसी में महान् या उत्तम गुण हो तो वह उसकी प्रषंसा करता ही है। उपकारी के गुणों का कथन करते-करते व्यक्ति आनन्द में डूब जाता है। जो उपकारी के उपकार को स्वीकार नहीं करता है, वह मानव समाज में आदर का पात्र नहीं होता है। जो बालक अपने उत्तम माता-पिता के गुणों को, उपकार को नहीं मानता है, वह समाजमें हेय दृष्टि से देख जाता है।
    सच पूछा जाय तो ईष्वर के अनन्त उपकार है, ये सुन्दर नेत्र दिये हैं, विविध दृष्य देखते हैं, आनन्दित होते हैं, नासिका से विविध गन्धों का आनन्द लेते हैं, रसना विविध रसास्वादन में रस लेती है और सभी ईष्वर की कृपा है, जिसने सभी पदार्थो की रचना की है, ऐसे उस महान् ईष्वर के गुणों का गान करना मानव का नैतिक कत्र्तव्य है।
    लोक व्यवहार में हम सहायता किस व्यक्ति की करते हैं। आलसी, पुरूषार्थ-हीन व्यक्ति की सहायता कोई करता नहीं है, न करना चाहता है। आप कल्पना करें कि एक व्यक्ति जेब से हाथ डाले खड़ा है और वह आपसे कहता है भाई जी जरा अटैची उठाना, तो आप यहीं कहेंगे कि खुद तो जेब में हाथ डाले खड़ा है और हमसे कहता है अटैची उठा देा। दूसरी ओर एक सामान्य व्यक्ति एक बोझ उठाने का बार-बार प्रयत्न करता है, उठा नहीं पाता है। बस आपकी ओर जरा देखता ही है कि आप शीघ्र उसकी सहायता के लिए तत्पर होते हैं। ठीक ऐसी ही सहायता पूर्ण पुरूषार्थ के उपरान्त याचना परमेष्वर की ओर से हमें सुलभ होती है। परमेष्वर तो दयालु है, वह दया का समुद्र है किन्तु हम तो दया की कटोरी भी नहीं हैं तो दयालु ईष्वर हम पर दया कैसे करेंगे, हम दया के पात्र बनें इसके लिए प्रार्थना-पुरूषार्थ करना आवष्यक है।
उपासना
    हमने यहाँ स्थानीय एक संस्कार में ध्यान के महत्व पर कुछ शब्द कहे-प्रतिदिन समय निकालकर 10,15,20,30 मिनट उपासना करने की ध्यान में बैठने की प्रेरणा दी। दो तीन मास बाद एक माता जी बोलीं-मैंने आपके बताये निर्देषानुसार ध्यान में बैठने का कार्य आरम्भ किया। एक सप्ताह बैठने पर भी मन स्थिर नहीं हुआ, इधर-उधर दौड़ता ही रहता है। ऐसी स्थिति में क्या करें? यह दुविधा प्रायः सभी को कचोटती रहती है, फिर वह ध्यान में बैठने का विचार ही छोड़ देता है। आईये, इस समस्या के समाधान पर विचार करें।
    मैंने माताजी से कहा कि आपके घर में आपका कोई पुत्र है। माताजी ने कहा -‘जी हां दो पुत्र है, एक बैंक में कार्यरत है, दूसरा एम.एस.सी. कर रहा है। मैंने पुनः उनसे कहा-‘आपने कितने धैर्य से, निष्ठा से, लगन से पुत्र को योग्य बनाने में अपने जीवन को लगा दिया। २२, २३ वर्ष का आपका प्रयास आपकी निष्ठा सफल हुई और निष्ठा की उपलब्धि पुत्र का योग्य होना, अपने पैरों पर खड़ा कर देना, प्राप्त हुई। जीवन के इतने वर्ष सांसारिक योग्यता में, उपलब्धि में व्यतीत हुए। फिर ईष्वर की उपलब्धि में थोड़े समय के बाद आप निराष क्यों हैं? आपने यह कार्य छोड़ क्यों दिया। धैर्य से करती रहती।
    स्मरण रखना चाहिये कि मन चंचल ही है, वह तो दौड़ेगा, उसे अव्याहत गति से दौड़ने दीजिये। प्रथम तो कुछ दिन बाहरी बातों में दौड़ेगा, कुछ दिनों दौड़ने दें। फिर धीरे-धीरे अभ्यास करके मन्त्रार्थ में दौड़ाना चाहिए। ईष्वर के जिस गुण की चर्चा हो उस गुण के विषाल स्वरूप के चिन्तन मेे मन को दौड़ाइये, निराषा न हों, धीरे-धीरे अभ्यास से निराकार परमेष्वर की व्यापकता में, उसकी विषालता में दौड़ेगा। सन्ध्या में मनसा-परिक्रमा मन्त्रों का विधान भी इसी दृष्टि से है। मैंने माताजी की वृत्ति देखकर उन्हें यह भी प्रेरणा दी कि भोजन के उपरान्त आधा या एक घण्टे का मौन रखिये। इस अवसर पर एकान्त में बैठें। न कुछ सुनने में ध्यान हो, न बोलने का विचार हो, बस शान्त स्थित रहने का अभ्यास करें। कहने की आवष्यकता नहीं कि इस उपाय से उन्हें आनन्द आया। गीता के द्वितीय अध्याय का 44 वाँ श्लोक इस तथ्य को इन शब्दों में वर्णित करता है-
    भोगैष्वर्यप्रसक्तानां...............................विधीयते।। २/४४
अर्थात्-भोग ऐष्वर्य की संलग्नता में जिनका चित्त व्यस्त रहता है, ऐसे व्यवसायात्मक चित्तयुक्त बुद्धि समाधि में, ध्यान में नहीं रमती है, नहीं लगती है। अतः उपासना से पूर्व अन्तःकरण की पवित्रता, चित्त की शुद्धि आवष्यक है। इसलिए प्रथम ईष्वर की स्तुति-गुणों का गान करने का विधान है, तदनन्तर गुणों के अनुसार आचरण के लिए प्रार्थना-पुरूषार्थ का करना आवष्यक है। यही उपासना का क्रम है। उपासना की सफलता के लिए अभ्यास की आवष्यकता है।
    ईष्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना का फल क्या है? इस प्रश्न का सुन्दर समाधान महर्षि ने सत्यार्थ प्रकाष के सप्तम समुल्लास में किया है-
    ‘‘स्तुति से ईष्वर में प्रीति, उसके गुण, कर्म, स्वभाव से अपने गुण, कर्म, स्वभाव से अपने गुण, कर्म, स्वभाग, का सुधारना, प्रार्थना से निरभिमानता, उत्साह और सहाय का मिलना, उपासना से परब्रह्य से मेल और उसका साक्षात्मकार होना।’’
    उपर्युक्त वचन से यह तात्पर्य निकलता है कि अपने गुण, कर्म और स्वभाव यदि नहीं सुधरते हैं तो वह स्तुति व्यर्थ है, उस स्तुति से लाभ है जिसमें अपने गुणों का विकास हो, अपने कर्म महान् हों, अपना स्वभाव उत्तम बने। अभिमान जीवन का महान् शुत्र है।
     निरभिमानता की उपलब्धि प्रार्थना की महान् उपलब्धि है। महान पुरूर्षो के जीवन में तो ईष्वर की स्तुति प्रार्थना से महान् गुणों का विकास होता है-
निदन्तु ..............पदं न धीराः।। भर्तृहरि नीति ७९
    नीति में चतुर लोग निंदा करें या प्रषंसा करें, लक्ष्मी आवे या अपनी इच्छानुसार चली जावें, आज ही मृत्यु हो अथवा वर्षो के बाद हो। निष्चय से धैर्य शाली लोग न्याय के मार्ग से कभी विचलित नहीं होते हैं। यह गुण ईष्वर की उपासना से आता है। महर्षि सत्यार्थप्रकाष के सप्तम समुल्लास में लिखते हैं-
    ‘‘इसका फल-जैसे शीत से आतुर पुरूष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत्त हो जाता है, वैसे परमेष्वर के समीप प्राप्त होने से सब दोष दुःख छूटकर परमेष्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के सदृष जीवात्मा के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हो जाते हैं। इसलिये परमेष्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना अवष्य करनी चाहिए। इससे इसका फल पृथक् होगा, परन्तु आत्मा का बल इतना बढ़ेगा, वह पर्वत के समान दुःख प्राप्त होने पर भी न घबरायेगा और सबको सहन कर सकेगा। क्या यह छोटी बात है? और जो परमेष्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है।’’ सत्यार्थ प्रकाष सप्तम समुल्लास।
    कृतघ्न का कोई प्रायष्चित्त नहीं है, उद्धार का कोई उपाय ही नहीं है। अतः इस दोष से बचना आवष्यक है। महर्षि निर्देशित इन मन्त्रों का पाठ सम्पूर्ण शुभ कर्मो में तथा दैनिक यज्ञ में अवष्य करना चाहिए।
    इन मन्त्रों का महत्व अनेक दृष्टियों से समझा जा सकता है। यज्ञ से पूर्व याजक अपने उद्देष्य को -‘यद् भद्रं तन्न आसुवं’  जो कल्याणकारी हो वह हमें प्राप्त हो, वह प्रार्थना सविता देव से है। सविता देव का सामथ्र्य, उसकी शक्ति द्वितीय मन्त्र में वर्णित है तो तृतीय मन्त्र यस्य विष्व उपासते’ कहकर हमें यह कार्य करने की प्रेरणा देता है क्योंकि वह तो ‘‘महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव’’ अपनी महानता से जगत् का राजा है, इतना ही नहीं-उग्रा द्यौ. पृथिवी च दृढ़ा’’ उग्र पृथिवी और द्यौ को भी धारण करने वाला है- उसके समान कोई प्रजापति नहीं है-वही हमारा बन्धु है, पिता है, अमृत की प्राप्ति भी की उपासना से प्राप्त हो सकती है-भद्रता की याचना ऐसे सामथ्र्यशाली परमेष्वर से उचित है, इसकी प्राप्ति कैसे हो सकेगी? इसका उत्तर भी-‘‘अग्ने नय सुपथा’’ सुपथ पर चलने से ही यह सब सुलभ हो सकेगा।
    एक अन्य दृष्टि से विचार करें तो -व्यक्ति में १. उत्पादन का अहम् २. सामथ्र्य का अहम् ३. दान का अहम् ४. शासन का अहम् ५. धारणा करने का अहम् ६. प्रजापालन का अहम् ७. बन्धुत्व का अहम् ८. पथ प्रदर्षन का अहम्- इन आठ प्रकार के अहम् के विनाश के लिए आठ मन्त्रों का उच्चारण आवष्यक है। इन मन्त्रों के अर्थ इन सम्पूर्ण ‘अहम्’ का विनाष करते हैं। ‘‘अहम्’’ का विनाष जीवन की महान उपलब्धि है।
ईष्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना का प्रथम मन्त्र
    महर्षि दयानन्द ने ‘संस्कार विधि’ के सामान्य प्रकरण के प्रारम्भ में ही लिखा है-
    ‘‘सब संस्कारों के आदि में निम्नलिखित मन्त्रों का पाठ और अर्थ द्वारा एक विद्वान् वा बुद्धिमान पुरूष ईष्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना स्थिर चित्त होकर परमात्मा में ध्यान लगा के करे और सब लोग उसमें ध्यान लगाकर सुनें अज्ञैर विचारें।’’
    इस तथ्य को ध्यान में रखकर महर्षि ने स्वयं इन आठ मन्त्रों के अर्थ लिखे हैं। अतः इन मन्त्रों के अर्थ का रसास्वादन महर्षि कृत अर्थ पर विचार करके प्राप्त करना चाहिये। ईष्वरस्तुति-प्रार्थनोपासना का प्रथम मन्त्र इस प्रकार है-
    ओ३म् विष्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।
    यद् भद्रं तन्न आसुव।। यजु. ३0/३
    महर्षि कृत अर्थ इस प्रकार है-
    हे सवितः-सकल जगत् के उत्पत्ति कत्र्ता, समग्र ऐष्वर्ययुक्त, देव -शुद्ध स्वरूप, सब सुखों के दाता परमेष्वर! आप कृपा करके, नः-हमारे, विष्वानि-सम्पूर्ण, दुरितानि -दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को, परासुव-दूर कर दीजिये। यत्-जो, भद्रम्-कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, तत् -वह सब, नः हमको, आसुव-प्राप्त कीजिये।
    इस मन्त्र में दुरित दूर हों, भद्र प्राप्ति हो, यह तो प्रार्थना है शेष स्तुति है। इस मन्त्र में दुरितानि दूर पहले करने हैं, तब भद्र प्राप्ति होगी, यह क्रम हे। लोक व्यवहार में भी यह देखा जाता है। ‘पात्र को प्रथम मैल से रहित करते हैं, कमरे को पहले साफ करते हैं, तब अच्छी वस्तु पात्र में डालकर उसको उपयोग में ले सकते हैं। स्वच्छ कमरें में ही आनन्द के साथ निवास सम्भव होता है। अतः मन्त्र में भी प्रथम दुरित को दूर करने की प्रार्थना की गयी है, तब भद्र प्राप्ति की याचना है। वेदमन्त्र का यह क्रम व्यवहार से भी सिद्ध है।
    अब विचार यह करें कि प्रार्थना किस से की जाती है। लोकव्यवहार में देखें तो प्रार्थना सदैव सामथ्र्यषाली से की जाती है। दुरित दूर करने के लिए ‘सविता’ से कहा गया है।
    विष्वानि दुरितानि- महर्षि ने ‘विष्वानि दुरितानि’ का अर्थ किया है- सम्पूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःख। दुर्गुणी व्यक्ति ही दुव्र्यसनों का शिकार होता है। अतः चंचल मन को वष में करना चाहिये।
    नेह..........यथोष्णता।
    इस संसार में चञ्चलता से रहित मन कहीं नहीं देखा जाता है, चञ्चलता तो मन का धर्म ऐसे ही है जैसे अग्नि का धर्म उष्णता है। गीता में भी लिखा है-
    असंशयं...............गृह्मते।। ६/३५
    हे-महाबाहो! मन बड़ा चंचल है, कठिनाई से वश में आता है, इसमे कोई संषय नहीं किन्तु निरन्तर अभ्यास से तथा वैराग्य से यह वष में होता है।
    इस तथ्य से मन वष में अर्थात् स्थिर होता है, परन्तु वष का अर्थ स्थिर करना नहीं अपितु उसकी गति का मार्ग बदलना है, कुमार्ग पर है तो सुमार्ग पर चलाना है। दुरित की दृष्टि से मन या तो दुर्गुणों की ओर अग्रसर होगा, या फिर दुव्र्यसनों का षिकार होगा या फिर दुःख समुद्र में गोते खायेगा। मन की दुरित वृत्तियों को इन तीन रूपों में निरूद्ध कर ही महर्षि ने समस्त बुराईयों के आधारभूत इन तीन रूपों का वर्णन किया है। अब प्रष्न है यह दूरित भाव कैसे दूर होंगे क्योंकि बिना पुरूषार्थ के प्रार्थना निष्फल रहेगी।
दुरितों को दूर करने के उपाय
    इन दुरितों को समस्त बुराईयों को दूर करने के लिए हमें निम्न उपाय अपनाने चाहिए। दुर्गुणों को दूर करने के लिए स्वाध्याय को अपनाना चाहिए। प्रतिदिन स्वाध्याय करने से आत्म-षुद्धि होती है। आत्म संस्कार का सोपान स्वाध्याय है। इसीलिए विविध विद्याओं में पारगंत छात्र को आचार्य दीक्षान्त संस्कार के अवसर पर -स्वाध्यायान्मा प्रमदः’’  स्वाध्याय में कभी आलस्य न करो, का उपदेष देते थे। मनु महाराज ने भी -‘‘स्वाध्याये नास्त्यनध्यायः’’। अर्थात् स्वाध्याय में कभी अवकाष नहीं ग्रहण करना चाहिए, का उपदेष देकर स्वाध्याय का महत्व दर्षाया है। अतः दुर्गुण को दूर करने के लिए स्वाध्याय का सद्गुण ग्रहण करना चाहिए।
    दुरितानि-दुव्र्यसन को दूर करने का साधन है-सत्संग। सत्संग का व्यसन जिसे प्राप्त होता है उसके दुव्र्यसन अनायास ही समाप्त हो जाते हैं। महाराज भर्तृहरि ने ठीक ही लिखा है-
    जाड्यं धियो...................करोति पुंसाम्।। नीति २२
    सत्संगति भक्त के सभी दुव्र्यसनों को समाप्त कर देती है। बुद्धि की मूर्खता को दूर करती है, वाणी में सत्य का संचार करती है, मान की उन्नति का मार्ग दिखाती है, चित्त को प्रसन्न करती है दिषाओं में यष का विस्तार करती है। निष्चय से सत्संगति कहो क्या नहीं करती है। इस प्रकार दुव्र्यसनों को दूर करने के लिए सत्संगति करनी चाहिए। सत्संग के पुरूषार्थ से ही दुव्र्यसन दूर होने की प्रार्थना सफल होती है।
    दुरितानि- दुःखों को दूर करने का सर्वोत्तम साधन समर्पण का भाव है। समर्पण वह सुधा है जिसके पान से भयंकर दुःख भी दुःख नहीं प्रतीत होते हैं। जब देष भक्तों ने अपने आप को देष की स्वतन्त्रता के लिए समर्पित कर दिया, तब कारागार की भीषण यातनाएँ भी उन्हें दुःखदायी नहीं मालूम पड़ी। यहां तक कि फांसी का फन्दा भी उन्हें जय माला ही लगी।
    एक व्यक्ति अपने आपको जब परिवार के लिए समर्पित करता है तब नानाविध कष्टों को सहता भी है, साथ ही अपने मालिकों के कटुवचन, अपमान, तिरस्कार आदि सभी सहन कर लेता है। समर्पित जीवन में प्राप्त दुःख, दुःख नहीं होते हैं।
    यदि भक्त हृदय अपने आपको परमात्मा को समर्पित कर दे तो उसे लोगों के कटु वचन भी व्यथित नहीं करते हैं। उस पर बरसाये गये पत्थर भी उसे पुष्प लगते हैं। विष को अमृत समझते हैं। महर्षि ने तो विष दाता को धन देकर भागने का ही परामर्ष दिया। समर्पित हृदय करूणा से पूर्ण होता है। समर्पित भाव शारीरिक व्यथा को, दुःख को, दुःख नहीं समझता है।
    इस प्रकार विष्वानि दुरितानि परासुव-हे भगवन् सम्पूर्ण दुर्गुण, दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःख दूर करने की प्रार्थना -स्वाध्याय, सत्संग एवं समर्पण के पुरूषार्थ से सफल हो सकती है। पुरूषार्थ हीन प्रार्थना सफल नहीं होती है। एक भी दुर्गुण, एक भी दुव्र्यसन तथा एक भी दुःख भद्र प्राप्ति में बाधक होता है। अतः विष्वानि-सम्पूर्ण दुरितानि-दुर्गुणादि दूर करने की प्रार्थना की गयी है, जो सर्वथा उचित है।
    सवितः शब्द का महत्व
    सत्यार्थ प्रकाष के प्रथम समुल्लास में महर्षि ने षुन्ञ् अभिषवे तथा षूड् प्राणिगर्भविमोचने दो धातुओं से सविता शब्द सिद्ध किया है। उनके अनुसार-‘अभिषवः प्राणिगर्भविमोचनं चोत्पादनम्, यष्चराचरं जगत् सुनोति सूते वोत्पादयति स सविता परमेष्वरः।
    जो सब जगत् की उत्पत्ति करता है, अतः परमेष्वर का नाम सविता है। संस्कार-विधि में इस मन्त्र के अर्थ में महर्षि ने सविता- सकल जगत् के उत्पत्ति कत्र्ता, समग्र ऐष्वर्य युक्त, अर्थ किया है। सविता शब्द बोध दे रहा है कि दुरितानि को दूर करने के लिए जिससे प्रार्थना की जा रही है, वह ईष्वर सामथ्र्यशाली है। वह अपने इस सामथ्र्य से समस्त दुरितों को दूर करे। सामथ्र्य हीन से की गयी प्रार्थना निष्फल हो सकती है, किन्तु इस ‘सविता’ से की गयी प्रार्थना अवष्य सफला होगी। क्योंकि सकल जगत् का उत्पत्तिकत्र्ता होने से ही वह हमारा पिता है, पालक है। वह हमसे स्नेह करता है। ध्यान यह भी रखना है कि वह दरिद्र पिता नहीं है अपितु ऐष्वर्यषाली है। वह ऐष्वर्य युक्त है, सामथ्र्य युक्त है, अतः हमारी प्रार्थना को पूर्ण करने में सक्षम है। हमारी प्रार्थना अवष्य सफल होगी, यह आषा ही हमें पुरूषार्थ करने की प्रबल प्रेरणा देती है। निष्चय से-‘‘आषा सर्वोतमं ज्योतिः’’ आषा ही सर्वोत्तम प्रकाष होता है।
    ‘यद् भद्रं तन्न आसुव’ इसका अर्थ महर्षि ने किया है-
    जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ है, वह सब हमको प्राप्त कीजिये। भद्र शब्द-‘भदि कल्याणे सुखे च’  के अनुसार भदि धातु से औणदिक रक् प्रत्यय के योग से बनता है। महर्षि ने जो यहां भद्र शब्द का -गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ अर्थ किया है वह उनकी ऋषि बुद्धि या आर्ष बुद्धि का वैशिष्टच है। दुरितानि का अर्थ किया है-दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःख। भद्र का अर्थ है- गुण, कर्म, स्वभाव (और पदार्थ)। दुरित शब्द दुर, उपसर्ग पूर्वक् इण् गतौ धातु से बनता है। तथा वैयाकरणों के अनुसार -‘गतेस्त्रयोऽर्थाः ज्ञानं गमनं प्राप्तिष्चेति’।
    गति के तीन अर्थ हैं-ज्ञान, गमन और प्राप्ति। दुर्गुण दूर होंगे सद् ज्ञान से, ज्ञान का विकास होगा स्वाध्याय से।
    दुव्र्यसन दूर होंगे सद् गमन, सद् व्यवहार या सत्कर्म से, सत्कर्म में प्रवृत्ति होगी सत्संग से।
    दुःख दुर होंगे प्राप्ति से, प्रभु प्राप्ति से, प्रभु प्राप्ति होगी, भक्ति से समर्पण भाव से। यह समर्पण का भाव हमारे स्वभाव का अंग होना चाहिए। अतः भद्र का अर्थ महर्षि ने गुण, कर्म, स्वभाव प्रमुखता से किया है।
    ‘भद्र’ शब्द का अर्थ पदार्थ भी किया है। बिना पदार्थ के, भौतिक वस्तुओं के अभाव में सामान्य जीवन भी नहीं चल सकता है।
    भूखा व्याकरण के सूत्रों से पेट नहीं भरता है और प्यास व्यक्ति काव्य रस से अपनी प्यास नहीं बुझाता है। कणाद मुनि ने धर्म की परिभाषा की है- ‘‘यतोऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः’’  इहलोक उन्नति तथा परलोक उन्नति या मोक्ष की प्राप्ति जिन कर्मो से होती है वे कर्म, धर्म हैं। कालिदास का वचन है-‘‘षरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’’। स्वस्थ शरीर ही धर्म की साधना में सक्षम होता है शरीर स्वस्थ रहता है भौतिक आवयष्यक साधनों की पूर्ति से, भौतिक आवष्यक साधनों की पूर्ति से, भौतिक वस्तुओं या पदार्थो से। भूखा व्यक्ति आत्म -साधना में कैसे प्रवृत्त हो सकता है? यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का वचन इस तथ्य को इस आलंकारिक शैली में व्यक्त करता है-
विद्यां चाविद्यां..............विद्ययाऽमृतमष्नुते।। यजु. ४0.१४
इहलोक से तरने के दो साधन या मार्ग हैं-विद्या अविद्या दोनों को ही जानना है, प्राप्त करना है। अविद्या से-भौतिक साधनों से मृत्यु को, सांसारिक दुःख को दूर करना है तथा विद्या से, ज्ञान से, आत्म बोध से अमृत को मोक्ष को, प्राप्त करना है।
    इस आधार पर ही महर्षि ने ‘भद्र’ शब्द के ‘भदि कल्याणे सुखे च’ के अनुसार गुण कर्म स्वभाव और पदार्थ अर्थ किये हैं। भौतिक पदार्थो के बिना आत्म उन्नति सम्भव नहीं है। निष्चय से महर्षि की आर्ष बुद्धि का ही यह वैषिष्टच है जो उन्होंने त्याग-भोग, प्रवृत्ति-निवृत्ति, श्रेय-प्रेय के वैदिक सिद्धान्त को ध्यान में रखकर ‘भद्र’ शब्द का समीचन या सार्थक अर्थ किया है।
    ‘देव’ शब्द का महत्व
    निरूक्त का वचन है-‘देवो दानाद्वा, द्योतनाद्वा0’ इत्यादि सुखों का दाता, ज्ञान का प्रकाषक व प्रकाष स्वरूप होने से परमात्मा का नाम देव है। महर्षि ने देव शब्द का अर्थ किया है- ‘षुद्ध स्वरूप, सब सुखों का दाता परमेष्वर’। लोक व्यवहार में जो व्यक्ति निर्मल अन्तःकरण वाला है, ज्ञानानुसार आचरण वाला है, वही शुद्ध पवित्र कहलाता है। परमेष्वर शुद्ध स्वरूप इस अर्थ में भी है कि उसके सब कर्म लोक कल्याणा कारक है, समानता के साथ बिना भेदभाव के-
    ‘‘याथातथ्योऽर्थान् व्यदधाच्दाष्वतीभ्यः समाभ्यः’’ यजु ४0/८
       अर्थात् नित्य प्रजाओं के लिए ठीक-ठीक कत्र्तव्य पदार्थो का विधान करता है। इसी अर्थ में तो वह ईष्वर बिना किसी पक्षपात के सबको शुद्धस्वरूपता के साथ सुविधायें प्रदान करता है। वह तो ‘‘षुद्धम् अपापविद्धम्’’ यजु. ४0/८
    सब इन्द्रियों में से यदि एक इन्द्रिय भी पथ भ्रष्ट हो जाये तो उससे ज्ञान सम्पन्न की भी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है या ऐसे नष्ट हो जाती है जैसे फूटे पात्र में से पानी बूँद-बूँद करके टपक जाता है और पात्र रिक्त हो जाता है। अतः दुरितानि का विषेषण ‘विष्वानि’ साभिप्राय रखा गया है अर्थात्  ‘सम्पूर्ण बुराईयाँ’। एक भी बुराई शेष न रहे। एक भी दुर्गुण व्यक्ति को पतन की ओर ले जाने में समर्थ है। इन दुर्गुणों को सावधानी से दूर करना है। सम्पूर्ण दुर्गुणों के समाप्त होने पर ही ‘भद्र’ की प्राप्ति सुलभ है। दुर्गुणों को दूर कर सत्पात्रता प्राप्त करनी है। अतः मन्त्र ने ‘विष्वानि दुरितानि’  सम्पूर्ण- बुराईयों को दूर करने की प्रार्थना की गयी है।
    मन्त्र में ‘यद् भद्रं’ कहा गया है। यहां ‘यद्’ शब्द परमात्मा के प्रति पूर्ण आस्था भाव को प्रकट करता है। जीव अल्पज्ञ हैं, अत$ उसे क्या पता है, उसके लिए क्या भ्रद्र है? कोई धन के माध्यम से ‘भद्र’ की प्राप्ति करता है, कोई निर्धनता में ही ‘भद्र’ के मार्ग पर अग्रसर होता है, कोई नानाविध कष्टों को प्राप्त कर ‘भद्र’ मार्ग पर अग्रसर होता है तो कोई विरक्त भाव को प्राप्त होकर ‘भद्र’ प्राप्त करता है। हम अल्पज्ञ है। हमें बोध नहीं है कि हमें ‘भद्र’ क्या प्राप्त हो। जन्म-जन्मान्तर के कर्मजाल में ग्रथित मानव अपनी अल्पज्ञता के कारण उसे जान भी कैसे सकता है? अतः ‘समर्पण’ भाव के साथ उस परमात्मा से प्रार्थना है-‘यद् भद्रं तन्न आसुव’  जो ‘भद्र’ हो वह हमें प्राप्त कराइये। हम तो आपको समर्पित है। समर्पण एवं प्राप्ति का सुन्दर योग ही इस मन्त्र का वैषिष्टच है।
    ईष्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना के ये आठों मन्त्र ‘अहम्’ भाव को दूर करने वाले भी है। जो यह कहे कि मैं तुम्हारा भद्र करने वाला हूं, यह उसका मिथ्याभिमान ही है। क्योंकि किसका कब कैसे ‘भद्र’ सम्भव है यह ‘अल्पज्ञ’ के ज्ञान से परे है। अतः हम ‘भद्र’ करने वाले हैं आदि मिथ्या ‘अहम्’ भाव से बचाने वाला यह मन्त्र है।
द्वितीय मन्त्र
    ईष्वरस्तुति प्रार्थनोपासना का द्वितीय मन्त्र सविता देव के सामथ्र्य को प्रकट करता है। ‘दुरित’ दूर करने की ‘भद्र’ प्राप्ति की प्रार्थना प्रथम मन्त्र में की गयी है। यह प्रार्थना सफल होगी या नहीं याचक यह शंका न करे, इसके निवारणार्थ महर्षि ने इस मन्त्र को क्रम में दूसरे स्थान पर रखा है। इस द्वितीय मन्त्र में उस ईष्वर के सामथ्र्य का उत्तम वर्णन किया गया है। द्वितीय मन्त्र इस प्रकार है-
    ओं हिरण्यगर्भः............................विधेम।। यजु. १३/४
    जो हिरण्यगर्भः- स्वप्रकाषस्वरूप, और जिसने प्रकाष  करने हारे सूर्यचन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं, जो भूतस्य-उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का जातः प्रसिद्ध पति-स्वामी एकः एक ही चेतनस्वरूप आसीत् था, जो अग्रे-सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्ण समवर्तत- वर्तमान था, सः- सो (वह) इनाम् - इस पृथिवीम्- भूमि उत -और द्याम्- सूर्यादि को दाधार -धारण कर रहा है। हम लोग उस कस्मैं -सुखस्वरूप देवाय-शुद्ध परमात्मा के लिए हविषा-ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से विधेम-विषेष भक्ति किया करें।।
    इस मन्त्र में परमेष्वर के सामथ्र्य का निम्न रूप में बोध होता है-
१.    हिरण्यगर्भः- विभुत्व या विषालता की दृष्टि से।
२.    समवत्र्तताग्रे- अग्रज की दृष्टि से।
३.    भूतस्य जातः-उत्पादन सामथ्र्य की दृष्टि से।
४.    पतिरेक आसीत्- स्वामित्व की दृष्टि से।
५.    स दाधार पृथ्वी द्यातुतेमाम्-शक्तिमत्ता की दृष्टि से।
हमने यह वर्णन महर्षिकृत अर्थ की दृष्टि से किया है। प्रथम मन्त्र वर्णित प्रार्थना सफल होगी या नहीं होगी, इस शंका का निवारण हो, इसी दृष्टि से उस ईष्वर के, सविता देवे के सामथ्र्य का वर्णन् इस मन्त्र में किया गया है। ईष्वरीय सामथ्र्य का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
१.    हिरण्यगर्भः- स्वप्रकाशस्वरूप। जिससे प्रार्थना की है वह स्वयं प्रकाष स्वरूप है। उस का प्रकाष उसका स्वयं का है, किसी अन्य तेजोमय पदार्थ से उसका प्रकाष गृहीत नहीं है।    
    महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाष प्रथम समुल्लास में ‘हिरण्यगर्भः’ का अर्थ इस प्रकार किया है-
    ‘‘ज्योति वै.................हिरण्यगर्भः।’’
    जिसमें सूर्यादिक तेजवाले लोक उत्पन्न हो के जिसके आधार पर रहते हैं अथवा जो सूर्यादिक तेजःस्वरूप पदार्थो का गर्भ नाम उत्पत्ति और निवास स्थान है, इससे उस परमेश्वर का नाम हिरण्यगर्भ है।
    उक्त के आधार पर ही महर्षि ने ‘हिरण्यगर्भ’ का अर्थ किया स्वप्रकाषस्वरूप और जिसने प्रकाष करने हारे सूर्य चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं। सूर्य पृथिवी से तेरह लाख गुण बड़ा है। जरा कल्पना करें कि सूर्य के तेरह लाख टुकड़े करें तो एक हिस्सा, एक भाग के बराबर पृथिवी है। सूर्य से भी विशाल ग्रह, नक्षत्रों आदि को जो धारण किये हुए है, उसकी विषालता के विषय में सन्देह नहीं रहता है। निष्चय ही वह ईष्वर-‘‘महतो महीयान्’’ है। यजुर्वेद के अनुसार -‘‘ स ओतः प्रोतष्च विभुः प्रजासु’’ ३२।८।।
वह सब में विद्यमान है, विभु-विषाल है।
इस प्रकार विभुत्व की दृष्टि से, विषालता की दृष्टि से उसका सामथ्र्य महान् है।
२.    सवमत्र्तताग्रे-जो सब जगत् के उत्पन्न होनें से पूर्व विद्यमान था। निष्चय से ईष्वर, जीव और प्रकृति ये तीनों तत्व अनादि हैं। फिर अग्रज की दृष्टि से उसका सामथ्र्य किस अर्थ में समझना चाहिये?
    निश्चय से तीन तत्व अनादि है। प्रकृति मात्र जड़ है, उसके जड़त्व के कारण स्वयं कुछ होने का सामथ्र्य नहीं है। दूसरा जीव है। जीव अल्पज्ञ है, अल्पशक्तिवाला है, अतः शरीरनिर्माणादि सामथ्र्य से वह हीन है। यह सामथ्र्य तो मात्र-सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान ईष्वर में ही है। यजुर्वेद का वचन है-
    परीत्य भूतानि परीत्य लोकान् परीत्य सर्वाः प्रतिशो दिषष्च।
    उपस्थाय प्रथमजामृतस्यात्मनात्मानमभिसंविवेष।। ३२।११।।
    महर्षि ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में इसका अर्थ इस प्रकार किया है-
    ‘‘जो परमेष्वर आकाषादि सब भूतों में तथा सूर्यादि सब लोकों में व्याप्त हो रहा है। इसी प्रकार जो पूर्वादि सब दिषा और आग्नेयादि उपदिषाओं में भी निरन्तर भरपूर हो रहा है अर्थात् जिसकी व्यापकता से अणु भी खाली नहीं है जो अपने भी सामथ्र्य का आत्मा है और जो कल्पादि में सृष्टि की उत्पत्ति करने वाला है, उस आनन्द स्वरूप परमेष्वर को जो जीवात्मा अपने सामथ्र्य अर्थात् मन से यथावत् जानता है, वही उसको प्राप्त होके सदा मोक्ष सुख भोगता है।
    इस सृष्टि निर्माणादि के साथ जो जीवात्मा को शरीर के साथ अनेक साधन प्रदान करता है निष्चय से वह अपने इस सामथ्र्य से अग्रज है। ऐसा सामथ्र्यवान् वह अग्रज निस्सन्देह हमारे सम्पूर्ण दुरितों को दूर करने में सक्षम है तथा ‘भद्र’ प्राप्त कराने में भी वह समर्थ हैं
३.    भूतस्य जातः- उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का वही प्रसिद्ध (स्वामी है)। कितना सामथ्र्यशाली है वह। इस विषाल ब्रह्माण्ड का रचयिता है। वह इसका स्वामी है, वह अत्यन्त प्रसिद्ध है।
    ‘‘सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्’’
    उस धाता ने, सबको धारणा करने वाले परमात्मा ने पूर्व के समान सूर्य चन्द्रादि उत्पन्न करके उनको धारण किया है। विविध प्रकार के वृक्ष, पुष्प्, फल, रस आदि सभी उसी के उत्पादन सामथ्र्य का परिणाम है। हम अपने शरीर को ही देखें तो इसकी अद्भुत रचना को देखकर उसके उत्पादन सामथ्र्य का बोध हमें होता है। अन्न खाने के लिए दाँत, रसास्वादन के लिए रसना, विविध प्रकार के शरीर के यन्त्र जो भोजन पचाते हैं, रस बनाकर रक्त में परिवर्तित करते हैं, अशुद्ध रक्त को शुद्ध करके सारे शरीर में रक्त को पहुँचाकर सम्पूर्ण नस नाडिछयों को पुष्ट करने की प्रक्रिया, मज्जा, मांस, अस्थि आदि शारीरिक विकास को करने वाले तत्वों का निर्माण, विविध दृश्यों को देखने वाले सूक्ष्म तन्तुओं से निर्मित नेत्रादि अवयवों के निर्माण का सामथ्र्य जिस ईष्वर में है, उस ईष्वर के प्रति पूर्ण आस्था, श्रद्धा भाव रखना चाहिए, जिनसे हमारी कामनायें सफल होगी, यह आषा, विष्वास उसके उत्पादन सामथ्र्य को देखकर हममें होना चाहिए।
    विज्ञान की उन्नति को सब कुुछ समझने वाले, वैज्ञानिक को, सामथ्र्यषाली समझने वालों को यह समझ लेना चाहिए कि समस्त वैज्ञानिक मिलकर भी एक सिर के बाल पर निर्माण नहीं कर सकते हैं। ‘लाप्लास’ ने पृथ्वी के अनेक रहस्यों को खोलने वाली रचना लिखी, किन्तु उसमें रचयिता का कोई वर्णन नहीं था। जब मित्रों ने कहा तो लाप्लास का उत्तर था कि मुझे उसकी कोई आवष्यकता ही अनुभव नहीं हुई। वह लाप्लास जब मृत्यु की घड़ियां गिनने लगा, तब उस ने अपने मित्र से कहा-रचना का दूसरा संस्करण छपे तो सबसे पहले उस रचयिता को प्रणाम लिखना, उसके रचना सामथ्र्य को मेरा अभिवादन लिखना। लाप्लास कहता है- उसका सामथ्र्य महान् उसका रचना कौषल आष्चर्यजनक है, उसके नियम अटल है, मैं मरना नहीं चाहता हूँ किन्तु मुझे कोई बलपूर्वक अपनी ओर खींच रहा है, निष्चय से उसका सामथ्र्य अदुभुत है।
४.    पतिरेक आसीत्- स्वामी एक ही चेतन स्वरूप था। वह परमेष्वर जिससे हम अपनी मनोकामना पूर्ण करना चाहते है वह चेतन स्वरूप ही नहीं अपितु स्वामी है, मालिक है, पति है, पिता है-
    त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ।
    अथा ते सुम्नमीमहे। ऋग्वेद ८।९८।११।।
ध्यान तथा उपासना
ध्यान में प्रवेष की विधि
    अब मैं संक्षेप में प्रवेष की विधि की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ। वेदों के प्रकाण्ड पण्डित सातव लेकर जी एक बार अरविन्द आश्रम पाण्डेचेरी गये। वहाँ उन्होंने श्री माँ से ध्यान की सरलतम विधि पूछी। माँ ने कहा कि अपने हृदय में बच्चे की तरह सरलता का अनुभव करते हुए जगन्माता को पुकारना सबसे सरल विधि है। ध्यान में प्रवेष को आप ऐसा ही समझें जैसा कि किसी नदी, सरोवर या समुद्र में प्रवेष। इसमें सर्वप्रथम मन में आतुरता उत्पन्न होनी चाहिए, अन्यथा प्रवेष नहीं कर पाओंगे, ठीक उसी तरह जैसे नदी ंके किनारे जाकर भी अनिच्दुक व्यक्ति उसमें प्रवेष नहीं करता है। यदि कदाचित् कोई व्यक्ति अन्यों को देखकर, या किसी की प्रेरणा से अथवा केवल प्रदर्शनार्थ जल में प्रवेष कर भी ले तो वह उस आनन्द को प्राप्त नहीं कर सकता जिसे कि प्रवेष के लिए उत्कण्ठित व्यक्ति प्राप्त करता है। इसलिए ध्यान में प्रवेष करने से पूर्व प्रवेषार्थी के मन में पूर्ण आतुरता, प्रवेष की तीव्र इच्छा होनी ही चाहिए। अनिच्छुक व्यक्ति जल में प्रवेष करके भी उसमें डुबकी लगाए बिना ही बाहर निकल जायेगा। यही अवस्था ध्यान में प्रवेषार्थी की भी होगी। वहाँ भी स्वल्प समय के लिए ध्यान की मुद्रा में बैठकर और औपचारिकता का निर्वाह कर लेगा, किन्तु इससे कार्य बनने वाला नहीं। इससे कुछ भी अभीष्ट सिद्ध नहीं होगा। इसलिए ध्यान में प्रवेष करने से पूर्व उसके लिए मन में उत्कृष्ट आतुरता उत्पन्न कीजिए। हाँ, एक बात और, वह यह कि यह उत्कण्ठा दो प्रकार की होनी चाहिए। एक तो मन में सर्वदा वर्तमान यह विचार कि मुझे अवष्य ही ध्यान में प्रवेष करना है। यह विचार चैबीसों घण्टे उसके अन्तर्मन में घूमता रहे, उसी प्रकार जैसे कि धन प्राप्ति के इच्छुक को सर्वदा धन प्राप्ति का विचार बना रहता है। इसके अतिरिक्त प्रति दिन आपका जब भी ध्यान में प्रवेष करने का समय हो, उससे कुछ देर पूर्व इस विचार से आपका मन पूरित एवं प्रफुल्लित हो जाना चाहिए कि अब मेरे ध्यान का समय उपस्थित होने वाला है। अब इस बाह्य क्रिया कलाप से मुक्ति मिलने वाली है। अब प्रभु के चरणों में उपस्थित होना तथा वहाँ आनन्द सागर में गोते लगाते हैं। यह उत्सुकता उसी प्रकार की होनी चाहिए जैसी कि एक दिन भर विद्यालय पढ़ने वाला छात्र सांयकाल छुटटी का समय निकट आते ही इस भाव से भर जाता है कि छुट्टी की घण्टी अब लगने वाली है, अब लगने वाली है। घण्टी लगते ही बच्चों की हालत देखिए, उनकी प्रसन्नता का अनुमान आप नहीं कर पायेंगे। इसका अनुभव वे छात्र ही कर सकते है, जिन्होंने वह जीवन व्यतीत किया है। छुट्टी होते ही एकदम कितना शोर होता है। कितने प्रसन्न होते हैं वे। प्रसन्न वदन सभी अपना-अपना बस्ता उठाकर घर की ओर दौड़ पड़ते हैं, मानों वहाँ जाकर ही उन्हें शान्ति मिलेगी, सुख मिलेगा। प्रातः काल से लेकर अब तक के स्कूली बन्धन से अब वे मुक्त हुए हैं। अतः कितने प्रसन्न हैं वे , जरा इस ओर सोचिए।
    दिन भर के सभी कार्यो को छोड़कर ध्यान में प्रवेष करने से पूर्व आप भी ऐसा ही सोचिए तथा इतने ही प्रसन्न होइए जितने कि स्कूल के बच्चे। ऐसा नहीं कि इससे पूर्व वे स्कूल में अपना कार्य नहीं कर रहे थे। कर रहे थे। वे कक्षा में तन्मयता से पढ़ रहे थे। अपना पाठ याद कर हे थे, किन्तु छुट्टी का समय आते ही सब कुछ भूल गये। बस इसी तरह ध्यान का समय आते ही आप भी सब कुछ भूल जाइए। भूल जाइए दिन भर के कार्यो को तथा भूल जाइए दिनभर के झंझटों को। भूल जाइए सभी प्रकार के अषुभ विचारों को तथा सभी प्रकार की चिन्ताओं को। तभी आप ध्यान में प्रवेष के अधिकारी बन सकोगे, अन्यथा नहीं। यदि दिनभर की चिन्ताओं का, दिन भर के व्यापार का, झंझटों का बोझ तब भी तुम्हारे सिर पर रहा तो ध्यान में प्रवेष बिल्कुल नहीं हो सकता। यह तो सांयकाल की बात है। प्रातःकाल भी यही मनःस्थिति बनानी होगी। इससे पूर्व कि आप दिन भर में करणीय करणीय कार्यो की सूचि बनाएं, अपना दिन भर का कार्यक्रम सुनिष्चित करें, आपको सर्वप्रथम अपनी साधना को ही ध्यान में लाना है। केवल ध्यान के बारे में ही उत्कण्ठित एवं उत्साहित होना है। इससे पूर्व किसी भी प्रकार की सांसारिक बातें, सांसारिक उलझने आपके मस्तिष्क में आनी ही नहीं चाहिए।
    प्रिय पाठकों! थ्जस उत्सुकता का मैंने ऊपर उल्लेख किया है, उसे आप साधारण न समझें। यह अति अनिवार्य है, अन्यथा ध्यान का लाभ प्राप्त नहीं कर पाओगे। ऐसा मत सोचिए कि आसन पर जाकर ध्यान के लिए बैठकर ही यह सब हो जायेगा, तभी बाह्य व्यवहार भी आपके साथ्ज्ञ आपके मन में बैठा है। इसलिए उस आतुरता को ध्यान के लिए उपस्थित होने से पूर्व ही मन में बैंठा लीजिए। एक ओर दिन भर के कार्यो का निबटान होता रहे तथा इसके साथ ही दूसरी ओर आपके मन में ध्यान के लिए उत्सुकता बढ़ती रहे, आतुरता जगती रहे तथा प्रसन्नता से आपका मन प्रपूरित होता रहे। इसके पष्चात् अब ध्यान के आसन के पास चलते हैं। यहाँ मैं ध्यान में बैठने की विधि तथा ध्यान करने की विधि की चर्चा करूँगा, जो इस प्रकार है-
    यह तो सामान्य प्राथमिक बात है कि ध्यान का आसन शुद्ध -पवित्र होना चाहिए। प्रतिदिन एक ही आसन का प्रयोग किया जाए तो उत्तम है अन्य कार्यो में उसका उपयोग नहीं करना चाहिए। इससे ध्यान के प्रति दृढ़ता में अभिवृद्ध होगी। यह आसन एकान्त में हो जहाँ कि बाह्य वातावरण आपको उद्विग्न न कर सके, तभी ध्यान लग जायेगा, अयथा लगा लगाया ध्यान भ्ज्ञी बाह्य वातावरण से भंग हो जाता है।
    कोई ऐसा आसन लगाकर बैठ जाएं जिसके बैठने में आपके कष्ट न हो तथा इच्छानुसार जितनी देर भी चाहें, बैठ सकें। सिद्धासन या पद्मासन लगा सकें तो उत्तम होगा। ध्यान के लिए ये दोनों आसन सर्वश्रेष्ठ माने गये हैं। इनमें भी पदमासन। न लग सके तो जबरदस्ती न करें। वैसे कुछ दिनों के अभयास से ये आसन लगाने लग जाते हैं। हाँ, प्रारम्भ में तो अवष्य कष्ट होगा।
    आसन पर बैठकर सर्वप्रथम दोनों हथेलियों को मृदु स्पर्ष के साथ पूरे सिर तथा मुख-कंधों पर घुमाएं। सर्दी के दिन हों तो हथेलियों को थोड़ा मसल कर चेहरे पर फेरें। इससे आपको हल्कापन तथा ताजगी का अनुभव होगा। इसके बाद शरीर को बिल्कुल ढीला करके बैठ जाएं।
    इस समय आपकी स्थिति नदी के किनारे खड़े हुए उस व्यक्ति की है जो पानी में छलांग लगाने को बस तत्पर ही है। वह बाहर की गर्मी से परेशान है तथा एकदम पानी में कूद कर शान्ति एवं शीतलता प्राप्त करने को आतुर है। आप भी अपने आसन पर उपासना में इसी तत्परता से, इसी उत्कण्ठा से बैठें, अन्यमनस्क होकर ढीले-ढाले रूप में नहीं। यहाँ पर यह भ्ज्ञी जान लेना जरूरी है कि इस समय स्नानार्थी के पास कुछ नहीं है, सिवाय एक लंगोट या कच्छे के। अन्य कोई सांसारिक विचार भी उसके मन में नहीं आ रहा है। बस, उसका तो पूरा ध्यान पानी में कूदने की ओर है, क्योंकि उसे पता है कि उसे इसमें ही शीतलता एवं शान्ति मिलेगी। केवल जानना ही नहीं, अपितु इस समय वह अपने इसी ज्ञान को क्रियान्वित करने भी जा रहा है।
    ध्यान में बैठने पर प्रारम्भ में आपकी भी यही दषा होनी चाहिए। आपका मन इन विचारों से पूरित होना चाहिए कि अब मैं आनन्दसागर में गोता लगाने ही वाला हूँ। अब मैं प्रभु के समीप पहुँचने ही वाला हूँ। आप बार-बार अपने मन में कहते जा रहे हो-कदान्वन्तर्वरूणे भुवानि अर्थात् मैं अपने उपाय वरूण प्रभु में कब प्रवेष करूँगा, कब प्रवेष करूँगा। यह अवस्था तभी सम्भव है जबकि सांसारिक विचारों को आपने इससे पूर्व ही दूर छोड़ दिया हो।
    अब तृतीय चरण इस प्रकार है-
    धीरे-धीरे आँखों को बन्द कर लीजिए। बन्द केवल आँखों को ही न करें, अपितु उस मन को भी मन्द करें कि जो आँखें बन्द करने पर भी अन्दर ही अन्दर बाहर के दृष्य हमें दिखलाता रहता है। आँखें बन्द करके अति धीमी आवाज से या केवल मन के द्वारा ही प्रभु के गुणों का स्मरण करना प्रारम्भ करें। उसकी सर्वज्ञता, दयालुता, सर्वव्यापकता का न केवल विचार ही करें, अपितु ऐसा अनुभव करने का भी यत्न करें। अपने मन में इस प्रकार के भाव भरें कि मैं आनन्द सागर प्रभु के बीच में बैठा हुआ हूँ। वह प्रभु यहाँ वहाँ सर्वज्ञ प्रत्येक अणु-परमाणु में व्याप रहा है। हे आनन्द सागर, तू तिनके में तथा जड़चेतन सभी में समा रहा है। तू ही तो उपवन में फूलों के रूप में मुस्कुरा रहा है।
        तेरा महान् तेज है छाया हुआ सभी स्थान।
        सृष्टि की वस्तु -वस्तु में तू हो रहा है विद्यमान।
    तू आनन्द स्वरूप है। बस, मुझे इसी आनन्द की प्राप्ति होने ही वाली है। अभी होने वाली है। प्रभु दयालु है, आनन्द सागर है। अतः दया करके मेरे ऊपर भी आनन्द की वर्षा अवष्य करेगा। हे प्रभो! त्ेरी कृपा से ही मुझे यहाँ पर तेरे चरणों में बैठने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। प्रभो! कृपा कर कि मैं भी तुझ आनन्द सागर में प्रवेष कर सकूँ। अपने आनन्द के 2-4 कण मेरे ऊपर ही डाल दे जिससे मैं धन्य हो जाऊँ, आनन्द में निमग्न हो जाऊँ। ये वाक्य केवल तोता रटन्त की तरह नहीं करने चाहिए, अपितु आप के हृदय से निकलने चाहिएं। इनमें एक आत्मीयता, एक प्रेम, एक आतुरता, एक कृतज्ञता होनी चाहिए। भाषा तथा शब्द कोई भी हो सकते हैं, भाव यही होने चाहिए।
    चतुर्थ चरण- इसके पश्चात् आप किसी मन्त्र का जप पूर्ण लय के साथ प्रारम्भ करें। गायत्री मत्र में अच्छी लय बन जाती है। अन्य मंत्र भी इसके स्थान पर लिये जा सकते हैं। यह उच्चारण इतनी तन्मयता से होना चाहिए कि आप स्वंय भी इसी में लीन हो जाएं। बाहर की यहाँ तक कि अपनी सुध-बुध भी बिल्कुल भुलाएं। उत्तम तो यही है कि यह जपम न से ही किया जाए जो कि सम्भव है, किन्तु यदि प्रारम्भ में आप ऐसा न कर सकें तो मुख से धीमा उच्चारण भी कर सकते हैं, किन्तु इस काल में भी आपकी वृत्ति आन्तरिक ही बनी रहे तथा आपकी पूर्ण तन्मयता इसमें हो। इस काल में आपका ध्यान मन्त्र के शब्दों पर बना रहेगा। मन्त्र के शब्दों का अर्थ भी साथ-साथ दोहराते रहें। एक समय ऐसा आ जाए जब आपको मन्त्र के शब्दों तथा उनके अर्थो में कोई अन्तर ही मालूम न पड़े। मन्त्र के शब्दों का उच्चारण करते ही उनका अर्थ भी आपको प्रत्यक्ष होता चला जाए। इसके लिए अलग से कोई यत्न करने की आवष्यकता न पडे़। इससे पहली अवस्था में आपको मन्त्र के शब्दों पर ध्यान लगाना पड़ता था। वह अर्थ स्वतः ही उपस्थित नहीं होता था। यह अवस्था पहली अवस्था से उत्कृष्ट है तथा ध्यान की प्रगाढ़ता की परिचायक है। इसका प्रमाण यही है कि जब आपको मन्त्र के शब्द बोलते ही उनका अर्थ भी उच्चारण के साथ ही उपस्थित हो जाए, उसके लिए अलग से कोई यत्न न करना पड़े तब इस अवस्था को पूर्ण समझिए। कुछ देर ऐसा ही करते रहें।
    इसके पश्चात् अपने शाब्दिक उच्चारण को लम्बा कीजिए। यथा ओ....म्। भू....र् भुव....स्व...। यहाँ पर जहाँ.....यहनिषान लगा है, वहाँ उससे पूर्ववर्ती शब्द को ही लम्बा करके बोलते जाएं। यथा ओ को पर्याप्त लम्बी ध्वनि से बोलकर धीरे से ‘म्’कहकर मुख बन्द कर लीजिए। इसी प्रकार अन्य शब्दों में भी समझना चाहिए। इस बात में लम्बी ध्वनि करते हुए आपका ध्यान उस शब्द के अर्थ की ओर निरन्तर लगा रहेगा। ऐसा स्वतः ही हो जायेगा। इसमें आपके अधिक श्रम नहीं करना पड़ेगा। हाँ, प्रारम्भ में स्वल्प सा यत्न करना पड़ सकता है। इसी प्रकार कुछ देर यही क्रम चलता रहने दीजिए।
    इसके पश्चात् इस को लम्बा तो किये रखिए, किन्तु इसके शब्दों के उच्चारण को धीमा कर दीजिए। शनैः-षनैः अत्यन्त धीमा करते-करते एक अवस्था ऐसी आयेगी जब आपको मन्त्र के शब्द उच्चारण करने की आवष्यकता ही नहीं पड़ेगी। उनका उच्चारण अन्तःस्थल से स्वतः होने लगेगा। इस समय आप मुख से शब्दों उच्चारण नहीं कर रहे होंगे। ध्यान पूर्वक उसे सुन रहे होंगे। हाँ, इस अवस्था में आपका ध्यान पूर्णतः केन्द्रित रहना चाहिए। जरा सा भी ध्यान टूटा तो यह ध्वनि तुरन्त बन्द हो जायेगी। इसकी प्राप्त के लिए आपको पुनः यत्न करना पडे़गा। यह ऐसी अवस्था है कि आप इस समय बिल्कुल शान्त बैठे हैं। मुख से तथा मन से कुछ भी उच्चारण नहीं कर रहे हैं, तथापि आपके अन्दर से वह ध्वनि निरन्तर आती जा रही है। जिसका कि आप इससे पूर्व मुख से तथा मन से उच्चारण कर रहे थे। इस आन्तरिक ध्वनि के साथ ही आपको मंत्र के सभी शब्दों को अर्थ भी स्पष्ट होता जा रहा होगा। इस समय आपका ध्यान थोड़ी-थोड़ी देर के लिए बाह्य जगत् से हट कर इसी ध्वनि में केन्द्रित होता चला जायेगा। बीच में यह टूट भी सकता है। ऐसा होने पर यत्न पूर्वक पुनः उसी अवस्था को प्राप्त कर लेना चाहिए। धीरे-धीरे यह अवस्था दृढ होती चली जायेगी। यह ध्यान की प्रथमावस्था है। इस समय आप ध्यान में प्रवेष करने के पात्र हैं, इससे पूर्व नहीं। इस समय आप जहाँ भी चाहेंगे, वहीं अपने ध्यान को स्थिर कर सकते हैं। एक समय ऐसा भी आयेगा कि इस अवस्था में ध्यान करते-करते यदि आपको नींद भी आ जाती है तो नींद से जगने पर मन्त्र का उच्चारण पूर्ववत् स्वतः ही होने लगेगा। आपको इसके लिए यत्न नहीं करना पडे़गा। जब ऐसा हो जाए तो समझ लीजिए कि ध्यान में एकाग्रता का प्रारम्भ हो गया है।
    अनेक बार ध्यान लगाने पर बाह्य सांसारिक भाव मन में आने प्रारम्भ हो जाते है। कभी-कभी तो वे निरन्तर एक के बाद एक करके आने लगते हैं। ऐस विचार भी आने लगते हैं कि जिनका उस समय प्रसड़ भी नहीं होता। यह कार्य इतने छद्म रूप में होता है कि आप तो समझ रहे हैं कि मेरा जप चल रहा, किन्तु वह ज पतो इस प्रकार होता रहता है कि आपकी वाणी या मन से किसी मन्त्र आदि का उच्चारण भी कर रहे होते हैं, तथा अन्य विचार भी इसके साथ ही साथ मन में घूमते रहते हैं। इसे इस प्रकार समझिए कि जैसे किसी गन्दी जगह को स्वच्छ करने के लिए आप को झाडू से कूड़े-कर्कट को इक्टठा करते रहें तथा साथ ही साथ वायु का झोका पुनः उसे इधर-उधर विखेरता रहे। दोनों कार्य साथ-साथ हो रहे हैं। स्वच्छता भी तथा पुनः गन्दगी भी। इसी प्रकार जप का क्रम भी चलता रहेगा तथा ब्राह्यभाव भी रहेंगे। यद्यपि यह अवस्था पहली अवस्था की अपेक्षा अच्छी है, क्योंकि इससे पूर्व की अवस्था में तो आप उन विचारों के साथ जप कर ही नहीं सकते थे उस अवस्था में बाह्य विचार आने पर आपका ध्यान अपने केन्द्र से हट कर उन विचारों में ही खो जाता था। आपका ध्यान भंग हो जाता था। इस अवस्था में ध्यान भी किसी न किसी रूप में लगा रहेगा, किन्तु इसके साथ ही बाह्य विचार भी मन में चलते जायेंगे। ध्यान तथा विचारों का ऐसा घालमेल होता है कि यह पता ही नहीं चल पाता कि बाह्य विचार कब आ गये तथा आप उनमें कब लीन हो गये।
    ऐसी अवस्था होने पर क्या करे? यह अवस्था आने पर थोडा सावधान होने की आवष्यकता है। वस्तुतः यह धारणा की स्थिति है, ध्यान की नहीं। ध्यान की स्थिति में तो ये उपद्रव हो ही नहीं सकते। यह अवस्था इस बात की सूचक है कि धारणा भी अभी परिपक्व नहीं हो पायी है। इसे परिपक्व बनाया है, बाह्य विचारों से रहित करना है, तभी तो आप ध्यान में प्रवेष कर पायेंगे, अन्यथा नहीं। जब कभी उपयुक्त अवस्था आए तो साधक को सावधान हो जाना चाहिए तथा पता चलते ही बाह्य विचारश्रृंखला को तुरन्त ही बन्द करके धारणा में मन को स्थिर करने का यत्न करना चाहिए। ऐसा करने के लिए कई उपायों का ले सकते हैं जो इस प्रकार हैं (१) केवल श्वास पर ध्यान लगाइए। आने-जाने वाले श्वास का सावधानी से निरीक्षण करना प्रारम्भ करें कि नाक से श्वास लिया जाकर शरीर में कितनी दूर तक प्रविष्ट हो रहा है तथा शरीर के अन्दर वह किस-किस स्थान का स्पर्ष कर रहा है। इसी प्रकार नासिका से निकलने पर वह बाहर कितनी दूर तक जा रहा है तथा किस गति से जा रहा है। इस प्रकार परीक्षण करने पर आप देखेंगे कि आपका श्वास धीरे-धीरे सूक्ष्म होता जा रहा है। तथा उस पर आपका ध्यान निरंतर बना हुआ है। इस अवस्था में बाह्य विचार अपने आप विलीन हो जायेंगे, आप इन पर विचार ही मत कीजिए, क्योंकि उनके बारे में सोचा, तो वे विचार तुरन्त ही प्रकट हो जायेंगे। उन्हें प्रकट नहीं करना है, अपितु लुप्त करना है तथा उनका यह लोप तभी सम्भव है जबकि आप उनके बारे में बिल्कुल भी न सोचें। केवल श्वास पर दृढता से ध्यान लगाए रहेें।
    (२) श्वास की भांति ही किसी अभीष्ट मन्त्र या ओम् आदि पर भी मन को टिकाया जा सकता है। यह भी उत्तम मार्ग है। ऐसा करते समय आप मन्त्र के पदों का अर्थ भी अपने ध्यान में लाते रहें, उस पा विचार करते रहें। उसके एक-एक शब्द के अर्थ पर अपना ध्यान केन्द्रि करते रहें। मन्त्रार्थ पर विचार के साथ-साथ परमेष्वर को भी विचारों का विषय बनाएं। मन्त्र के अर्थ को परमेष्वर से सम्बन्धित करके उस पर विचार करें। इस प्रकार मन अन्य विचारों से हटकर धारणा/ध्यान में लीन हो जायेगा। ऐसा करते समय ओम् आदि की आकृति को भी ध्यान में लाने का यत्न करें। कल्पना के द्वारा ओम् का चित्र आकृति में बनाएं तथा उस पर अपना ध्यान केन्द्रित करें।
    (३) यदि इन उपायों से सफलता नहीं मिलती तो शीघ्र -शीघ्र मानसिक जप प्रारम्भ कर दीजिए। यह जप आपके ध्यान को केन्द्रित करेगा। ऐसा करते हुए जब बाह्य विचार आने बिल्कुल बन्द हों जाएं तो जप की गति को मन्द करते हुए शनैःशनैः जप को पूर्णतः छोड़कर शरीर के किसी भी भाग में अथवा किसी सूक्ष्म मन्त्र में मन को स्थिर कीजिए। ओम् ही इसके लिए सबसे अच्छा है।
    एक उपाय यह भी है कि इस अवस्था में आप अपने प्रभु से वार्तालाप प्रारम्भ कर दीजिए। यह वार्तालाप एकांगी ही होगा। केवल आपकी ओर से ही होगा, किन्तु आप उत्तर की परवाह किये बिना अपनी बात कहते जाइए। इसमें सबसे अच्छा है परमेष्वर के गुण स्मरण तथा उच्चारण करते हुए उससे प्रार्थना करना तथा उसमें खो जाना। उक्त उपायों से मन बाह्य विचारों से हटकर धारणा में ही दृढ होने लगेगा।
    जप की धारणा दृढ होने पर एक स्थिति यह भी आयेगी कि जब आप वाचिक तथा उपांशु जपों के पश्चात् मानसिक जप कर रहें होंगे तो प्रारम्भ में तो इसके लिए आपको थोड़ा यत्न करना पड़ेगा। इससे पूर्व उपांषु जप में आपके होठ थोडे़ बहुत हिल रहे थे। उनसे इतनी धीमी ध्वनि आ रही थी कि उसे केवल आप ही सुन सकते थे, अन्य नहीं। अब आप इस अवस्था से भी आगे बढ़ गये हैं। होठों का हिलना बिल्कुल बन्द हो गया है तथा आपका जप केवल मन से हो रहा है। यह तृतीय अवस्था है। इससे भी अगली चतुर्थ अवस्था यह है कि यह मानसिक जप भी शनैःशनैः बन्द हो जायेगा। इस अवस्था में आप सूक्ष्मता से देखेंगे तो आपको एक ध्वनि सुनायी पडे़गी। यह ध्वनि वैसी ही होगी जैसी कि मानसिक जाप में थी। अन्तर केवल यह है कि इस अवस्था में मन से जप न करने पर भी यह ध्वनि निरन्तर आ रही होगी। आपको इसे केवल साक्षी भाव से सुनते जाना है। आप देखेंगे कि आपका मन भी इसी ध्वनि में लीन होता जा रहा है। यह पहले की अपेक्षा धारणा की उत्कृष्ट अवस्था है।
    ध्यान की प्रक्रिया को इस प्रकार समझें कि जैसे किसी बछड़े को जवान होने पर तांगे या हल आदि में चलना सिखलाया जाता है तो प्रारम्भ में वह बहुत तंग करता है, इधर-उधर भागता है, कभी-कभी मार्ग में बैठ भी जाता है तो कभी बहुत तेज भागने लगता है। किन्तु कुछ बाद यही बड़डा बिना तंग किए ही भार या सवारी ढोने लगता है। सधी गति से गाड़ी आदि में चलते लगता है। इसी प्रकार प्रारम्भ में एक बच्चे को अक्षराभ्यास कराने में पर्याप्त परिश्रम तथा कठिनाई होती है। बाद में वह स्वंय ही पढ़ने लगता है। कोई भी स्कूटर आदि वाहन सीखते समय नये चालक की कभी यही अवस्था होती है। बाद में वह बातें भी करता चलता है तथा वाहन को भी भली-भांति चलाता जाता है।
    यही अवस्था मन की है। प्रारम्भिक दिनों में मन भी बछड़े की भांति बहुत उत्पात मचायेगा, सरल रास्ता छोड़ कर कुपथ पर भी भागेगा। इससे घबराने की आवष्यकता नहीं। कुछ दिनों के अभ्यास से वह आज्ञाकारी बन जायेगा। यह साधक के प्रयत्न पर निर्भर करता है कि यह मन कितने समय में काबू में आए। इसके पूर्व ध्यान का प्रारम्भ नहीं हो सकता।
    जब मन को शान्त रहने की आदत पड़ गयी तो, तब उसे धारणा में लगाना सुखकर एवं सुगम होता है। धारणा ही परिपक्व होकर ध्यान बन जायेगी। ऐसी अवस्था में ध्यान लगाया नहीं जाता, अपितु वह स्वंय लग जाता है। बस आवष्यकता है उसकी उछल-कूद, विषयों में बाहर भागने की प्रवृत्ति पर रोक लगाने की। इसके दो प्रकार हैं- (१) मन को किसी लक्ष्य पर स्थिर करें, तो धीरे-धीरे स्वंय  ही वह बाहर के पदार्थो से हटने लगेगा। जैसा कि अर्जुन ने अपने ध्यान को पेड़ पर बैठी, चिड़िया की आँख पर लगाकर उस पेड़ के अन्य अवयवों से उसे हटा लिया था। दूसरा उपाय यह है कि मन को पहले बाहर के पदार्थो से हटाएं। ध्यान काल में मन जिन विषयों में भागे, वहाँ से बार-बार हटाकर एक स्थान पर केन्द्रित करने का प्रयत्न करें। से ही गीता में इस प्रकार कहा गया है कि जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है। उसी प्रकार बाह्य विषयों से अपने मन को समेट लेना चाहिए।     

यूहत्रा रचित सुसमाचार
भूमिका
यूहÂा रचित सुसमाचार में यीशु को परमेश्वर के अनन्त वचन के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसने ‘‘देहधरी होकर हमारे बीच में डेरा किया।’’ इस पुस्तक में यह स्पष्ट कथन है, कि यह सुसमाचार इसलिये लिया गया कि इसके पाठक विश्वास करंे कि यीशु ही प्रतिज्ञात उ(ारकर्ता अर्थात् परमेश्वर का पुत्रा है, और वे यीशु में विश्वास के द्वारा जीवन प्राप्त कर सकें ;20ः31द्ध।
    भूमिका में यीशु को परमेश्वर के अनन्त वचन के रूप में दर्शाया गया है। उसके पश्चात् सुसमाचार के पहले भाग में सात आश्चर्यकर्मों या चिन्हों का वर्णन है, उनसे यह प्रगट होता है कि यीशु प्रतिज्ञात उ(ारकर्ता अर्थात् परमेश्वर का पुत्रा है। दूसरा भाग उपदेश है। उनमें यह समझाया गया है कि इन आश्चर्यकर्मों का अर्थ क्या है। इस भाग में यह भी बताया गया है कि कैसे कुछ लोगों ने यीशु में विश्वास किया और उसके अनुयायी बन गए, जबकि अन्य लोगों ने उसका विरोध् किया और विश्वास करने से इन्कार कर दिया। 13-17 अध्याय में यीशु के पकड़वाए जाने वाली रात को, यीशु की उसके चेलों के साथ घनिष्ठ सहभागिता, और क्रूस पर चढ़ाए जाने से पूर्व की संध्या को चेलों को तैयार करने और उन्हें उत्साहित करने वाले यीशु के वचनों का विस्तारपूर्वक वर्णन है। अन्त के अध्यायों में यीशु के पकड़वाए जाने और मुकदमे, उसके क्रूस पर चढ़ाए जाने, गाड़े जाने, पुनरूत्थान, और पुनरूत्थान के बाद चेलों पर प्रगट होने का वर्णन है।
    यूहत्रा मसीह के द्वारा अनन्त जीवन के दान पर बल देता है। यह एक ऐसा दान है जो अभी आरम्भ होता है और उनको प्राप्त होता है जो यीशु को मार्ग, सत्य, और जीवन के रूप में ग्रहण करते हैं। आत्मिक बातों को दर्शाने के लिये दैनिक जीवन की साधरण वस्तुओं का प्रतीकों के रूप में प्रयोग यूहत्रा की एक प्रमुख विशेषता है, जैसे-जल, रोटी, ज्योति, चरवाहा और उसकी भेड़ें, तथा दाखलता और उसके फल।

यही है जगत का मसीहा
आप सब को मेरा प्यार भरा प्रभु यीशु मसीह में सलाम-नमस्कार-ये जो पुस्तक है यही है जगत का मसीहा इसमें परमेश्वर के पुत्रा यीशु मसीह के बारे में बताया गया है यीशु परमेश्वर का पुत्रा होने के साथ ही साथ इस जगत का मसीहा भी है परमेश्वर ने इसलिए उसे जगत में भेजा कि वो जगत के लिए अपना प्राण दे और उन्हें पापों से मुक्त करे उनका उद्वार करे ताकि लोग बुराई को छोड़ के एक अच्छा जीवन जीये क्योंकि परमेश्वर नही चाहता कि कोई पाप में फंस कर मरे क्योंकि परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप में अपनी समानता में बनाया है। परमेश्वर को दुःख होता है जब मनुष्य पाप में जीवन व्यतित करता है -इसीलिए उसने अपने एक लौते पुत्रा यीशु मसीह को दे दिया ताकि वो लोगों के पापो के लिए बलि हो जाए और जो कोई उसके लहू पर विश्वास करे कि वो हमारे लिए बहाया गया है और हमारे लिए मारा गया गाडा गया और तीसरे दिन मुरदो में से जी उठा वो अपने पापों और दुखो से मुक्ति पाए क्योंकि पापों के लिए कीमत चुकानी पड़ती है और वो कीमत प्रभु यीशु मसीह ने सारी मनुष्य जाति के लिए चूका दी है अब केवल विश्वास करना है और अपने पापो से उद्वार पाना है-मसीह का मतलब होता है- अभिषिक्त किया हुआ पापो से छुटकारा देने वाला नया जीवन देने वाला शैतान और दुष्टआत्माओ से बचाने वाला परमेश्वर कि बातो को सीखाने वाला अनुग्रह करने वाला माफी देना वाला दया करने वाला सबके बोझ अपने ऊपर लेने वाला -मृत्यु पर जय पाने वाला स्वर्ग का रास्ता बनाने वाला अपने प्राण देके दुसरो के प्राणों को बचाने वाला और भी बहुत सी बाते है जो मसीह के बारे में है। अगर वो सारी इस पुस्तक में लिख दी जाए तो मैं समझता हूँ कि ये पुस्तक संसार में भी नही समाएगी ये बाते केवल इसलिये लिखी गई है कि हम विश्वास करे कि यही परमेश्वर का पुत्रा यीशु मसीह ही जगत का मसीहा है। ;ठतवजीमत त्ंरमेी ज्ञनउंतद्ध  
 
वचन देहधरी हुआ
;यूहÂा 1ः1-18द्ध

1.    आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन परमेश्वर था। 2. यही आदि में परमेश्वर के साथ था। 3. सब कुछ उसी के द्वारा उत्पन्न हुआ है उसमें से कोई भी वस्तु उसके बिना उत्पन्न नहीं हुई। 4. उसमें जीवन था और वह जीवन मनुष्यों की ज्योति था। 5. ज्योति अन्ध्कार में चमकती है, और अन्ध्कार ने उसे ग्रहण न किया।
    6    एक मनुष्य परमेश्वर की ओर से आ उपस्थित हुआ जिसका नाम यूहÂा था। 7. वह गवाही देने आया कि ज्योति की गवाही दे, ताकि सब उसके द्वारा विश्वास लाएँ। 8. वह आप तो वह ज्योति न था, परन्तु उस ज्योति की गवाही देने के लिये आया था।
    9    सच्ची ज्योति जो हर एक मनुष्य को प्रकाशित करती है, जगत में आनेवाली थी। 10. वह जगत में था, और जगत उसके द्वारा उत्पन्न हुआ, और जगत ने उसे नहीं पहिचाना। 11. वह अपने घर आया और उसके अपनों ने उसे ग्रहण नहीं किया। 12. परन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर की सन्तान होने का अध्किार दिया, अर्थात् उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। 13. वे न तो लहू से, न शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं।
    14    और वचन देहधरी हुआ, और अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण होकर हमारे बीच में डेरा किया, और हम ने उसकी ऐसी महिमा देखी, जैसी पिता  के एकलौते की महिमा। 15 यूहÂा ने उसके विषय में गवाही दी, और पुकारकर कहा, ‘‘यह वही है, जिसका मैंने वर्णन किया कि जो मेरे बाद आ रहा है, वह मुझ से बढ़कर है क्योंकि वह मुझ से पहले था।’’ 16 क्योंकि उसकी परिपूर्णता में से हम  सब ने प्राप्त किया अर्थात अनुग्रह पर अनुग्रह। 17 इसलिये कि व्यवस्था तो मूसा के द्वारा दी गई, परन्तु अनुग्रह और सच्चाई यीशु मसीह के द्वारा पहुँची। 18 परमेश्वर को किसी ने कभी नहीं देखा, एकलौता पुत्रा जो पिता की गोद में है, उसी ने उसे प्रगठ किया।






यीशु के जन्म की घोषणा
;लूका 1ः26-38द्ध
26    छठवें महीने में परमेश्वर की ओर से जिब्राईल स्वर्गदूत, गलील के नासरत नगर में, 27 एक कुँवारी के पास भेजा गया जिसकी मंगनी यूसुफ नामक दाऊद के घराने के एक पुरूष से हुई थीः उस कुँवारी का नाम मरियम था। 28 स्वर्गदूत ने उसके पास भीतर आकर कहा, ‘‘आनन्द और जय तेरी हो, जिस पर ईश्वर का अनुग्रह हुआ है ! प्रभु तेरे साथ है!’’ 29 वह उस वचन से बहुत घबरा गई, और सोचने लगी कि यह किस प्रकार का अभिवादन है? 30 स्वर्गदूत ने उससे कहा, ‘‘ हे मरियम, भयभीत न हो, क्योंकि परमेश्वर का अनुग्रह तुझ पर हुआ है। 31 देख, तू गर्भवती होगी, और तेरे एक पुत्रा उत्पन्न होगा, तू उसका नाम यीशु रखना। 32 वह महान् होगा और परमप्रधन का पुत्रा कहलाएगा, और प्रभु परमेश्वर उसके पिता दाऊद का सिंहासन उसको देगा, 33 और वह याकूब के घराने पर सदा राज्य करेगा, और उसके राज्य का अन्त न होगा।’’ 34 मरियम ने स्वर्गदूत से कहा, मैं तो कुँवारी हूँ और पुरूष को जानती ही नही। 35 स्वर्गदूत ने उसको उत्तर दिया, ‘‘पवित्रा आत्मा तुझ पर उतरेगा, और परमप्रधन की सामथ्र्य तुझ पर छाया करेगी, इसलिये वह पवित्रा जो उत्पत्रा होने वाला है, परमेश्वर का पुत्रा कहलाएगा। 36 और देख, तेरी कुटुम्बिनी  इलीशिबा के भी बुढ़ापे में पुत्रा होने वाला है, यह उसका, जो बाँझ कहलाती थी छठवाँ महीना है। 37 क्योंकि जो वचन परमेश्वर की ओर से होता है वह प्रभावरहित नहीं होता।’’ 38 मरियम ने कहा, ‘‘ देख, मैं प्रभु की दासी हूँ, मुझे तेरे वचन के अनुसार हो।’’ तब स्वर्गदूत उसके पास से चला गया।
मरियम का स्तुति -गान
;लूका 1ः46-50द्ध
46 तब मरियम ने कहा,
    ‘‘मेरा प्राण प्रभु की बड़ाई करता है
47 और मेरी आत्मा मेरे उ(ार करने वाले
    परमेश्वर से आन्दित हुई,
48 क्योंकि उसने अपनी दासी की दीनता पर दृष्टि की है,
    इसलिये देखो, अब से सब युग-युग के लोग मुझे ध्न्य कहेंगे,
49 क्योंकि उस शक्तिमान ने मेरे लिये बड़े-
    बड़े काम किए हैं। उसका नाम पवित्रा है,
50 और उसकी दया उन पर, जो उससे डरते हैं,
        पीढ़ी से पीढ़ी तक बनी रहती है।
यीशु का जन्म
;मत्ती 1ः18-25द्ध
18 यीशु मसीह का जन्म इस प्रकार से हुआ, कि जब उसकी माता मरियम की मंगनी यूसुफ के साथ हो गई, तो उनके इक्ट्ठा होने से पहले ही वह पवित्रा आत्मा की ओर से गर्भवती पाई गई। 19 अतः उसके पति यूसुफ ने जो ध्र्मी था और उसे बदनाम करना नहीं चाहता था, उसे चुपके से त्याग देने का विचार किया। 20 जब वह इन बातों के सोच ही में था तो प्रभु का स्वर्गदूत उसे स्वप्न में दिखाई देकर कहने लगा, ‘‘हे यूसुफ! दाऊद की संतान, तू अपनी पत्नी मरियम को अपने यहाँ ले आने से मत डर, क्योंकि जो उसके गर्भ में है, वह पवित्रा आत्मा की ओर से है। 21 वह पुत्रा जनेगी और तू उसका नाम यीशु रखना क्योंकि वह अपने लोगों का उनके पापों से उ(ार करेगा।’’    22 यह सब इसलिए हुआ कि जो वचन प्रभु ने भविष्यद्वक्ता के द्वारा कहा था, वह पूरा होः 23 ‘‘ देखो, एक कुँवारी गर्भवती होगी और एक पुत्रा जनेगी, और उसका नाम इम्मानुएल रखा जाएगा,’’ जिसका अर्थ है- परमेश्वर हमारे साथ । 24 तब यूसुफ नींद से जागकर प्रभु के दूत की आज्ञा के अनुसार अपनी पत्नी को अपने यहाँ ले आया 25 और जब तक वह पुत्रा न जनी तब तक वह उसके पास न गया और उसने उसका नाम यीशु रखा।
                स्वर्गदूतों द्वारा चरवाहों को संदेश
                    ;लूका 2ः8-20द्ध
8 और उस देश में कितने गड़ेरिये थे, जो रात को मैदान में रहकर अपने झुण्ड का पहरा देते थे। 9 और प्रभु का एक दूत उनके पास आ खड़ा हुआ, और प्रभु का तेज उनके चारों ओर चमका, और वे बहुत डर गए। 10 तब स्वर्गदूत ने उनसे कहा, ‘‘ मत डरो, क्योंकि देखो, मैं तुम्हें बड़े आन्नद का सुसमाचार सुनाता हूँ जो सब लोगों के लिये होगा, 11 कि आज दाऊद के नगर में तुम्हारे लिये एक उ(ारकर्ता जन्मा है, और यही मसीह प्रभु है। 12 और इसका तुम्हारे लिये यह पता है कि तुम एक बालक को कपड़े में लिपटा हुआ और चरनी में पड़ा पाओगे।’’ 13 तब एकाएक उस स्वर्गदूत के साथ स्वर्गदूतों का दल परमेश्वर की स्तुति करते हुए और यह कहते दिखाई दिया,
    14 ‘‘ आकाश में परमेश्वर की महिमा और पृथ्वी पर उन मनुष्यों में जिनसे वह प्रसन्न है, शान्ति हो।’’
    15 जब स्वर्गदूत उनके पास से स्वर्ग को चले गए, तो गड़ेरियों ने आपस में कहा, ‘‘ आओ, हम बैतलहम जाकर यह बात जो हुई है, और जिसे प्रभु ने हमें बताया है, देखें।’’ 16 और उन्होंने तुरन्त जाकर मरियम और यूसुफ को, और चरनी में उस बालक को पड़ा देखा। 17 इन्हें देखकर उन्होंने वह बात जो इस बालक के विषय में उनसे कही गई थी, प्रगट की, 18 और सब सुनने वालों ने उन बातों से जो गड़ेरियों ने उनसे कहीं आश्चर्य किया। 19 परन्तु मरियम ये सब बातें अपने मन में रखकर सोचती रही। 20 और गड़ेरिये जैसा उनसे कहा गया था, वैसा ही सब सुनकर और देखकर परमेश्वर की महिमा और स्तुति करते हुए लौट गए।  

यूहÂा बपतिस्मा देनेवाले की गवाही
;यूहÂा 1ः 19-28द्ध
    19    यूहÂा की गवाही यह है, कि जब यहूदियों ने यरूशलेम से याजकों और लेवियों को उससे यह पूछने के लिये भेजा, ‘‘ तू कौन है?’’ 20 तो उसने यह मान लिया और इन्कार नहीं किया, परन्तु मान लिया, ‘‘मैं मसीह नहीं हूँ।’’ 21 तब उन्होंने उससे पूछा, ‘‘ तो फिर कौन है? क्या तू एलिÕयाह है?’’ उसने कहा, ‘‘ मैं नहीं हूँ।’’ ‘‘ फिर तू है कौन? ताकि हम अपने भेजने वालों को उत्तर दें। तू अपने विषय में क्या कहता है?’’ 23 उसने कहा, ‘‘ जैसे यशाायाह भविष्यद्वक्ता ने कहा है: ‘मैं जंगल में एक पुकारनेवाले का शब्द हूँ कि तुम प्रभु का मार्ग सीध करो’। ’’
    24    वे फरीसियों की ओर से भेजे गए थे। 25 उन्होंने उससे यह प्रश्न पूछा, ‘‘ यदि तू न मसीह है, और न एलिÕयाह, और न वह भविष्यद्वक्ता है, तो फिर बपतिस्मा क्यों देता है?’’ 26 यूहÂा ने उनको उत्तर दिया, ‘‘मैं तो जल से बपतिस्मा देता हूँ, परन्तु तुम्हारे बीच में एक व्यक्ति खड़ा है जिसे तुम नहीं जानते। 27 अर्थात् मेरे बाद आनेवाला है, जिसकी जूती का बन्ध् मैं खोलने के योग्य नहीं।’’ 28 ये बातें यरदन के पार बैतनिÕयाह में हुई, जहाँ यूहÂा बपतिस्मा देता था।
    यूहÂा द्वारा यीशु का बपतिस्मा
    ;मत्ती 3ः 13-17द्ध
13 उस समय यीशु गलील से यरदन के किनारे यूहÂा के पास उससे बपतिस्मा लेने आया। 14 परन्तु यूहÂा यह कह कर उसे रोकने लगा, ‘‘ मुझे तो तेरे हाथ से बपतिस्मा लेने की आवश्यकता है, और तू मेरे पास आया है?’’ 15 यीशु ने उसको यह उत्तर दिया, ‘‘अब तो ऐसा ही होने दे, क्योंकि हमें इसी रीति से सब धर्मिकता को पूरा करना उचित है।’’ तब उसने उसकी बात मान ली। 16 और यीशु बपतिस्मा लेकर तुरन्त पानी में से ऊपर आया, और देखो, उसके लिए आकाश खुल गया, और उसने परमेश्वर के आत्मा को कबूतर के समान उतरते और अपने ऊपर आते देखा। 17 और देखो, यह आकाशवाणी हुई: ‘‘ यह मेरा प्रिय पुत्रा है, जिससे मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ।’’

परमेश्वर का मेम्ना
;यूहÂा 1ः 29-34द्ध

    29    दूसरे दिन उसने यीशु को अपनी ओर आते देखकर कहा, ‘‘ देखो, यह परमेश्वर का मेम्ना है जो जगत का पाप उठा ले जाता है। 30 यह वही है जिसके विषय में मैंने कहा था, एक पुरूष मेरे पीछे आता है जो मुझ से श्रेष्ठ है, क्योंकि वह मुझ से पहले था।’’ 31 मैं तो उसे पहिचानता न था, परन्तु इसलिये मैं जल से बपतिस्मा देता हुआ आया कि वह इस्त्राएल पर प्रगट हो जाए।’’ 32 और यूहÂा ने यह गवाही दीः ‘‘ मैंने आत्मा को कबूतर के समान आकाश से उतरते देखा है, और वह उस पर ठहर गया। 33 मैं तो उसे पहिचानता नहीं था, परन्तु जिस ने मुझे जल से बपतिस्मा देने को भेजा, उसी ने मुझ से कहा, ‘जिस पर तू आत्मा को उतरते और ठहरते देखे, वही पवित्रा आत्मा से बपतिस्मा देनेवाला है।’ 34 और मैंने देखा, और गवाही दी है कि यही परमेश्वर का पुत्रा है।’’

यीशु की परीक्षा
;मत्ती 4ः 1-11, 16-17द्ध

4    तब आत्मा यीशु को जंगल में ले गया ताकि इब्लीस से उस की परीक्षा हो। 2 वह चालीस दिन, और चालीस रात, निराहार रहा, तब उसे भूख लगी। 3 तब परखनेवाले ने पास आकर उस से कहा, ‘‘ यदि तू परमेश्वर का पुत्रा है, तो कह दे, कि ये पत्थर रोटियाँ बन जाएँ।’’ 4 यीशु ने उत्तर दियाः ‘‘ लिखा है, ‘मनुष्य केवल रोटी ही से नहीं, परन्तु हर एक वचन से जो परमेश्वर के मुख से निकलता है, जीवित रहेगा।’’
    5 तब इब्लीस उसे पवित्रा नगर में ले गया और मन्दिर के कंगूरे पर खड़ा किया, 6 और उससे कहा, ‘‘ यदि तू परमेश्वर का पुत्रा है, तो अपने आप को नीचे गिरा दे, क्योंकि लिखा हैः ‘वह तेरे विषय में अपने स्वर्गदूतों को आज्ञा देगा, और वे तुझे हाथों-हाथ उठा लेगें, कहीं ऐसा न हो कि तेरे पाँवों में पत्थर से ठेस लगे।’’
    7 यीशु ने उससे कहा, ‘‘यह भी लिखा हैः तू प्रभु अपने परमेश्वर की परीक्षा न कर।’’ 8 फिर इब्लीस उसे एक बहुत ऊँचे पहाड़ पर ले गया और सारे जगत के राज्य और उसका वैभव दिखाकर 9 उससे कहा, ‘‘ यदि तू गिरकर मुझे प्रणाम करे, तो मैं यह सब कुछ तुझे दे दूँगा।’’ 10 तब यीशु ने उससे कहा, ‘‘ हे शैतान दूर हो जा, क्योंकि लिखा हैः ‘ तू प्रभु अपने परमेश्वर को प्रणाम कर, और केवल उसी की उपासना कर।’’ 11 तब शैतान उसके पास से चला गया, और देखो, स्वर्गदूत आकर उसकी सेवा करने लगे। 16 जो लोग अंध्कार में बैठे थे, उन्होंने बड़ी ज्योति देखी, और जो मृत्यु के देश और छाया में बैठे थे, उन पर ज्योति चमकी।’’ 17 उस समय से यीशु ने प्रचार करना और यह कहना आरम्भ किया, ‘‘ मन फिराओ क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आया है।’’
यीशु का रोगियों को चंगा करना
;मत्ती 4ः 23-24द्ध
23 यीशु सारे गलील में फिरता हुआ उन के आराध्नालयों में उपदेश करता, और राज्य का सुसमाचार प्रचार करता और लोगों की हर प्रकार की बीमारी और दुर्बलता को दूर करता रहा। 24 और सारे सीरिया देश में उसका यश फैल गया, और लोग सब बीमारों को, जो नाना प्रकार की बीमारियों  और दुःखों में जकड़े हुए थे, और जिन में दुष्टात्माएँ थी, और मिर्गीवालों और लकवे के रोगियों को, उसके पास लाए और उसने उन्हें चंगा किया।


ध्न्य वचन
;मत्ती 5: 1-12, 17द्ध
वह इस भीड़ को देखकर पहाड़ पर चढ़ गया, और जब बैठ गया तो उसके चेले उसके पास आए। 2 और वह अपना मुँह खोलकर उन्हें यह उपदेश देने लगा। 3 ‘‘ध्न्य हैं वे, जो मन के दीन हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है। 4 ‘‘ध्न्य हैं वे, जो शोक करते हैं, क्योंकि  वे शांति पाएँगे। 5 ‘‘ध्न्य हैं वे, जो नम्र हैं, क्योंकि वे पृथ्वी के अध्किारी होंगे। 6 ‘‘ध्न्य हैं वे, जो धर्मिकता के भूखे और प्यासे हैं, क्योंकि वे तृप्त किए जाएँगे। 7 ‘‘ध्न्य हैं वे, जो दयावन्त हैं, क्योंकि उन पर दया की जाएगी। 8 ‘‘ध्न्य हैं वे, जिन के मन शु( हैं, क्योंकि वे परमेश्वर को देखेंगे। 9 ‘‘ ध्न्य हैं वे, जो मेल कराने वाले हैं, क्योंकि वे परमेश्वर के पुत्रा कहलाएँगे। 10 ‘‘ध्न्य हैं वे, जो धर्मिकता के कारण सताए जाते हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का का है। 11 ‘‘ध्न्य हो तुम, जब मनुष्य मेरे कारण तुम्हारी निन्दा करें, और सताएँ और झूठ बोल बोलकर तुम्हारे विरोध् में सब प्रकार की बुरी बात कहें। 12 तब आनन्दित और मगन होना, क्योंकि तुम्हारे लिये स्वर्ग में बड़ा फल है। इसलिये कि उन्होंने उन भविष्यद्वक्ताओं को जो तुम से पहले थे इसी रीति से सताया था। 17 ‘‘यह न समझो, कि मैं व्यवस्था या भविष्यद्वक्ताओं की पुस्तकें को लोप करने आया हूँ, लोप करने नहीं, परन्तु पूरा करने आया हूँ।
व्यभिचार
;मत्ती 5ः27-29द्ध
27 ‘‘ तुम सुन चुके हो कि कहा गया था, ‘व्यभिचार न करना।’ 28 परन्तु मैं तुम से यह कहता हूँ, कि जो कोई किसी स्त्राी पर कुदृष्टि डाले वह अपने मन में उस से व्यभिचार कर चुका। 29 यदि तेरी दाहिनी आँख तुझे ठोकर खिलाए, तो उसे निकालकर फेंक दे, क्योेंकि तेरे लिये यही भला है कि तेरे अंगों में से एक नष्ट हो जाए और तेरा सारा शरीर नरक में न डाला जाए।
तलाक
;मत्ती 5ः 31-32द्ध
31 ‘‘ यह भी कहा गया था, ‘जो कोई अपनी पत्नी को तलाक देना चाहे तो उसे त्यागपत्रा दे।’ 32 परन्तु मैं तुम से यह कहता हूँ कि जो कोई अपनी पत्नी को व्यभिचार के सिवा किसी और कारण से तलाक दे, तो वह उससे व्यभिचार करवाता है, और जो कोई उस त्यागी हुई से विवाह करे, वह व्यभिचार करता है।



शत्राुओं से प्रेम
;मत्ती 5ः43-48द्ध
43 ‘‘तुम सुन चुके हो कि कहा गया था, ‘अपने पड़ोसी से प्रेम रखना, और अपने बैरी से बैर।’ 44 परन्तु मैं तुमसे यह कहता हूँ कि अपने बैरियों से प्रेम रखो और अपने सतानेवालों के लिए प्रार्थना करो, 45 जिस से तुम अपने स्वर्गीय पिता की सन्तान ठहरोगे क्योंकि वह भले और बुरे दोनों पर अपना सूर्य उदय करता है, और ध्र्मी और अध्र्मी दोनों पर मेंह बरसाता है। 46 क्योंकि यदि तुम अपने प्रेम रखनेवालों ही से प्रेम रखो, तो तुम्हारे लिये क्या फल होगा, क्या महसूल लेनेवाले भी ऐसा ही नहीं करते? 47 ‘‘यदि तुम केवल अपने भाईयों ही को नमस्कार करो, तो कौन सा बड़ा काम करते हो? क्या अन्यजाति भी ऐसा नहीं करते? 48 इसलिये चाहिये कि तुम सि( बनो, जैसा तुम्हारा स्वर्गीय पिता सि( है। 
दान
;मत्ती 6ः 1-4द्ध
‘‘सावधन रहो! तुम मनुष्यों को देखाने के लिये अपने ध्र्म के काम न करो, नही ंतो अपने स्वर्गीय पिता से कुछ भी फल न पाओगे। 2 ‘‘ इसलिये जब तू दान करे, तो अपने आगे तुरही न बजवा, जैसे कपटी, सभाओं और गलियों में करते हैं, ताकि लोग उन की बड़ाई करें। मैं तुम से सच कहता हूँ            कि वे अपना प्रतिफल पा चुके। 3 परन्तु जब तू दान करे, तो जो तेरा दाहिना हाथ करता है, उसे तेरा बायाँ हाथ न जानने पाए। 4 ताकि तेरा दान गुप्त रहें, और तब तेरा पिता जो गुप्त में देखता है, तुझे प्रतिफल देगा।
प्रार्थना
;मत्ती 6ः 9-15द्ध
9 ‘‘ अतः तुम इस रीति से प्रार्थना किया करोः ‘हे हमारे पिता, तू जो स्वर्ग में है, तेरा नाम पवित्रा माना जाए। 10 ‘तेरा राज्य आए। तेरी इच्छा जैसी स्वर्ग में पूरी होती है, वैसे पृथ्वी पर भी हो। 11 ‘हमारी दिन भर की रोटी आज हमें दे। 12 और जिस प्रकार हम ने अपने अपराध्यिो को क्षमा किया है, वैसे ही तू भी हमारे अपराधे को क्षमा कर। 13 ‘और हमें परीक्षा में न ला, परन्तु बुराई से बचा ;क्योंकि राज्य और पराक्रम और महिमा सदा तेरे ही है।’ आमीन।द्ध 14 ‘‘इसलिये यदि तुम मनुष्य के अपराध् क्षमा करोगे, तो तुम्हारा स्वर्गीय पिता भी तुम्हें क्षमा करेगा। 15 और यदि तुम मनुष्यों के अपराध् क्षमा न करोगे, तो तुम्हारा पिता भी तुम्हारे अपराध् क्षमा न करेगा।

उपवास
;मत्ती 6ः 16-18द्ध
16 ‘‘जब तुम उपवास करो, तो कपटियों के समान तुम्हारे मुँह पर उदासी न छाई रहे, क्योंकि वे अपना मुँह बनाए रहते हैं, ताकि लोग उन्हें उपवासी जानें। मैं तुम से सच कहता हूँ कि वे अपना प्रतिफल पा चुके। 17 परन्तु जब तू उपवास करे तो अपने सिर पर तेल मल और मुँह धे, 18 ताकि लोग नहीं परन्तु तेरा पिता जो गुप्त में है, तुझे उपवासी जाने। इस दशा में तेरा पिता जो गुप्त में देखता है, तुझे प्रतिफल देगा।
स्वर्गीय ध्न
;मत्ती 6ः 19-21द्ध
19 ‘‘ अपने लिये पृथ्वी पर ध्न इक्ट्ठा न करो, जहाँ कीड़ा और काई बिगाड़ते हैं, और जहाँ चोर सेंध् लगाते और चुराते हैं। 20 परन्तु अपने लिये स्वर्ग में ध्न इक्ट्ठा करो, जहाँ न तो कीड़ा और न काई बिगाड़ते हैं और जहाँ चोर न सेंध् लगाते और न चुराते हैं। 21 क्योंकि जहाँ तेरा ध्न है वहाँ तेरा मन भी लगा रहेगा।
शरीर की ज्योति
;मत्ती 6ः 22-23द्ध

22 ‘‘ शरीर का दीया आँख हैः इसलिये यदि तेरी आँख निर्मल हो, तो तेरा सारा शरीर भी उजियाला होगा। 23 परन्तु यदि तेरी आँख बुरी हो, तो तेरा सारा शरीर भी अन्ध्यिारा होगा, इस कारण वह उजियाला जो तुझ में है यदि अन्ध्कार हो तो वह अन्ध्कार कैसा बड़ा होगा।
परमेश्वर और ध्न
;मत्ती 6ः 24-26, 31-34द्ध

24 ‘‘ कोई मनुष्य दो स्वामियों की सेवा नहीं कर सकता, क्योंकि वह एक से बैर और दूसरे से प्रेम रखेंगा, या एक से मिला रहेगा और दूसरे को तुच्छ जानेगा। तुम परमेश्वर और ध्न दोनों की सेवा नही कर सकते। 25 इसलिये मैं तुम से कहता हूँ कि अपने प्राण के लिये यह चिन्ता न करना कि हम क्या खाएँगे और क्या पीएँगे। और न अपने शरीर के लिये कि क्या पहिनेंगे। क्या प्राण भोजन से, और शरीर वस्त्रा से बढ़कर नहीं? 26 आकाश के पक्षियों को देखो! वे न बोते हैं, न काटते हैं, और न खत्तों में बटोरते हैं, फिर भी तुम्हारा स्वर्गीय पिता उनको खिलाता है। क्या तुम उनसे अध्कि मूल्य नहीं रखते? 31 ‘‘ इसलिये तुम चिन्ता करके यह न कहना कि हम क्या खाएँगे, या क्या पीएँगे, या क्या पहिनेंगे। 32 क्योंकि अन्यजातीय इन सब वस्तुओं की खोज में रहते हैं, पर तुम्हारा स्वर्गीय पिता जानता है कि तुम्हें इन सब वस्तुओं की आवश्यकता है। 33 इसलिये पहले तुम परमेश्वर के राज्य और उसके ध्र्म की खोज करो तो ये सब वस्तुएँ भी तुम्हें मिल जाएँगी। 34 अतः कल की चिन्ता न करो, क्योंकि कल का दिन अपनी चिन्ता आप कर लेगा, आज के लिये आज ही का दुःख बहुत है।
दोष न लगाओ
;लूका 6ः37,41-42द्ध
37    ‘‘ दोष मत लगाओ, तो तुम पर भी दोष नहीं लगाया जाएगा। दोषी न ठहराओ, तो तुम भी दोषी नहीं ठहराए जाओगे। क्षमा करो, तो तुम्हें भी क्षमा किया जाएगा। 41 तू अपने भाई की आँख के तिनके को क्यों देखता है, और अपनी ही आँख का लट्ठा तुझे नहीं सूझता ? 42 जब तू  अपनी ही आँख का लट्ठा नहीं देखता, तो अपने भाई से कैसे कह सकता है, ‘हे भाई, ठहर जा तेरी आँख से तिनके को निकाल दूँ? है कपटी, पहले अपनी आँख से लट्ठा निकाल, तब जो तिनका तेरे भाई की आँख में है, उसे भली भाँति देखकर निकाल सकेगा।
नम्रता और आतिथ्य-सत्कार
;लूका 14ः 7-14द्ध
7 जब उसने देखा कि आमन्त्रिात लोग कैसे मुख्य-मुख्य जगहें चुन लेते हैं तो एक दृष्टान्त देकर उनसे कहा, 8 ‘‘ जब कोई तुझे विवाह में बुलाए, तो मुख्य जगह में न बैठना, कहीं ऐसा न हो कि उसने तुझ से भी किसी बड़े को नेवता दिया हो, 9 और जिसने तुझे और उसे दोनों को नेवता दिया है, आकर तुझ से कहे, ‘इसको जगह दे,’ और तब तुझे लज्जित होकर सबसे नीची जगह में बैठना पड़े। 10 पर जब तू बुलाया जाए तो सब से नीची जगह जा बैठ कि जब वह, जिसने तुझे नेवता दिया है आए, तो तुझ से कहे, ‘हे मित्रा, आगे बढ़कर बैठ,’ तब तेरे साथ बैठने वालों के सामने तेरी बड़ाई होगी। 11 क्योंकि जो कोई अपने आप को बड़ा बनाएगा, वह छोटा किया जाएगा, और जो कोई अपने आप को छोटा बनाएगा, वह बड़ा किया जाएगा।’’ 12 तब उसने अपने नेवता देनेवाले से भी कहा, ‘‘ जब तू दिन का या रात का भोज करें, तो अपने मित्रों या भाइयों या कुटुम्बियों या ध्नवान पड़ोसियों को न बुला, कहीं ऐसा न हो कि वे भी तुझे नेवता दें, और तेरा बदला हो जाए। 13 परन्तु जब तू भोज करे तो कंगालों, टुण्डों, लंगड़ों और अन्धें को बुला। 14 तब तू ध्न्य होगा, क्योंकि उनके पास तुझे बदला देने को कुछ नहीं, परन्तु तुझे ध्र्मियों के जी उठने पर इस का प्रतिफल मिलेगा।’’
जैसा पेड़ वैसा फल
;लूका 6ः43-45द्ध
43 ‘‘ कोई अच्छा पेड़ नहीं जो निकम्मा फल लाए, और न तो कोई निकम्मा पेड़ है जो अच्छा फल लाए। 44 हर एक पेड़ अपने फल से पहचाना जाता है, क्योंकि लोग झाड़ियों से अंजीर नहीं तोड़ते और न झड़बेरी से अंगूर। 45 भला मनुष्य अपने मन के भले भण्डार से भली बातें निकालता है, और बुरा मनुष्य अपने मन के बुरे भण्डार से बुरी बातें निकालता है, क्योंकि जो मन में भरा है वही उसके मुँह पर आता है।
माँगो तो पाओगे
;मत्ती 7ः 7-8,11द्ध
7 ‘‘ माँगो, तो तुम्हें दिया जाएगा, ढूँढ़ो तो तुम पाओगे, खटखटाओ, तो तुम्हारे लिये खोला जाएगा। 8 क्योंकि जो कोई माँगता है, उसे मिलता है, और जो ढूँढ़ता है, वह पाता है, और जो खटखटाता है, उसके लिये खोला जाएगा। 11 अतः जब तुम बुरे होकर, अपने बच्चों को अच्छी वस्तुएँ देना जानते हो, तो तुम्हारा स्वर्गीय पिता अपने माँगने वालों को अच्छी वस्तुएँ क्यों न देगा?
विध्वा के पुत्रा को जीवन -दान
;लूका 7ः11-17द्ध
11 थोड़े दिन बाद वह नाईन नाम के एक नगर को गया। उसके चेले और बड़ी भीड़ उसके साथ जा रही थी। 12 जब वह नगर के फाटक के पास पहुँचा, तो देखो, लोग एक मुरदे को बाहर लिए जा रहे थे, जो अपनी माँ का एकलौता पुत्रा था, और वह विध्वा थी, और नगर के बहुत से लोग उसके साथ थे। 13 उसे देख कर प्रभु को तरस आया, और उससे कहा, ‘‘मत रो।’’ 14 तब उसने पास आकर अर्थी को छुआ, और उठाने वाले ठहर गए। तब उसने कहा, ‘‘हे जवान, मैं तुझ से कहता हूँ, उठ!’’ 15 तब वह मुरदा उठ बैठा, और बोलने लगा। उसने उसे उसकी माँ को सौंप दिया। 16 इससे सब पर भय छा गया, और वे परमेश्वर की बड़ाई करके कहने लगे, ‘‘हमारे बीच में एक बड़ा भविष्यद्वक्ता उठा है, और परमेश्वर ने अपने लोगों पर कृपा दृष्टि की है।’’ 17 और उसके विष्य में यह बात सारे यहूदिया और आस पास के सारे देश में फैल गई।


बारह वर्ष की रोगी स्त्राी
;मरकुस 5ः 25-34द्ध
25    एक स्त्राी थी, जिसको बारह वर्ष से लहू बहने का रोग था। 26 उसने बहुत वैद्यों से बड़ा दुःख उठाया, और अपना सब माल व्यय करने पर भी उसे कुछ लाभ न हुआ था, परन्तु और भी रोगी हो गई थी। 27 वह यीशु की चर्चा सुनकर भीड़ में उसके पीछे से आई और उसके वस्त्रा को छू लिया, 28 क्योंकि वह कहती थी, ‘‘ यदि मैं उसके वस्त्रा ही को छू लूँगी, तो चंगी हो जाऊँगी।’’29 और तुरन्त उसका लहू बहना बन्द हो गया, और उसने अपनी देह में जान लिया कि मैं उस बीमारी से अच्छी हो गई हूँ। 30 यीशु ने तुरन्त अपने में जान लिया कि मुझ में से सामथ्र्य निकली है, और भीड़ में पीछे फिरकर पूछा, ‘‘मेरा वस्त्रा किसने छुआ?’’ 31 उसके चेलों ने उससे कहा, ‘‘तू देखता है कि भीड़ तुझ पर गिरी पड़ती है, और तू कहता है कि किसने मुझे छुआ?’’32 तब उसने उसे देखने के लिये जिसने यह काम किया था, चारों ओर दृष्टि की। 33 तब वह स्त्राी यह जानकर कि मेरी कैसी भलाई हुई है, डरती और काँपती हुई आई, और उसके पाँवों पर गिरकर  उससे सब हाल सच-सच कह दिया। 34 उसने उससे कहा, ‘‘ पुत्राी, तेरे विश्वास ने तुझे चंगा किया है कुशल से जा, और अपनी इस बीमारी से बची रह।’’
अपनी मृत्यु के विषय यीशु की पुनः भविष्यद्वाणी
;मरकुस 9ः30-32द्ध
30 फिर वे वहाँ से चले, और गलील में होकर जा रहे थे। वह नहीं चाहता था कि कोई जाने, 30 क्योंकि वह अपने चेलों को उपदेश देता और उनसे कहता था, ‘‘ मनुष्य का पुत्रा, मनुष्यों के हाथ में पकड़वाया जाएगा, और वे उसे मार डालेंगे, और वह मरने के तीन दिन बाद जी उठेगा।’’ 32 पर यह बात उन की समझ में नहीं आई, और वे उससे पूछने से डरते थे।
आँध्ी को शान्त करना
;लूका 8ः22-25द्ध
22 फिर एक दिन वह और उसके चेले नाव पर चढ़े, और उसने उनसे कहा, ‘‘ आओ, झील के पार चलें।’’ अतः उन्होंने नाव खोल दी। 23 पर जब नाव चल रही थी, तो वह सो गया और झील पर आँध्ी आई, और नाव पानी से भरने लगी और वे जोखिम में थे। 24 तब उन्होंने पास आकर उसे जगाया, और कहा, ‘‘ स्वामी! स्वामी! हम नाश हुए जाते हैं।’’ तब उसने उठकर आँध्ी को और पानी की लहरों को डाँटा और वे थम गए और चैन हो गया। 25 तब उसने उनसे कहा, ‘‘तुम्हारा विश्वास कहाँ था?’’ पर वे डर गए और अचम्भित होकर आपस में कहने लगे, ‘‘यह कौन है जो आँध्ी और पानी को भी आज्ञा देता है, और वे उसकी मानते हैं?’’



अध्किार
फिर उसने अपने बारह चेलों को पास बुलाकर, उन्हें अशु( आत्माओं पर अध्किार दिया कि उन्हें निकालें और सब प्रकार की बीमारियों और सब प्रकार की दुर्बलताओं को दूर करें। ;मत्ती 10ः1द्ध ‘‘ मैं तुम से सच कहता हूँ जो कुछ तुम पृथ्वी पर बाँधेगे, वह स्वर्ग में बंध्ेगा और जो कुछ तुम पृथ्वी पर खोलोगे, वह स्वर्ग में खुलेगा। 19 फिर मैं तुम से कहता हूँ, यदि तुम में से दो जन पृथ्वी पर किसी बात के लिए एक मन होकर उसे माँगें, तो वह मेरे पिता की ओर से जो स्वर्ग में है, उनके लिए हो जाएगी। 20 क्योंकि जहां दो या तीन मेरे नाम पर इक्ट्ठा होते हैं, वहां मैं उनके बीच में होता हूँ।’’;मत्ती 18ः18-20द्ध वे सत्तर आनन्द करते हुए लौटे और कहने लगे, ‘‘हे प्रभु, तेरे नाम से दुष्टात्मा भी हमारे वश में हैं।’’ 18 उसने उनसे कहा, ‘‘मैं शैतान को बिजली के समान स्वर्ग से गिरा हुआ देख रहा था। 19 देखो, मैं ने तुम्हें साँपों और बिच्छुओं को रौंदने का, और शत्राु की सारी सामथ्र्य पर अध्किार दिया है, और किसी वस्तु से तुम्हें कुछ हानि न होगी। 20 तौभी इससे आनन्दित मत हो कि आत्मा तुम्हारे वश में हैं, परन्तु इस से आनन्दित हो कि तुम्हारे नाम स्वर्ग पर लिखे हैं।’’;लूका 10ः17-20द्ध
सब्त के दिन कुबड़ी स्त्राी को चंगा करना
;लूका 13ः10-17द्ध
10 सब्त के दिन वह एक आराध्नालय में उपदेश कर रहा था। 11 वहाँ एक स्त्राी थी जिसे अठारह वर्ष से एक दुर्बल करने वाली दुष्टात्मा लगी थी, और वह कुबड़ी हो गई थी और किसी रीति से सीध्ी नहीं हो सकती थी। 12 यीशु ने उसे देखकर बुलाया और कहा,‘‘ हे नारी, तू अपनी दुर्बला से छूट गई।’’ 13 तब उसने उस पर हाथ रखे, और वह तुरन्त सीध्ी हो गई और परमेश्वर की बड़ाई करने लगी। 14 इसलिये कि यीशु ने सब्त के दिन उसे अच्छा किया था, आराध्नालय का सरदार रिसियाकर लोगों से कहने लगा, ‘‘छः दिन हैं जिन में काम करना चाहिए, अतः उन ही दिनों में आकर चंगे हो, परन्तु सब्त के दिन में नहीं। ’’ 15 यह सुन कर प्रभु ने उत्तर दिया, ‘‘ हे कपटियों, क्या सब्त के दिन तुम में से हर एक अपने बैल या गदहे को थान से खोलकर पानी पिलाने नहीं ले जाता? 16 तो क्या उचित न था कि यह स्त्राी जो अब्राहम की बेटी है जिसे शैतान ने अठारह वर्ष से बाँध् रखा था, सब्त के दिन इस बन्ध्न से छुड़ाई जाती?’’ 17 जब उसने ये बातें कहीं, तो उसके सब विरोध्ी लज्जित हो गए, और सारी भीड़ उन महिमा के कामों से जो वह करता था, आनन्दित हुई।
यहूदियों का अविश्वास
;यूहÂा 10ः24-39द्ध
24 तब यहूदियों ने उसे आ घेरा और पूछा, ‘‘तू हमारे मन को कब तक दुविध में रखेगा? यदि तू मसीह है तो हम से साफ साफ कह दे।’’ 25 यीशु ने उन्हें उत्तर दिया, ‘‘ मैंने तुम से कह दिया पर तुम विश्वास करते ही नहीं। जो काम मैं अपने पिता के नाम से करता हूँ वे ही मेरे गवाह हैं, 26 परन्तु तुम इसलिये विश्वास नहीं करते क्योंकि मेरे लोगों में से नहीं हो। 27 मेरे लोग मेरा शब्द सुनते हैं, मैं उन्हें जानता हूँ, और वे मेरे पीछे पीछे चलती हैं, 28 और मैं उन्हें अनन्त जीवन देता हूँ। वे कभी नष्ट न होंगी, और कोई उन्हें मेरे हाथ से छीन न लेगा। 29 मेरा पिता, जिसने उन्हें मुझ को दिया है, सब से बड़ा है और कोई उन्हें पिता के हाथ से छीन नहीं सकता। 30 मैं और पिता एक हैं।’’
    31    यहूदियों ने उस पर पथराव करने को फिर पत्थर उठाए। 32 इस पर यीशु ने उनसे कहा, ‘‘ मैं ने तुम्हें अपने पिता की ओर से बहुत से भले काम दिखए है, उन में से किस काम के लिये तुम मुझ पर पथराव करते हो?’’ 33 यहूदियों ने उसको उत्तर दिया, ‘‘ भले काम के लिये हम तुझ पर पथराव नहीं करते परन्तु परमेश्वर की निन्दा करने के कारण , और इसलिये कि तू मनुष्य होकर अपने आप को परमेश्वर बनाता है।’’ 34 यीशु ने उन्हें उत्तर दिया, ‘‘क्या तुम्हारी व्यवस्था में नहीं लिखा है, ‘मैंने कहा, तुम ईश्वर हो’?35 यदि उसने उन्हें ईश्वर कहा जिनके पास परमेश्वर का वचन पहुँचा ;और पवित्राशास्त्रा की  बात असत्य नहीं हो सकतीद्ध, 36 तो जिसे पिता ने पवित्रा ठहराकर जगत में भेजा है, तुम उससे कहते हो, ‘ तू निन्दा करता है,’ इसलिये कि मैं ने कहा, ‘मैं परमेश्वर का पुत्रा हूँं’? 37 यदि मैं अपने पिता के काम नहीं करता, तो मेरा विश्वास न करो। 38 परन्तु यदि मैं करता हूँ, तो चाहे मेरा विश्वास न भी करो, परन्तु उन कामों का तो विश्वास करो, ताकि तुम जानों और समझो कि पिता मुझ में है और मैं पिता में हूँ।’’ 39 तब उन्होंने फिर उसे पकड़ने का प्रयत्न किया परन्तु वह उन के हाथ से निकल गया।
परमेश्वर का पुत्रा सबके लिये
;यूहÂा 3ः16-21द्ध
16    ‘‘ क्योंकि परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम रखा कि उसने अपना एकलौता पुत्रा दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे वह नष्ट न हो, परन्तु अनन्त जीवन पाए। 17 परमेश्वर ने अपने पुत्रा को जगत में इसलिये नहीं भेजा कि जगत पर दण्ड की आज्ञा दे, परन्तु इसलिये कि जगत उसके द्वारा उ(ार पाए। 18 जो उस पर विश्वास करता है, उस पर दण्ड की आज्ञा नहीं होती, परन्तु जो उस पर विश्वास नहीं करता, वह दोषी ठहर चुका, इसलिये कि उसने परमेश्वर के एकलौते पुत्रा के नाम पर विश्वास नहीं किया। 19 और दण्ड की आज्ञा का कारण यह है कि ज्योति जगत में आई है, और मनुष्यों ने अन्ध्कार को ज्योति से अध्कि प्रिय जाना क्योंकि उनके काम बुरे थे। 20 क्योंकि जो कोई बुराई करता है, वह ज्योति से बैर रखता है, और ज्योति के निकट नहीं आता, ऐसा न हो कि उसके कामों पर दोष लगाया जाए। 21 परन्तु जो सत्य पर चलता है, वह ज्योति के निकट आता है, ताकि उसके काम प्रगट हों कि वह परमेश्वर की ओर से किए गए हैं।’’
यीशु के पीछे चलने का अर्थ
;मरकुस 8ः34-38द्ध
34 उसने भीड़ को अपने चेलों समेत पास बुलाकर उनसे कहा, ‘‘ जो कोई मेरे पीछे आना चाहे, वह अपने आपे से इन्कार करे और अपना क्रूस उठाकर, मेरे पीछे हो ले। 35 क्योंकि जो कोई अपना प्राण बचाना चाहे वह उसे खोएगा, पर जो कोई मेरे और सुसमाचार के लिये अपना प्राण खोएगा, वह उसे बचाएगा। 36 यदि मनुष्य सारे जगत को प्राप्त करे और अपने प्राण की हानि उठाए, तो उसे क्या लाभ होगा? 37 मनुष्य अपने प्राण के बदले क्या देगा? 38 जो कोई इस व्यभिचारी और पापी जाति के बीच मुझ से और मेरी बातों से लजाएगा, मनुष्य का पुत्रा भी जब वह पवित्रा दूतों के साथ अपने पिता की महिमा सहित आएगा, तब उस से भी लजाएगा।’’
मजदूर थोड़े हैं
;मत्ती 9ः35-38द्ध
35 यीशु सब नगरों और गाँवों में फिरता रहा और उनके आराध्नालयों में उपदेश करता, और राज्य का सुसमाचार प्रचार करता, और हर प्रकार की बीमारी और दुर्बलता को दूर करता रहा। 36 जब उसने भीड़ को देखा तो उसको लोगों पर तरस आया, क्योंकि वे उन भेड़ों के समान जिनका कोई रखवाला न हो, व्याकुल और भटके हुए से थे। 37 तब उसने अपने चेलों से कहा, ‘‘ पके खेत तो बहुत हैं पर मजदूर थोड़े हैं। 38 इसलिये खेत के स्वामी से विनती करो कि वह अपने खेत काटने के लिए मजदूर भेज दे।’’
दो अंधें को दृष्टिदान
;मत्ती 9ः27-31द्ध
27 जब यीशु वहाँ से आगे बढ़ा, तो दो अंध्े उसके पीछे यह पुकारते हुए चले। हम पर दया कर ! 28 जब वह घर में पहुँचा, तो वे अंध्े उसके पास आए, और यीशु ने उनसे कहा, ‘‘क्या तुम्हें विश्वास है कि मैं यह कर सकता हूँ?’’ उन्होंने उससे कहा, ‘‘हाँ, प्रभु! 29 तब उसने उनकी आँखें छुकर कहा, ‘‘ तुम्हारे विश्वास के अनुसार तुम्हारे लिये हो।’’ 30 और उनकी आँखें खुल गई। यीशु ने उन्हें चिताकर कहा, ‘‘सावधन, कोई इस बात को न जाने।’’ 31 पर उन्होंने निकलकर सारे देश में उसका यश फैला दिया।
ध्नी मनुष्य और निधर््न लाजर
;लूका 16ः19-31द्ध
19 ‘‘ एक ध्नवान मनुष्य था जो बैंजनी कपड़े और मलमल पहिनता और प्रति दिन सुख-विलास और ध्ूम-धम के साथ रहता था। 20 लाजर नाम का एक कंगाल घावों से भरा हुआ उसकी डेवढ़ी पर छोड़ दिया जाता था, 21 और वह चाहता था कि ध्नवान की मेज पर की जूठन से अपना पेट भरे, यहाँ तक कि कुत्ते भी आकर उसके घावों को चाटते थे। 22 ऐसा हुआ कि वह कंगाल मर गया, और स्वर्गदूतों ने उसे लेकर अब्राहम की गोद में पहुँचाया। वह ध्नवान भी मरा और गाड़ा गया, 23 और अधेलोक में उसने पीड़ा में पड़े हुए अपनी आँखें उठाई, और दूर से अब्राहम की गोद में लाजर को देखा। 24 तब उसने पुकार कर कहा, ‘हे पिता अब्राहम, मुझ पर दया करके लाजर को भेज दे, ताकि वह अपनी उँगली का सिरा पानी में भिगोकर मेरी जीभ को ठंडी करे, क्योंकि मैं इस ज्वाला में तड़प रहा हूँ।’ 25 परन्तु अब्राहम ने कहा, ‘ हे पुत्रा, याद कर कि तू अपने जीवन में अच्छी वस्तुएँ ले चुका है, और वैसे ही लाजर बुरी वस्तुएँ परन्तु     अब वह यहाँ शान्ति पा रहा है, और तू तड़प रहा है। 26 इन सब बातों को छोड़ हमारे और तुम्हारे बीच एक भारी गड़हा ठहराया गया है कि जो यहाँ से उस पार तुम्हारे पास जाना चाहें, वे न जा सकें, और न कोई वहाँ से इस पार हमारे पास आ सके।’ 27 उसने कहा, ‘तो हे पिता, मैं तुझ से विनती करता हूँ कि तू उसे मेरे पिता के घर भेज, 28 क्योंकि मेरे पाँच भाई हैं, वह उनके सामने इन बातों की गवाही दे, ऐसा न हो कि वे भी इस पीड़ा की जगह में आएँ।’ 29 अब्राहम ने उससे कहा, ‘उनके पास तो मूसा और भविष्यद्वक्ताओं की पुस्तकें हैं, वे उनकी सुनें।’ 30 उसने कहा, ‘नहीं, हे पिता अब्राहम, पर यदि कोई मरे हुओं में से उनके पास जाए, तो वे मन फिराएँगे।’ 31 उसने उससे कहा, ‘जब वे मूसा और भविष्यद्वक्ताओं की नहीं सुनते, तो यदि मरे हुओं में से कोई जी भी उठे तौभी उसकी नहीं मानेंगे’।’’
कोढ़ के दस रोगियों को चंगा करना
;लूका 17ः12-19द्ध

12 किसी गाँव में प्रवेश करते समय उसे दस कोढ़ी मिले। 13 उन्होंने दूर खड़े होकर ऊँचे शब्द से कहा, ‘‘ हे यीशु, हे स्वामी, हम पर दया कर!’’ 14 उसने उन्हें देखकर कहा, ‘‘जाओ, और अपने आपको याजकों को दिखाओ।’’ और जाते ही जाते वे शु( हो गए। 15 तब उनमें से एक यह देखकर कि मैं चंगा हो गया हूँ, ऊँचे शब्द से परमेश्वर की बड़ाई करता हुआ लौटा, 16 और यीशु के पाँवों पर मुँह के बल गिरकर उसका ध्न्यवाद करने लगा, और वह सामरी था। 17 इस पर यीशु ने कहा,‘‘ क्या दसों शु( न हुए, तो फिर वे नौ कहाँ हैं? 18 क्या इस परदेशी को छोड़ कोई और न निकला जो परमेश्वर की बड़ाई करता?’’ 19 तब उसने उससे कहा, ‘‘उठकर चला जा, तेरे विश्वास ने तुझे चंगा किया है।’’
बालकों को आशीर्वाद
;मरकुस 10ः13-16द्ध
13 फिर लोग बालकों को उसके पास लाने लगे कि वह उन पर हाथ रखे, पर चेलों ने उनको डाँटा। 14 यीशु ने यह देख क्रू( होकर उनसे कहा, ‘‘ बालकों को मेरे पास आने दो और उन्हें मना न करो, क्योंकि परमेश्वर का राज्य ऐसों ही का है। 15 मैं तुम से सच कहता हूँ कि जो कोई परमेश्वर के राज्य को बालक के समान ग्रहण न करे, वह उसमें कभी प्रवेश करने न पाएगा।’’ 16 और उसने उन्हें गोद में लिया, और उन पर हाथ रखकर उन्हें आशीष दी।
जो विरोध् में नहीं, वह पक्ष में
;मरकुस 9ः38-41द्ध
38 तब यूहत्रा ने उससे कहा, ‘‘हे गुरू, हम ने एक मनुष्य को तेरे नाम से दुष्टात्माओं को निकालते देखा और हम उसे मना करने लगे, क्योंकि वह हमारे पीछे नहीं हो लेता था।’’39 यीशु ने कहा, ‘‘ उस को मत मना करो, क्योंकि ऐसा कोई नहीं जो मेरे नाम से सामथ्र्य का काम करे, और जल्दी से मुझे बुरा कह सके, 40 क्योंकि जो हमारे विरोध् में नहीं, वह हमारी ओर है। 41 जो कोई एक कटोरा पानी तुम्हें इसलिये पिलाए कि तुम मसीह के हो तो मैं तुम से सच कहता हूँ कि वह अपना प्रतिफल किसी रीति से न खोएगा।
ध्नी व्यक्ति और अनन्त जीवन
;लूका 18ः18-30द्ध
18 किसी सरदार ने उससे पूछा, ‘‘ हे उत्तम गुरू, अनन्त जीवन का अध्किारी होने के लिये मैं क्या करूँ?’’ 19 यीशु ने उससे कहा, ‘‘तू मुझे उत्तम क्यों कहता है? कोई उत्तम नहीं, केवल एक, अर्थात् परमेश्वर। 20 तू आज्ञाओं को तो जानता हैः ‘व्यभिचार न करना, हत्या न करना, और चोरी न करना, झूठी गवाही न देना, अपने पिता और अपनी माता का आदर करना।’।’’ 21 उसने कहा, ‘‘मैं तो इन सब को लड़कपन ही से मानता आया हूँ।’’ 22 यह सुन यीशु ने उससे कहा, ‘‘ तुझ में अब भी एक बात की घटी है, अपना सब कुछ बेचकर कंगालों को बाँट दे, और तुझे स्वर्ग में ध्न मिलेगा, और आकर मेरे पीछे हो ले।’’ 23 वह यह सुनकर बहुत उदास हुआ, क्योंकि वह बड़ा ध्नी था। 24 यीशु ने उसे देखकर कहा, ‘‘ध्नवानों का परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करना कितना कठिन है! 25 परमेश्वर के राज्य में ध्नवान के प्रवेश करने से, ऊँट का सूई के नाके में से निकल जाना सहज है।’’ 26 इस पर सुनने वालों ने कहा, ‘‘ तो फिर किसका उ(ार हो सकता है?’’ 27 उसने कहा, ‘‘ जो मनुष्य से नहीं हो सकता, वह परमेश्वर से हो सकता है।’’ 28 पतरस ने कहा, ‘‘देख, हम तो घर-बार छोड़कर तेरे पीछे हो लिये हैं।’’ 29 उसने उनसे कहा, ‘‘ मैं तुम से सच कहता हूँ कि ऐसा कोई नहीं जिसने परमेश्वर के राज्य के लिए घर, या पत्नी, या भाईयों, या माता-पिता, या बाल-बच्चों को छोड़कर दिया हो, 30 और इस समय कई गुणा अध्कि न पाए और आने वाले युग में अनन्त जीवन।’’
अपनी मृत्यु के विषय यीशु की तीसरी
;लूका 18ः31-34द्ध
31 फिर उसने बारहों को साथ ले जाकर उनसे कहा, ‘‘देखो, हम यरूशलेम को जाते हैं, और जितनी बातें मनुष्य के पुत्रा के लिये भविष्यद्वक्ताओं के द्वारा लिखी गई हैं, वे सब पूरी होंगी। 32 क्योंकि वह अन्य जातियों के हाथ में सौंपा जाएगा, और वे उसे ठट्टों में उड़ाएँगे, और उसका अपमान करेंगे, और उस पर थूकेंगे, 33 और उसे कोड़े मारेंगे, और घात करेंगे, और वह तीसरे दिन जी उठेगा।’’ 34 पर उन्होंने इन बातों में से कोई बात न समझी, और यह बात उनसे छिपी रही, और जो कहा गया था वह उनकी समझ में न आया।
बोझ से दबे लोगों के लिए विश्राम
;मत्ती 11ः25-30द्ध
25 उसी समय यीशु ने कहा, ‘‘ हे पिता, स्वर्ग और पृथ्वी के प्रभु, मैं तेरा ध्न्यवाद करता हूँ कि तू ने इन बातों को ज्ञानियों और समझदारों से छिपा रखा, और बालकों पर प्रगट किया है। 26 हाँ, हे पिता, क्योंकि तुझे यही अच्छा लगा। 27 ‘‘मेरे पिता ने मुझे सब कुछ सौंपा है, और कोई पुत्रा को नहीं जानता, केवल पिता, और कोई पिता को नहीं जानता, केवल पुत्रा, और वह जिस पर पुत्रा उसे प्रगट करना चाहे। 28 ‘‘हे सब परिश्रम करने वालो और बोझ से दबे हुए लोगो, मेरे पास आओ, मैं तुम्हें विश्राम दूँगा। 29 मेरा जूआ अपने ऊपर उठा लो, और मुझ से सीखो, क्योंकि मैं नम्र और मन में दीन हूँ: और तुम अपने मन में विश्राम पाओगे। 30 क्योंकि मेरा जूआ सहज और मेरा बोझ हलका है।
गत्रोसरत में रोगियों को चंगा करना
;मत्ती 14ः34-36द्ध
34 वे पार उतरकर गत्रोसरत में पहुँचे। 35 वहाँ के लोगों ने उसे पहचान लिया और आस-पास के सारे देश में समाचार भेजा, और सब बीमारों को उसके पास लाए, 36 और उससे विनती करने लगे कि वह उन्हें अपने वस्त्रा के आँचल ही को छूने दे, और जितनों ने उसे छुआ, वे चंगे हो गए।
मनुष्य को अशु( करने वाली बातें
;मरकुस 7ः14-23द्ध
14 तब उसने लोगों को अपने पास बुलाकर उनसे कहा, ‘‘ तुम सब मेरी सुनो, और समझो। 15 ऐसी कोई वस्तु नहीं जो मनुष्य में बाहर से समाकर उसे अशु( करे, परन्तु जो वस्तुएँ मनुष्य के भीतर से निकलती हैं, वे ही उसे अशु( करती हैं। 16 यदि किसी के सुनने के कान हों तो सुन ले।’’ 17 जब वह भीड़ के पास से घर में गया, तो उसके चेलों ने इस दृष्टान्त के विषय में उस से पूछा। 18 उसने उनसे कहा, ‘‘क्या तुम भी ऐसे नासमझ हो? क्या तुम नहीं समझते कि जो वस्तु बाहर से मनुष्य के भीतर जाती है, वह उसे अशु( नहीं कर सकती? 19 क्योंकि वह उसके मन में नहीं, परन्तु पेट में जाती है और संडास में निकल जाती है?’’ यह कहकर उसने सब भोजन वस्तुओं को शु( ठहराया। 20 फिर उसने कहा, ‘‘जो मनुष्य में से निकलता है, वही मनुष्य को अशु( करता है। 21 क्योंकि भीतर से, अर्थात् मनुष्य के मन से, बुरे बुरे विचार, व्यभिचार, चोरी, हत्या, परस्त्राीगमन, 22 लोभ, दुष्टता, छल, लुचपन, कुदृष्टि, निन्दा, अभिमान, और मूर्खता निकलती हैं। 23 ये सब बुरी बातें भीतर ही से निकलती हैं और मनुष्य को अशु( करती हैं।’’
पतरस का विश्वास
;यूहÂा 6ः66-71द्ध

    66    इस पर उसके चेलों में से बहुत से उल्टे फिर गए और उसके बाद उसके साथ न चले। 67 तब यीशु ने उन बारहों से कहा, ‘‘ क्या तुम भी चले जाना चाहते हो?’’ 68 शमौन पतरस ने उसको उत्तर दिया, ‘‘ हे प्रभु, हम किसके पास जाएँ? अनन्त जीवन की बातें तो तेरे ही पास हैं, 69 और हम ने विश्वास किया और जान गए हैं कि परमेश्वर का पवित्रा जन तू ही है।’’ 70 यीशु ने उन्हें उत्तर दिया, ‘‘क्या मैंने तुम बारहों को नहीं चुना? तौभी तुम में से एक व्यक्ति शैतान है।’’ 71 यह उसने शमौन इस्करियोती के पुत्रा यहूदा के विषय में कहा था, क्यांेकि वही जो बारहों में से एक था, उसे पकड़वाने को था।


पतरस का यीशु को ‘मसीह’ स्वीकार करना
;मत्ती 16ः 13-19द्ध
13 यीशु कैसरिया फिलिप्पी के प्रदेश में आया, और अपने चेलों से पूछने लगा, ‘‘ लोग मनुष्य के पुत्रा को क्या कहते हैं?’’ 14 उन्होंने कहा, ‘‘कुछ तो यूहÂा बपतिस्मा देनेवाला कहते हैं, और कुछ एलिÕयाह, और कुछ यिर्मयाह या भविष्यद्वक्ताओं में से कोई एक कहते हैं।’’15 उसने उनसे कहा, ‘‘परन्तु तुम मुझे क्या कहते हो?’’16 शमौन पतरस ने उत्तर दिया, ‘‘तू जीवते परमेश्वर का पुत्रा मसीह है।’’ 17 यीशु ने उसको उत्तर दिया, ‘‘हे शमौन, योना के पुत्रा, तू ध्न्य है, क्योंकि मांस और लहू ने नहीं, परन्तु मेरे पिता ने जो स्वर्ग में है, यह बात तुझ पर प्रगट की है। 18 और मैं भी तुझ से कहता हूँ कि तू पतरस है, और मैं इस पत्थर पर अपनी कलीसिया बनाऊँगा, और अधेलोक के फाटक उस पर प्रबल न होंगे। 19 मैं तुझे स्वर्ग के राज्य की कुंजियाँ दूँगा और जो कुछ तू पृथ्वी पर बाँध्ेगा, वह स्वर्ग में बंध्ेगा, और जो कुछ तू पृथ्वी पर खोलेगा, वह स्वर्ग में खुलेगा।’’
व्यभिचारिणी को क्षमा
;यूहÂा 8ः2-11-12द्ध
    2 भोर को वह फिर मन्दिर में आया, सब लोग उसके पास आए और वह बैठकर उन्हें उपदेश देने लगा। 3 तब शास्त्राी और फरीसी एक स्त्राी को लाए जो व्यभिचार में पकड़ी गई थी, और उसको बीच में खड़ा करके यीशु से कहा, 4 ‘‘ हे गुरू यह स्त्राी व्यभिचार करते पकड़ी गई है। 5 व्यवस्था में मूसा ने हमें आज्ञा दी है कि ऐसी स्त्रिायों पर पथराव करें। अतः तू इस स्त्राी के विषय में क्या कहता है?’’ 6 उन्होंने उसको परखने के लिये यह बात कही ताकि उस पर दोष लगाने के लिये कोई बात पाएँ। परन्तु यीशु झुककर उँगली से भूमि पर लिखने लगा। 7 जब वे उससे पूछते ही रहे, तो उसने सीध्े होकर उनसे कहा, ‘‘ तुम में जो निष्पाप हो, वही पहले उसको पत्थर मारे।’’ 8 और फिर झुककर भूमि पर उँगली से लिखने लगा। 9 परन्तु वे यह सुनकर बड़ों से लेकर छोटों तक, एक एक करके निकल गए, और यीशु अकेला रह गया, और स्त्राी वहीं बीच में खड़ी रह गई। 10 यीशु ने सीध्े होकर उससे कहा, ‘‘ हे नारी, वे कहाँ गए? क्या किसी ने तुझ पर दण्ड की आज्ञा न दी?’’ 11 उसने कहा, ‘‘ हे प्रभु, किसी ने नहीं।’’ यीशु ने कहा, ‘‘ मैं भी तुझ पर दण्ड की आज्ञा नहीं देता, जा, और फिर पाप न करना।’’
यीशु जगत की ज्योति
12    यीशु ने फिर लोगों से कहा, ‘‘ जगत की ज्योति मैं हूँ, जो मेरे पीछे हो लेगा वह अन्ध्कार में न चलेगा, परन्तु जीवन की ज्योति पाएगा।’’

पवित्रा आत्मा की प्रतिज्ञा
;यूहÂा 14ः15-19, 25-27, 15ः7,12,13द्ध

    15    ‘‘ यदि तुम मुझ से प्रेम रखते हो, तो मेरी आज्ञाओं को मानोगे। 16 मैं पिता से विनती करूँगा, और वह तुम्हें एक और सहायक देगा कि वह सर्वदा तुम्हारे साथ रहे। 17 अर्थात् सत्य का आत्मा, जिसे संसार ग्रहण नहीं कर सकता, क्योंकि वह न उसे देखता है और न उसे जानता है, तुम उसे जानते हो, क्योंकि वह तुम्हारे साथ रहता है, और वह तुम में होगा।
    18    ‘‘ मैं तुम्हे अनाथ नहीं छोडूँगा, मैं तुम्हारे पास आता हूँ। 19 और थोड़ी देर रह गई है कि फिर संसार मुझे न देखेगा, परन्तु तुम मुझे देखोगे, इसलिये कि मैं जीवित हूँ, तुम भी जीवित रहोगे।
 25 ‘‘ ये बातें मैं ने तुम्हारे साथ रहते हुए तुम से कहीं। 26 परन्तु सहायक अर्थात् पवित्रा आत्मा जिसे पिता मेरे नाम से भेजेगा, वह तुम्हें सब बातें सिखाएगा, और जो कुछ मैं ने तुम से कहा है, वह सब तुम्हें स्मरण कराएगा। 27 मैं तुम्हें शान्ति दिए जाता हूँ, अपनी शान्ति तुम्हें देता हूँ, जैसे संसार देता है, मैं तुम्हें नहीं देता: तुम्हारा मन व्याकुल न हो और न डरे।
7 यदि तुम मुझ में बने रहो और मेरा वचन तुम में बना रहे, तो जो चाहो माँगो और वह तुम्हारे लिये हो जाएगा। 12‘‘मेरी आज्ञा यह है, कि जैसा मैं ने तुम से प्रेम रखा, वैसा ही तुम भी एक दूसरे से प्रेम रखो। 13 इससे बड़ा प्रेम किसी का नहीं कि कोई अपने मित्रों के लिये अपना प्राण दे।
यीशु का प्राण देना फिर लेना
;यूहÂा 10ः17-18द्ध

17 पिता इसलिये मुझ से प्रेम रखता है कि मैं अपना प्राण देता हूँ कि उसे फिर ले लूँ। 18 कोई उसे मुझ से छीनता नहीं, वरन् मैं उसे आप ही देता हूँ। मुझे उसके देने का भी अध्किार है, और उसे फिर ले लेने का भी अध्किार हैः  यह आज्ञा मेरे पिता से मुझे मिली है।’’
हेरोदेस की शत्राुता
;लूका 13ः31-33द्ध
31 उसी घड़ी कुछ फरीसियों ने आकर उससे कहा, ‘‘ यहाँ से निकलकर चला जा, क्योंकि हेरोदेस तुझे मार डालना चाहता है।’’ 32 उसने उनसे कहा, ‘‘जाकर उस लोमड़ी से कह दो कि देख, मैं आज और कल दुष्टात्माओं को निकालता और बीमारों को चंगा करता हूँ, और तीसरे दिन अपना कार्य पूरा करूँगा। 33 तौभी मुझे आज और कल और परसों चलना अवश्य है, क्योंकि हो नही सकता कि कोई भविष्यद्वक्ता यरूशलेम के बाहर मारा जाए।
ध्न्य कौन है?
;लूका 11ः27-28द्ध
27 जब वह ये बातें कह ही रहा था तो भीड़ में से किसी स्त्राी ने ऊँचे शब्द से कहा, ‘‘ ध्न्य है वह गर्भ जिसमें तू रहा और वो छाती जिससे तूने दूध् पिया। 28 उसने कहा, ‘‘हाँ, परन्तु ध्न्य वे हैं जो परमेश्वर का वचन सुनते और मानते हैं।’’
मन्दिर के विनाश की भविष्यद्वाणी
;मत्ती 24ः1-2द्ध
जब यीशु मन्दिर से निकलकर जा रहा था, तो उसके चेले उसको मन्दिर की रचना दिखाने के लिये उसके पास आए। 2 उसने उनसे कहा, ‘‘ तुम यह सब देख रहे हो न! मैं तुम से सच कहता हूँ, यहाँ पत्थर पर पत्थर भी न छूटेगा जो ढाया न जाएगा।
संकट और क्लेश
;मत्ती 24ः3-14द्ध
3 जब वह जैतून पहाड़ पर बैठा था, तो चेलों ने एकान्त में उसके पास आकर कहा, ‘‘हमें बता कि ये बातें कब होंगी? तेरे आने का और जगत के अन्त का क्या चिर् िंहोगा?’’ 4 यीशु ने उनको उत्तर दिया, ‘‘सावधन रहो! कोई तुम्हें न भरमाने पाए, 5 क्योंकि बहुत से ऐसे होंगे जो मेरे नाम से आकर कहेंगे, ‘मैं मसीह हूँ’ और बहुतों को भरमाएँगे। 6 तुम लड़ाइयों और लड़ाइयों की चर्चा सुनोगे, तो घबरा न जाना क्योंकि इनका होना अवश्य है, परन्तु उस समय अन्त न होगा। 7 क्योंकि जाति पर जाति, और राज्य पर राज्य चढ़ाई करेगा, और जगह जगह अकाल पड़ेंगे, और भूकम्प होंगे। 8 ये सब बातें पीड़ाओं का आरम्भ होंगी। 9 तब वे क्लेश देने के लिये तुम्हें पकड़वाएँगे, और तुम्हें मार डालेंगे, और मेरे नाम के कारण सब जातियों के लोग तुम से बैर रखेंगे। 10 तब बहुत से ठोकर खाएँगे, और एक दूसरे को पकड़वाएँगे, और एक दूसरे से बैर रखेंगे। 11 बहुत से झूठे भविष्यद्वक्ता उठ खड़े होंगे, और बहुतों को भरमाएँगे। 12 अध्र्म के बढ़ने से बहुतों का प्रेम ठण्डा पड़ जाएगा, 13 परन्तु जो अन्त तक ध्ीरज ध्रे रहेगा, उसी का उ(ार होगा। 14 और राज्य का यह सुसमाचार सारे जगत में प्रचार किया जाएगा कि सब जातियों पर गवाही हो, तब अन्त आ जाएगा।
महासंकट का आरम्भ
;मत्ती 24ः16-27द्ध
16 तब जो यहूदिया में हों वे पहाड़ों पर भाग जाएँ। 17 जो छत पर हो, वह अपने घर में से सामान लेने को न उतरे, 18 और जो खेत में हो, वह अपना कपड़ा लेने को पीछे न लौटे। 19 उन दिनों में जो गर्भवती और दूध् पिलाती होंगी, उन के लिये हाय, हाय। 20 प्रार्थना किया करो कि तुम्हें जाड़े में या सब्त के दिन भागना न पड़े। 21 क्योंकि उस समय ऐसा भारी क्लेश होगा, जैसा जगत के आरम्भ से न अब तक हुआ और न कभी होगा। 22 यदि वे दिन घटाए न जाते तो कोई प्राणी न बचता, परन्तु चुने हुओं के कारण वे दिन घटाए जाएँगे। 23 उस समय यदि कोई तुम से कहे, ‘देखो, मसीह यहाँ है।’ या ‘वहाँ है!’ तो विश्वास न करना। 24 क्योंकि झूठे मसीह और झूठे भविष्यद्वक्ता उठ खड़े होंगे और बड़े चिर्,िं और अद्भुत काम दिखाएँगे कि यदि हो सके तो चुने हुओं को भी भरमा दें। 25 देखो, मैं ने पहले से तुम से यह सब कुछ कह दिया है। 26 इसलिये यदि वे तुम से कहें, ‘देखो, वह जंगल में है’, तो बाहर न निकल जाना, या ‘देखो, वह कोठरियों में है,’ तो विश्वास न करना। 27 क्योंकि जैसे बिजली पूर्व से निकलकर पश्चिम तक चमकती है, वैसे ही मनुष्य के पुत्रा का भी  आना होगा।
मनुष्य के पुत्रा का पुनरागमन
;मत्ती 24ः29-31, 33-35द्ध
29 ‘‘उन दिनों के क्लेश के तुरन्त बाद सूर्य अन्ध्यिारा हो जाएगा, और चन्द्रमा का प्रकाश जाता रहेगा, और तारे आकाश से गिर पड़ेंगे और आकाश की शक्तियाँ हिलाई जाएँगी। 30 तब मनुष्य के पुत्रा का चिर् िंआकाश में दिखाई देगा, और तब पृथ्वी के सब कुलों के लोग छाती पीटेंगे, और मनुष्य के पुत्रा को बड़ी सामथ्र्य और ऐश्वर्य के साथ आकाश के बादलों पर आते देखेंगे। 31 वह तुरही के बड़े शब्द के साथ अपने दूतों को भेजेगा, और वे आकाश के इस छोर से उस छोर तक, चारों दिशाओं से उसके चुने हुओं को इक्टठा करेंगे। 33 इसी रीति से जब तुम इन सब बातों को देखो, तो जान लो कि वह निकट है, वरन् द्वार ही पर है। 34 मैं तुम से सच कहता हूँ कि जब तक ये सब बातें पूरी न हो लें, तब तक इस पीढ़ी का अन्त नहीं होगा। 35 आकाश और पृथ्वी टल जाएँगे, परन्तु मेरी बातें कभी न टलेंगी।
जागते रहो
;मत्ती 24ः36-44द्ध
36 ‘‘उस दिन और उस घड़ी के विषय में कोई नहीं जानता, न स्वर्ग के दूत और न पुत्रा, परन्तु केवल पिता। 37 जैसे नूह के दिन थे, वैसा ही मनुष्य के पुत्रा का आना भी होगा। 38 क्योंकि जैसे जल-प्रलय से पहले के दिनों में, जिस दिन तक कि नूह जहाज पर न चढ़ा, उस दिन तक लोग खाते-पीते थे, और उनमें विवाह होते थे। 39 और जब तक जल-प्रलय आकर उन सब को बहा न ले गया, तब तक उनको कुछ भी मालूम न पड़ा, वैसे ही मनुष्य के पुत्रा का आना भी होगा। 40 उस समय दो जन खेत में होंगे, एक ले लिया जाएगा और दूसरा छोड़ दिया जाएगा। 41 दो स्त्रिायाँ चक्की पीसती रहेंगी, एक ले ली जाएगी और दूसरी छोड़ दी जाएगी। 42 इसलिये जागते रहो, क्योंकि तुम नहीं जानते कि तुम्हारा प्रभु किस दिन आएगा। 43 परन्तु यह जान लो कि यदि घर का स्वामी जानता होता कि चोर किस पहर आएगा तो जागता रहता, और अपने घर में सेंध् लगने न देता। 44 इसलिये तुम भी तैयार रहो, क्योंकि जिस घड़ी के विषय में तुम सोचते भी नहीं हो, उसी घड़ी मनुष्य का पुत्रा आ जाएगा। 

न्याय का दिन
;मत्ती 25ः31-46द्ध 
31 ‘‘ जब मनुष्य का पुत्रा अपनी महिमा में आएगा और सब स्वर्गदूत उसके साथ आएँगे, तो वह अपनी महिमा के सिंहासन पर विराजमान होगा। 32 और सब जातियाँ उसके सामने इक्ट्ठा की जाएँगी, और जैसे चरवाहा भेड़ों को बकरियों से अलग कर देता है, वैसे ही वह उन्हें एक दूसरे से अलग करेगा। 33 वह भेड़ों को अपनी दाहिनी ओर और बकरियों को बाईं ओर खड़ा करेगा। 34 तब राजा अपनी दाहिनी ओर वालों से कहेगा, ‘हे मेरे पिता के ध्न्य लोगो, आओ, उस राज्य के अध्किारी हो जाओ, जो जगत के आदि से तुम्हारे लिये तैयार किया गया है। 35 क्योंकि मैं भूखा था, और तुमने मुझे खाने को दिया, मैं प्यासा था, और तुमने मुझे पानी पिलाया, मैं परदेशी था, और तुम ने मुझे अपने घर में ठहराया, 36 मैं नंगा था, और तुमने मुझे कपड़े पहिनाए, मैं बीमार था, और तुमने मेरी सुध् िली, मैं बन्दीगृह में था, और तुम मुझसे मिलने आए।’ 37 ‘‘ तब ध्र्मी उसको उत्तर देंगे, ‘हे प्रभु, हम ने कब तुझे भूखा देखा और खिलाया? या प्यासा देखा और पानी पिलाया? 38 हमने कब तुझे परदेशी देखा और अपने घर में ठहराया? या नंगा देखा और कपड़े पहिनाए? 39 हमने कब तुझे बीमार या बन्दीगृह में देखा और तुझसे मिलने आए?’ 40 तब राजा उन्हें उत्तर देगा, ‘मैं तुम से सच कहता हूँ कि तुमने जो मेरे इन छोटे से छोटे भाईयों में से किसी एक के साथ किया, वह मेरे ही साथ किया।’ 41 ‘‘ तब वह बाई ओर वालों से कहेगा, ‘हे शापित लोगो, मेरे सामने से उस अनन्त आग में चले जाओ, जो शैतान और उसके दूतों के लिये तैयार की गई है। 42 क्योंकि मैं भूखा था, और तुमने मुझे खाने को नहीं दिया, मैं प्यासा था, और तुमने मुझे पानी नहीं पिलाया, 43 मैं परदेशी था, और तुम ने मुझे अपने घर में नहीं ठहराया, मैं नंगा था, और तुमने मुझे कपड़े नहीं पहिनाए, मैं बीमार और बन्दीगृह में था, और तुमने मेरी सुध् िन ली।’ 44 ‘‘ तब वे उत्तर देंगे, ‘हे प्रभु, हमने तुझे कब भूखा, या प्यासा, या परदेशी, या नंगा, या बीमार, या बन्दीगृह में देखा, और तेरी सेवा टहल न की?’ 45 तब वह उन्हें उत्तर देगा, ‘मैं तुम से सच कहता हूँ कि तुमने जो इन छोटे से छोटों में से किसी एक के साथ नहीं किया, वह मेरे साथ भी नहीं किया।’ 46 और ये अनन्त दण्ड भोगेंगे परन्तु ध्र्मी अनन्त जीवन में प्रवेश करेंगे।’’
यीशु के विरू( षड्यन्त्रा
;मत्ती 26ः1-5द्ध
जब यीशु ये सब बातें कह चुका तो अपने चेलों से कहने लगा, 2 ‘‘ तुम जानते हो कि दो दिन के बाद मनुष्य का पुत्रा क्रूस पर चढ़ाए जाने के लिए पकड़वाया जाएगा।’’ 3 तब प्रधन याजक और प्रजा के पुरनिए काइफा नामक महायाजक के आँगन में इक्ट्ठा हुए, 4 और आपस में विचार करने लगे कि यीशु को छल से पकड़कर मार डालें। 5 परन्तु वे कहते थे ‘‘पर्व के समय नहीं, कहीं ऐसा न हो कि लोगों में बलवा मच जाए।’’

यहूदा इस्करियोती का विश्वासघात
;मत्ती 26ः14-16द्ध

14 तब यहूदा इस्करियोती ने, जो बारह चेलों में से एक था, प्रधन याजकों के पास जाकर कहा, 15 ‘‘यदि मैं उसे तुम्हारे हाथ पकड़वा दूँ तो मुझे क्या दोगे?’’ उन्होंने उसे तीस चाँदी के सिक्के तौलकर दे दिए। 16 और वह उसी समय से उसे पकड़वाने का अवसर ढँूढ़ने लगा।
जैतून के पहाड़ पर यीशु की प्रार्थना
;लूका 22ः39-46द्ध
39 तब वह बाहर निकलकर अपनी रीति के अनुसार जैतून के पहाड़ पर गया, और चेले उसके पीछेे हो लिए। 40 उस जगह पहुँचकर उसने उनसे कहा, ‘‘प्रार्थना करो कि तुम परीक्षा में न पड़ो।’’ 41 और वह आप उनसे अलग एक ढेला फेंकने की दूरी भर गया, और घुटने टेक कर प्रार्थना करने लगा, 42 ‘‘ हे पिता, यदि तू चाहे तो इस कटोरे को मेरे पास से हटा ले, तौभी मेरी नहीं परन्तु तेरी ही इच्छा पूरी हो।’’ 43 तब स्वर्ग से एक दूत उसको दिखाई दिया जो उसे सामथ्र्य देता था। 44 वह अत्यन्त संकट में व्याकुल होकर और भी हार्दिक वेदना से प्रार्थना करने लगा, और उसका पसीना मानो लहू की बड़ी बड़ी बूँदों के समान भूमि पर गिर रहा था। 45 तब वह प्रार्थना से उठा और अपने चेलों के पास आकर उन्हें उदासी के मारे सोता पाया 46 और उनसे कहा, ‘‘क्यों सोते हो? उठो, प्रार्थना करो कि परीक्षा में न पड़ो।’’
यीशु का धेखे से पकड़ा जाना
;मत्ती 26ः47-56द्ध
47 वह यह कह ही रहा था कि यहूदा जो बारहों में से एक था आया, और उसके साथ प्रधन याजकों और लोगों के पुरनियों की ओर से बड़ी भीड़ तलवारें और लाठियाँ लिये हुए आई। 48 उसके पकड़वाने वाले ने उन्हें यह संकेत दिया था ‘‘ जिसको मैं चूम लूँ वही है, उसे पकड़ लेना।’’ 49 और तुरन्त यीशु के पास आकर कहा, ‘‘हे रब्बी , नमस्कार!’’ और उसको बहुत चूमा। 50 यीशु ने उससे कहा, ‘‘हे मित्रा, जिस काम के लिये तू आया है, उसे कर ले।’’ तब उन्होंने पास आकर यीशु पर हाथ डाले और उसे पकड़ लिया। 51 यीशु के साथियों में से एक ने हाथ बढ़ाकर अपनी तलवार खींच ली और महायाजक के दास पर चलाकर उस का कान उड़ा दिया। 52 तब यीशु ने उससे कहा, ‘‘अपनी तलबार म्यान में रख ले क्योंकि जो तलवार चलाते हैं वे सब तलवार से नष्ट किए जाएँगे। 53 क्या तू नहीं जानता कि मैं अपने पिता से विनती कर सकता हूँ, और वह स्वर्गदूतों की बारह पलटन से अध्कि मेरे पास अभी उपस्थित कर देगा? 54 परन्तु पवित्राशास्त्रा की वे बातें कि ऐसा ही होना अवश्य है, कैसे पूरी होंगी?’’ 55 उस समय यीशु ने भीड़ से कहा, ‘‘क्या तुम तलवारें और लाठियाँ लेकर मुझे डाकू के समान पकड़ने के लिये निकले हो? मैं हर दिन मन्दिर में बैठकर उपदेश दिया करता था, और तुम ने मुझे नहीं पकड़ा। 56 परन्तु यह सब इसलिये हुआ है कि भविष्यद्वक्ताओं के वचन पूरे हों।’’तब सब चेले उसे छोड़कर भाग गए।
महासभा के सामने यीशु
;मत्ती 26ः57,59-68द्ध
57 तब यीशु के पकड़नेवाले उसको काइफा नामक महायाजक के पास ले गए, जहाँ शास्त्राी और पुरनिए इक्ट्ठा हुए थे। 59 प्रधन याजक और सारी महासभा यीशु को मार डालने के लिये उसके विरोध् में झूठी गवाही की खोज में थे, 60 परन्तु बहुत से झूठे गवाहों के आने पर भी न पाई। अन्त में दो जन आए, 61 और कहा, ‘इसने कहा है कि मैं परमेश्वर के मन्दिर को ढा सकता हूँ और उसे तीन दिन में बना सकता हूँ।’’ 62 तब महायाजक ने खड़े होकर यीशु से कहा, ‘‘ क्या तू कोई उत्तर नहीं देता? ये लोग तेरे विरोध् में क्या गवाही देते हैं?’’ 63 परन्तु यीशु चुप रहा। तब महायाजक ने उससे कहा, ‘‘मैं तुझे जीवते परमेश्वर की शपथ देता हूँ कि यदि तू परमेश्वर का पुत्रा मसीह है, तो हम से कह दे।’’ 64 यीशु ने उससे कहा, ‘‘तू ने आप ही कह दिया, वरन् मैं तुम से यह भी कहता हूँ कि अब से तुम मनुष्य के पुत्रा को सर्वशक्तिमान के दाहिनी ओर बैठे, और आकाश के बादलों पर आते देखोगे।’’ 65 इस पर महायाजक ने अपने वस्त्रा फाड़े और कहा, ‘‘इसने परमेश्वर की निन्दा की है, अब हमें गवाहों का क्या प्रयोजन? देखो, तुम ने अभी यह निन्दा सुनी है! 66 तुम क्या सोचते हो?’’ उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘ यह वध् होने के योग्य है।’’ 67 तब उन्होंने उसके मुँह पर थूका और उसे घूँसे मारे, दूसरों ने थप्पड़ मार के कहा, 68 ‘‘हे मसीह, हम से भविष्यद्वाणी करके कह कि किसने तुझे मारा?’’
पिलातुस के प्रश्न
;मत्ती 27ः11-14द्ध
11 जब यीशु हाकिम के सामने खड़ा था तो हाकिम ने उससे पूछा, ‘‘क्या तू यहूदियों का राजा है?’’ यीशु ने उससे कहा, ‘‘ तू आप ही कह रहा है।’’ 12 जब प्रधन याजक और पुरनिए उस पर दोष लगा रहे थे, तो उसने कुछ उत्तर नहीं दिया। 13 इस पर पिलातुस ने उससे कहा, ‘‘क्या तू नहीं सुनता कि ये तेरे विरोध् में कितनी गवाहियाँ दे रहे हैं?’’ 14 परन्तु उसने उसको एक बात का भी उत्तर नहीं दिया, यहाँ तक कि हाकिम को बड़ा आश्चर्य हुआ।
मृत्यु -दण्ड की आज्ञा
;मत्ती 27ः15-26द्ध
15 हाकिम की यह रीति थी कि उस पर्व में लोगों के लिये किसी एक बन्दी को जिसे वे चाहते थे, छोड़ देता था। 16 उस समय उनके यहाँ बरअब्बा नामक एक माना हुआ बन्दी था। 17 अतः जब वे इक्ट्ठा हुए, तो पिलातुस ने उनसे कहा, ‘‘ तुम किसको चाहते हो कि मैं तुम्हारे लिये छोड़ दूँ? बरअब्बा को, या यीशु को जो मसीह कहलाता है?’’ 18 क्योंकि वह जानता था कि उन्होंने उसे डाह से पकड़वाया है। 19 जब वह न्याय की गद्दी पर बैठा हुआ था तो उसकी पत्नी ने उसे कहला भेजा,‘‘ तू उस ध्र्मी के मामले में हाथ न डालना, क्योंकि मैंनंे आज स्वप्न में उसके कारण बहुत दुःख उठाया है।’’ 20 प्रधन याजकों और पुरनियों ने लोगों को उभारा कि वे बरअब्बा को माँग लें, और यीशु का नाश कराएँ। 21 हाकिम ने उनसे पूछा, ‘‘इन दोनों में से किस को चाहते हो कि मैं तुम्हारे लिये छोड़ दूँ?’’ उन्होंने कहा, बरअब्बा को।’’22 पिलातुस ने उनसे पूछा, ‘‘ फिर यीशु को, जो मसीह कहलाता है, क्या करूँ?’’ सबने उससे कहा, ‘‘ क्रूस पर चढ़ाया जाए!’’ 23 हाकिम ने कहा, ‘‘क्यों, उसने क्या बुराई की है?’’ परन्तु वे और भी चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगे, ‘‘वह क्रूस पर चढ़ाया जाए।’’ 24 जब पिलातुस ने देखा कि कुछ बन नहीं पड़ता परन्तु इसके विपरीत हुल्लड़ बढ़ता जाता है तो उसने पानी लेकर भीड़ के सामने अपने हाथ धेए और कहा, ‘‘मैं इस ध्र्मी के लहू से निर्दोष हूँ, तुम ही जानो।’’ 25 सब लोगों ने उत्तर दिया, ‘‘ इसका लहू हम पर और हमारी सन्तान पर हो।’’ 26 इस पर उसने बरअब्बा को उनके लिये छोड़ दिया, और यीशु को कोड़े लगवाकर सौंप दिया, कि क्रूस पर चढ़ाया जाए।
सिपाहियों द्वारा यीशु का अपमान
;मत्ती 27ः27-31द्ध
27 तब हाकिम के सिपाहियों ने यीशु को किले में ले जाकर सारी पलटन उसके चारों ओर इक्टठी की, 28 और उसके कपड़े उताकर उसे लाल रंग का बागा पहिनाया, 29 और काँटों का मुकुट गूँथकरह उसके सिर पर रखा, और उसके दाहिने हाथ में सरकण्डा दिया और उसके आगे घुटने टेककर उसे ठट्टो में उड़ाने लगे और कहा, ‘‘हे यहूदियों के राजा, नमस्कार!’’ 30 और उस पर थूका, और वही सरकण्डा लेकर उसके सिर पर मारने लगे। 31 जब वे उसका ठट्टा कर चुके, तो वह बागा उस पर से उतार फिर उसी के कपड़े उसे पहिनाए, और क्रूस पर चढ़ाने के लिये ले चले।
यीशु का क्रूस पर चढ़ाया जाना
;लूका 23ः27-38द्ध
27 लोगों की बड़ी भीड़ उसके पीछे हो ली और उसमें बहुत सी स्त्रिायाँ भी थीं जो उसके लिये छाती-पीटती और विलाप करती थीं। 28 यीशु ने उनकी ओर मुड़कर कहा, ‘‘हे यरूशलेम की पुत्रियों, मेरे लिये मत रोओ, परन्तु अपने और अपने बालकों के लिये रोओ। 29 क्योंकि देखो, वे दिन आते हैं, जिनमें लोग कहेंगे, ‘ध्न्य हैं वे जो बाँझ हैं और वे गर्भ जो न जने और वे स्तन जिन्होंने दूध् न पिलाया।’’ 30 उस समय ‘वे पहाड़ों से कहने लगेंगे कि हम पर गिरो, और टीलों से कि हमें ढाँप लो।’ 31 क्योंकि जब वे हरे पेड़ के साथ ऐसा करते हैं, तो सूखे के साथ क्या कुछ न किया जाएगा?’’32 वे अन्य दो मनुष्यों को भी जो कुकर्मी थे उसके साथ घात करने को ले चले। 33 जब वे उस जगह जिसे खोपड़ी कहते हैं पहुँचे, तो उन्होंने वहाँ उसे और उन कुकर्मियों को भी, एक को दाहिनी और दूसरे को बाई ओर क्रूसों पर चढ़ाया। 34 तब यीशु ने कहा, ‘‘हे पिता, इन्हें क्षमा कर, क्योंकि ये जानते नहीं कि क्या कर रहे हैं।’’ और उन्होंने चिट्ठियां डालकर उसके कपड़े बाँट लिए। 35 लोग खड़े-खड़े देख रहे थे, और सरदार भी ठट्टा कर करके कहते थे ‘‘इसने दूसरों को बचाया, यदि यह परमेश्वर का मसीह है, और उसका चुना हुआ है, तो अपने आप को बचा ले।’’ 36 सिपाही भी पास आकर और सिरका देकर उसका ठट्टा करके कहते थे, 37 ‘‘यदि तू यहूदियों का राजा है, तो अपने आप को बचा!’’ 38 और उसके ऊपर एक दोष-पत्रा भी लगा था। ‘‘यह यहूदियों का राजा है।’’
मन फिराने वाला कुकर्मी
;लूका 23ः39-43द्ध
39 जो कुकर्मी वहाँ लटकाए गए थे, उनमें से एक ने उसकी निन्दा करके कहा, ‘‘क्या तू मसीह नहीं? तो फिर अपने आप को और हमें बचा!’’ 40 इस पर दूसरे ने उसे डाँटकर कहा, ‘‘क्या तू परमेश्वर से भी नहीं डरता? तू भी तो वही दण्ड पा रहा है, 41 और हम तो न्यायानुसार दण्ड पा रहे हैं, क्योंकि हम अपने कामों का ठीक फल पा रहे हैं, पर इसने कोई अनुचित काम नहीं किया।’’ 42 तब उसने कहा, ‘‘हे यीशु, जब तू अपने राज्य में आए, तो मेरी सुध् िलेना।’’ 43 उसने उससे कहा, ‘‘ मैं तुझ से सच कहता हूँ कि आज ही तू मेरे साथ स्वर्गलोक में होगा।
यीशु का प्राण त्यागना
;लूका 23ः44-49द्ध
44 लगभग दो पहर से तीसरे पहर तक सारे देश में अन्ध्यिारा छाया रहा, 45 और सूर्य का उजियाला जाता रहा, और मन्दिर का परदा बीच से फट गया, 46 और यीशु ने बड़े शब्द से पुकार कर कहा, ‘‘हे पिता, मैं अपनी आत्मा तेरे हाथों में सौंपता हूँ।’’ और यह कहकर प्राण छोड़ दिए। 47 सूबेदार ने, जो कुछ हुआ था देखकर परमेश्वर की बड़ाई की, और कहा, ‘‘निश्चय यह मनुष्य ध्र्मी था।’’ 48 और भीड़ जो यह देखने को इक्ट्ठी हुई थी, इस घटना को देखकर छाती पीटती हुई लौट गई। 49 पर उसके सब जान पहचान, और जो स्त्रिायाँ गलील से उसके साथ आई थीं, दूर खड़ी हुई यह सब देख रहीं थीं।
यीशु का गाड़ा जाना
;लूका 23ः53-56द्ध
53 और उसे उतारकर मलमल की चादर में लपेटा, और एक कब्र में रखा, जो चट्टान में खुदी हुई थी, और उसमें कोई कभी न रखा गया था। 54 वह तैयारी का दिन था, और सब्त का दिन आरम्भ होने पर था। 55 उन स्त्रिायों ने जो उसके साथ गलील से आई थी, पीछे पीछे जाकर उस कब्र को देखा, और यह भी कि उसका शव किस रीति से रखा गया है। 56 तब उन्होंने लौटकर सुगन्ध्ति वस्तुएँ और इत्रा तैयार किया, और सब्त के दिन उन्होंने आज्ञा के अनुसार विश्राम किया।
यीशु का पुनरूत्थान
;लूका 24ः1-12द्ध
परन्तु सप्ताह के पहले दिन बड़े भोर को वे उन सुगन्ध्ति वस्तुओं को जो उन्होंने तैयार की थीं, ले कर कब्र पर आई। 2 उन्होंने पत्थर को कब्र पर से लुढ़का हुआ पाया, 3 पर भीतर जाकर प्रभु यीशु का शव न पाया। 4 जब वे इस बात से भौचक्की हो रही थीं तो देखो,दो पुरूष झलकते वस्त्रा पहिने हुए उनके पास आ खड़े हुए। 5 जब वे डर गई और ध्रती की ओर मुँह झुकाए रहीं तो उन्होंने उनसे कहा, ‘‘तुम जीवते को मरे हुओं में क्यों ढँूढती हो? 6 वह यहाँ नहीं, परन्तु जी उठा है। स्मरण करो कि उसने गलील में रहते हुए तुम से कहा था, 7 ‘अवश्य है कि मनुष्य का पुत्रा पापियों के हाथ में पकड़वाया जाए, और क्रूस पर चढ़ाया जाए, और तीसरे दिन जी उठे’।’’ 8 तब उसकी बातें उनको स्मरण आई, 9 और कब्र से लौटकर उन्होंने उन ग्यारहों को, और अन्य सब को, ये सब बातें कह सुनाई। 10 जिन्होंने प्रेरितों से ये बातें कहीं वे मरियम मगदलीनी और योअÂा और याकूब की माता मरियम और उनके साथ की अन्य स्त्रिायाँ भी थीं। 11 परन्तु उनकी बातें उन्हें कहानी सी जान पड़ीं और उन्होंने उनकी प्रतीति न की। 12 तब पतरस उठकर कब्र पर दौड़ा गया, और झुककर केवल कपड़े पड़े देखे, और जो हुआ था उससे अचम्भा करता हुआ अपने घर चला गया।
इम्माऊस के मार्ग पर चेलों के साथ
;लूका 24ः13-35द्ध
13 उसी दिन उनमें से दो जन इम्माऊस नामक एक गाँव को जा रहे थे, जो यरूशलेम से कोई सात मील की दूरी पर था। 14 वे इन सब बातों पर जो हुई थीं, आपस में बातचीत करते जा रहे थे, 15 और जब वे आपस में बातचीत और पूछताछ कर रहे थे, तो यीशु आप पास आकर उनके साथ हो लिया। 16 परन्तु उनकी आँखें ऐसी बन्द कर दी गई थीं कि उसे पहिचान न सके। 17 उसने उन से पूछा, ‘‘ ये क्या बातें हैं, जो तुम चलते चलते आपस में करते हो?’’ वे उदास से खड़े रह गए। 18 यह सुनकर उनमें से क्लियोपास नामक एक व्यक्ति ने कहा, ‘‘क्या तू यरूशलेम में अकेला परदेशी है, जो नहीं जानता कि इन दिनों में उसमें क्या क्या हुआ है?’’19 उसने उनसे पूछा, ‘‘ कौन सी बातें?’’ उन्होंने उस से कहा, ‘‘यीशु नासरी के विषय में जो परमेश्वर और सब लोगों के निकट काम और वचन में सामर्थी भविष्यद्वक्ता था, 20 और प्रधन याजकों और हमारे सरदारों ने उसे पकड़वा दिया कि उस पर मृत्यु की आज्ञा दी जाए, और उसे क्रूस पर चढ़वाया। 21 परन्तु हमें आशा थी कि यही इस्त्राएल को छुटकारा देगा। इन सब बातों के सिवाय इस घटना को हुए तीसरा दिन है, 22 और हम में से कई स्त्रिायों ने भी हमें आश्चर्य में डाल दिया है, जो भोर को कब्र पर गई थीं, 23 और जब उसका शव न पाया तो यह कहती हुई आई कि हम ने स्वर्गदूतों का दर्शन पाया, जिन्होंने कहा कि वह जीवित है। 24 तब हमारे साथियों में से कई एक कब्र पर गए, और जैसा स्त्रिायों ने कहा था वैसा ही पाया, परन्तु उसको न देखा।’’ 25 तब उसने उनसे कहा, ‘‘हे निर्बु(ियों, और भविष्यद्वक्ताओं की सब बातों पर विश्वास करने में मन्दमतियो! 26 क्या अवश्य न था कि मसीह ये दुःख उठाकर अपनी महिमा में प्रवेश करे?’’ 27 तब उसने मूसा से और सब भविष्य-द्वक्ताओं से आरम्भ करके सारे पवित्राशास्त्रा में से अपने विषय में लिखी बातों का अर्थ, उन्हें समझा दिया। 28 इतने में वे उस गाँव के पास पहुँचे जहाँ वे जा रहे थे, और उसके ढंग से ऐसा जान पड़ा कि वह आगे बढ़ना चाहता है। 29 परन्तु उन्होंने यह कहकर उसे रोका, ‘‘ हमारे साथ रह, क्योंकि रात हो चली है और दिन अब बहुत ढल गया है।’’ तब वह उनके साथ रहने के लिये भीतर गया। 30 जब वह उनके साथ भोजन करने बैठा, तो उसने रोटी लेकर ध्न्यवाद किया और उसे तोड़कर उनको देने लगा। 31 तब उनकी आँखें खुल गई, और उन्होंने उसे पहचान लिया, और वह उनकी आँखों से छिप गया। 32 उन्होंने आपस में कहा, ‘‘ जब वह मार्ग में हम से बातें करता था और पवित्राशास्त्रा का अर्थ हमें समझाता था, तो क्या हमारे मन में उत्तेजना न उत्पÂ हुई?’’ 33 वे उसी घड़ी उठकर यरूशलेम को लौट गए, और उन ग्यारहों और उनके साथियों को इक्ट्ठे पाया। 34 वे कहते थे, ‘‘प्रभु सचमुच जी उठा है, और शमौन को दिखाई दिया है।’’ 35 तब उन्होंने मार्ग की बातें उन्हें बता दीं और यह भी कि उन्होंने उसे रोटी तोड़ते समय कैसे पहचाना।
यीशु का चेलों को दिखाई देना
;लूका 24ः36-49द्ध
36 वे ये बातें कह ही रहे थे कि वह आप ही उनके बीच में आ खड़ा हुआ, और उनसे कहा, ‘‘तुम्हें शान्ति मिले।’’ 37 परन्तु वे घबरा गए और डर गए, और समझे कि हम किसी भूत को देख रहे हैं। 38 उसने उनसे कहा, ‘‘ क्यों घबराते हो? और तुम्हारे मन में क्यों सन्देह उठते हैं? 39 मेरे हाथ और मेरे पाँव को देखो कि मैं वही हूँ। मुझे छूकर देखो, क्योंकि आत्मा के हड्डी माँस नहीं होता जैसा मुझ में देखते हो।’’ 40 यह कहकर उसने उन्हें अपने हाथ पाँव दिखाए। 41 जब आनन्द के मारे उनको प्रतीति न हुई, और वे आश्चर्य करते थे, तो उसने उनसे पूछा, ‘‘ क्या यहाँ तुम्हारे पास कुछ भोजन है?’’ 42 उन्होंने उसे भुनी हुई मछली का टुुकड़ा दिया। 43 उसने लेकर उनके सामने खाया। 44 फिर उसने उनसे कहा, ‘‘ये मेरी वे बातें हैं, जो मैं ने तुम्हारे साथ रहते हुए तुम से कही थीं कि अवश्य है कि जितनी बातें मूसा की व्यवस्था और भविष्द्वक्ताओं और भजनों की पुस्तकों में मेरे विषय में लिखी हैं, सब पूरी हों।’’ 45 तब उस ने पवित्राशास्त्रा बूझने के लिये उनकी समझ खोल दी, 46 और उनसे कहा, ‘‘यों लिखा है कि मसीह दुःख उठाएगा, और तीसरे दिन मरे हुओं में से जी उठेगा, 47 और यरूशलेम से लेकर सब जातियों में मन फिराव का और पापों की क्षमा का प्रचार, उसी के नाम से किया जाएगा। 48 तुम इन सब बातों के गवाह हो। 49 और देखो, जिसकी प्रतिज्ञा मेरे पिता ने की है, मैं उसको तुम पर उतारूँगा और जब तक स्वर्ग से सामथ्र्य न पाओ, तब तक तुम इसी नगर में ठहरे रहो।’’
यीशु का स्वर्ग पर जाना
24 परन्तु बारहों में से एक अर्थात् थोमा जब यीशु आया तो उनके साथ न था। 25 जब अन्य चेले उससे कहने लगे, ‘‘हम ने प्रभु को देखा है,’’ तब उसने उनसे कहा, ‘‘ जब तक मैं उसके हाथों में कीलों के छेद न देख लूँ, और कीलों के छेदों में अपनी उँगली न डाल लूँ, और उसके पंजर में अपना हाथ न डाल लूँ, तब तक मैं विश्वास नहीं करूँगा।’’ 26 आठ दिन के बाद उसके चेले फिर घर के भीतर थे, और थोमा उनके साथ था, और द्वार बन्द थे, तब यीशु आया और उनके बीच में खड़े होकर कहा, ‘‘ तुम्हें शान्ति मिले।’’ 27 तब उसने थोमा से कहा, ‘‘अपनी उँगली यहाँ लाकर मेरे हाथों को देख और अपना हाथ लाकर मेरे पंजर में डाल, और अविश्वासी नहीं परन्तु विश्वासी हो।’’ 28 यह सुन थोमा ने उत्तर दिया, ‘‘ हे मेरे प्रभु, हे मेरे परमेश्वर!’’ 29 यीशु ने उससे कहा, ‘‘तू ने मुझे देखा है, क्या इसलिये विश्वास किया है? ध्न्य वे हैं जिन्होंने बिना देखे विश्वास किया।’’ ;यूहÂा 20ः24-29द्ध
यीशु ने उनके पास आकर कहा, ‘‘ स्वर्ग और पृथ्वी का सारा अध्किार मुझे दिया गया है। 19 इसलिये तुम जाओ, सब जातियों के लोगों को चेला बनाओ, और उन्हें पिता, और पुत्रा, और पवित्रा आत्मा के नाम से बपतिस्मा दो, 20 और उन्हें सब बातें जो मैं ने तुम्हें आज्ञा दी है, मानना सिखाओ और देखो, मैं जगत के अन्त तक सदा तुम्हारे संग हूँ।’’;मत्ति 28ः18-20द्ध और उसने उनसे कहा, ‘‘तुम सारे जगत में जाकर सारी सृष्टि के लोगों को सुसमाचार प्रचार करो। 16 जो विश्वास करे और बपतिस्मा ले उसी का उ(ार होगा, परन्तु जो विश्वास न करेगा वह दोषी ठहराया जाएगा 17 विश्वास करने वालों में ये चिर् िंहोंगे कि वे मेरे नाम से दुष्टात्माओं को निकालेंगे, नई नई भाषा बोलेंगे, 18 साँपों को उठा लेंगे, और यदि वे प्राणनाशक वस्तु भी पी जाएँ तौभी उनकी कुछ हानि न होगी, वे बीमारों पर हाथ रखेंगे, और वे चंगे हो जाएँगे।’’;मरकुस 16ः15-18द्ध अतः उन्होंने इक्ट्ठे होकर उससे पूछा, ‘‘ हे प्रभु, क्या तू इसी समय इस्त्राएल को राज्य फेर देगा?’’ 7 उसने उनसे कहा, ‘‘उन समयों या कालों को जानना, जिनको पिता ने अपने ही अध्किार में रखा है, तुम्हारा काम नहीं। 8 परन्तु जब पवित्रा आत्मा तुम पर आएगा तब तुम सामथ्र्य पाओगे, और यरूशलेम और सारे यहूदिया और सामरिया में और पृथ्वी की छोर तक मेरे गवाह होगे।’’ 9 यह कहकर वह उन के देखते-देखते ऊपर उठा लिया गया, और बादल ने उसे उनकी आँखों से छिपा लिया। 10 उसके जाते समय जब वे आकाश की ओर ताक रहे थे, तो देखो, दो पुरूष श्वेता वस्त्रा पहिने हुए उनके पास, आ खड़े हुए, 11 और उनसे कहा, ‘‘हे गलीली पुरूषो, तुम क्यों खड़े आकाश की ओर देख रहे हो? यही यीशु, जो तुम्हारे पास से स्वर्ग पर उठा लिया गया है, जिस रीति से तुम ने उसे स्वर्ग को जाते देखा है उसी रीति से वह फिर आएगा।’’;प्रेरितों 1ः6-11द्ध
इस पुस्तक का उद्देश्य
    30    यीशु ने और भी बहुत से चिन्ह चेलों के सामने दिखाए, जो इस पुस्तक में लिखे नहीं गए, 31 परन्तु ये इसलिये लिखे गए हैं कि तुम विश्वास करो कि यीशु ही परमेश्वर का पुत्रा मसीह है, और विश्वास करके उसके नाम से जीवन पाओ।
जीवन और मृत्यु
और विश्वास बिना उसे प्रसÂ करना अनहोना है, क्योंकि परमेश्वर के पास आनेवाले को विश्वास करना चाहिए कि वह है, और अपने खोजनेवालों को प्रतिफल देता है। ;इब्रानियों 11ः6द्ध यदि तू अपने मुँह से यीशु को प्रभु जानकर अंगीकार करे, और अपने मन से विश्वास करे कि परमेश्वर ने उसे मरे हुओं में से जिलाया, तो तू निश्चय उ(ार पाएगा। 10 क्योंकि धर्मिकता के लिये मन से विश्वास किया जाता है, और उ(ार के लिये मुँह से अंगीकार किया जाता है। 11 क्योंकि पवित्राशास्त्रा यह कहता है, ‘‘ जो उस पर विश्वास करेगा वह लज्जित न होगा।’’13 क्योंकि, ‘‘जो कोई प्रभु का नाम लेगा, वह उ(ार पाएगा।’’17 अतः विश्वास सुनने से और सुनना मसीह के वचन से होता है। ;रोमियों 10ः9-11,13,17द्ध पवित्राशास्त्रा के वचन के अनुसार यीशु मसीह हमारे पापों के लिये मर गया, 4 और गाड़ा गया, और पवित्राशास्त्रा के अनुसार तीसरे दिन जी भी उठा ;1 कुरिन्थियों 15ः3-4द्ध प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास कर, तो तू और तेरा घराना उ(ार पाएगा।’’;प्रेरितों 16ः31द्ध किसी ध्र्मी जन के लिये कोई मरे, यह तो दुर्लभ है, परन्तु हो सकता है किसी भले मनुष्य के लिये कोई मरने का भी साहस करे। 8 परन्तु परमेश्वर हम पर अपने प्रेम की भलाई इस रीति से प्रगट करता है कि जब हम पापी ही थे तभी मसीह हमारे लिये मरा। ;रोमियो 5ः7-8द्ध    ‘‘ क्योंकि परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम रखा कि उसने अपना एकलौता पुत्रा यीशु मसीह दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे वह नष्ट न हो, परन्तु अनन्त जीवन पाए।;यूहÂा 3ः16द्ध प्रेम इस में नहीं कि हम ने परमेश्वर से प्रेम किया, पर इस में है कि उसने हम से प्रेम किया और हमारे पापों के प्रायश्चित के लिये अपने पुत्रा को भेजा। 19 हम इसलिये प्रेम करते हैं कि पहले उसने हम से प्रेम किया। ;1 यूहÂा 4ः10,19द्ध निःसन्देह पृथ्वी पर कोई ऐसा ध्र्मी मनुष्य नहीं जो भलाई ही करे और जिस से पाप न हुआ हो। ;सभोपदेशक 7ः20द्ध इसलिये कि सबने पाप किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित है अर्थात अलग है ;रोमियो 3ः23द्ध इसलिये वे सब प्रकार के अध्र्म, और दुष्टता, और लोभ, और बैरभाव से भर गए, और डाह, और हत्या, और झगड़े, और छल, और ईष्र्या से भरपूर हो गए, और चुगलखोर, 30 बदनाम करनेवाले, परमेश्वर से घृणा करने वाले, दूसरों का अनादर करनेवाले, अभिमानी, डींगमार, बुरी -बुरी बातों के बनानेवाले माता-पिता की आज्ञा न मानने वाले, 31 निर्बु(ि, विश्वासघाती, मयारहित और निर्दय हो गए।;रोमियों 1ः29-31द्ध हाय, यह जाति पाप से कैसी भरी है! यह समाज अध्र्म से कैसा लदा हुआ है! इस वंश के लोग कैसे कुकर्मी हैं, ये बाल-बच्चे कैसे बिगड़े हुए हैं। 5 तुम बलवा कर करके क्यों अध्कि मार खाना चाहते हो।;यशायाह 1ः4-5द्ध धेखा न खाना, ‘‘बुरी संगति अच्छे चरित्रा को बिगाड़ देती है।’’ 34 ध्र्म के लिये जाग उठो और पाप न करो, क्योंकि कुछ ऐसे हैं जो परमेश्वर को नहीं जानते। ;1 कुरिन्थियों 15ः33-34द्ध क्योंकि पाप की मजदूरी तो मृत्यु है, परन्तु परमेश्वर का वरदान हमारे प्रभु मसीह यीशु में अनन्त जीवन है।;रोमियों 6ः23द्ध और जैसे मनुष्यों के लिये एक बार मरना और उसके बाद न्याय का होना नियुक्त है, ;इब्रानियों 9ः27द्ध और सब जातियाँ उसके सामने इक्ट्ठा की जाएँगी, और जैसे चरवाहा भेड़ों को बकरियों से अलग कर देता है, वैसे ही वह उन्हें एक दूसरे से अलग करेगा। 33 वह भेड़ों को अपनी दाहिनी ओर और बकरियों को बाई ओर खड़ा करेगा। 34 तब राजा अपनी दाहिनी ओर वालों से कहेगा, ‘हे मेरे पिता के ध्न्य लोगो, आओ, उस राज्य के अध्किारी हो जाओ, जो जगत के आदि से तुम्हारे लिये तैयार किया गया है। 41 ‘‘तब वह बाई ओर वालों से कहेगा, ‘हे शापित लोगो, मेरे सामने से उस अनन्त आग में चले जाओ, जो शैतान और उसके दूतों के लिये तैयार की गई है। ;मत्ति 25ः32-34,41द्ध मत्यु और अधेलोक आग की झील में डाले गए। यह आग की झील दूसरी मृत्यु है 15 और जिस किसी का नाम जीवन की पुस्तक में लिखा हुआ न मिला, वह आग की झील में डाला गया। ;प्रकाशितवाक्य 20ः14-15द्ध उनकी पीड़ा का ध्ुआँ युगानुयुग उठता रहेंगा ;प्रकाशित 14ः11द्ध इसलिये हम में से हर एक परमेश्वर को अपना अपना लेखा देगा। ;रोमियों 14ः12द्ध धेखा न खाओ, परमेश्वर ठट्टों में नहीं उडाया जाता, क्योंकि मनुष्य जो कुछ बोता है वही काटेगा। ;गलातियो 6ः7द्ध ‘‘ ध्न्य हैं वे जिनके अध्र्म क्षमा हुए, और जिनके पाप ढाँपे गए। 8 ध्न्य है वह मनुष्य जिसे परमेश्वर पापी न ठहराए।’’ ;रोमियों 4ः7-8द्ध ‘‘मन फिराओ, और तुम में से हर एक अपने अपने पापों की क्षमा के लिये यीशु मसीह के नाम से बपतिस्मा ले तो तुम पवित्रा आत्मा का दान पाओगे। 39 क्योंकि यह प्रतिज्ञा तुम, और तुम्हारी सन्तानों, और उन सब दूर-दूर के लोगों के लिये भी है जिनको प्रभु हमारा परमेश्वर अपने पास बुलाएगा।’’ ;प्रेरितो 2ः38-39द्ध यदि हम अपने पापों को मान लें, तो वह हमारे पापों को क्षमा करने और हमंे सब अध्र्म से शु( करने में विश्वासयोग्य और ध्र्मी है। ;1 यूहÂा 1ः9द्ध जो ध्र्म से चलता और सीध्ी बातें बोलता, जो अन्ध्ेर के लाभ से घृणा करता, जो घूस नहीं लेता, जो ख्ूान की बात सुनने से कान बन्द करता, और बुराई देखने से आँख मूँद लेता है। वही ऊँचे स्थानों में निवास करेगा अर्थात् स्वर्ग में। ;यशायाह 33ः15द्ध और ध्र्म का फल शान्ति और उसका परिणाम सदा का चैन और निश्चित रहना होगा।;यशायाह 32ः17द्ध ‘‘मैं वही हूँ जो अपने नाम के निमित्त तेरे अपराधें को मिटा देता हूँ और तेरे पापों को स्मरण न करूँगा। ;यीशुद्ध ;यशायाह 43ः25द्ध कोई निवासी न कहेगा कि मैं रोगी हूँ, और जो लोग उसमें बसेंगे, उनका अध्र्म क्षमा किया जाएगा।;यशायाह 32ः24द्ध अपने को धेकर पवित्रा करो, मेरी आँखों के सामने से अपने बुरे कामों को दूर करो, भविष्य में बुराई करना छोड़ दो, 18 यहोवा परमेश्वर कहता है, ‘‘ तुम्हारे पाप चाहे लाल रंग के हों, तौभी वे हिम के समान उजले हो जाएँगे, और चाहे अर्गवानी रंग के हों, तौभी वे ऊन के समान श्वेत हो जाएँगे।19 यदि तुम आज्ञाकारी होकर मेरी मानो, ;यशायाह 1ः16,18-19द्ध जो कोई यह मान लेता है कि यीशु परमेश्वर का पुत्रा है, परमेश्वर उसमें बना रहता है, और वह परमेश्वर में । ;1 यूहÂा 4ः15द्ध यह बात सच और हर प्रकार से मानने के योग्य है कि मसीह यीशु पापियों का उ(ार करने के लिये जगत में आया। ;1 तीमुथियुस 1ः15द्ध और वही हमारे पापों का प्रायश्चित है, और केवल हमारे ही नहीं वरन् सारे जगत के पापों का भी । ;1 यूहÂा 2ः2द्ध वह आप ही हमारे पापों को अपनी देह पर लिये हुए क्रूस पर चढ़ गया, जिससे हम पापों के लिये मरकर धर्मिकता के लिये जीवन बिताएँ, उसी के मार खाने से हम चंगे हुए। ;1 पतरस 2ः24द्ध क्या तुम नहीं जानते कि तुम परमेश्वर का मन्दिर हो, और परमेश्वर का आत्मा तुम में वास करता है? 17 यदि कोई परमेश्वर के मन्दिर को नष्ट करेगा तो परमेश्वर उसे नष्ट करेगा, क्योंकि परमेश्वर का मन्दिर पवित्रा है, और वह तुम हो। ;1 कुरिन्थियों 3ः16-17द्ध ध्र्मियों से कहो कि उनका भला होगा, क्योंकि वे अपने कामों का फल प्राप्त करेंगे। 11 दुष्ट पर हाय! उसका बुरा होगा, क्योंकि उसके कामों का फल उसको मिलेगा। ;यशायाह 3ः10-11द्ध जो अपने अपराध् छिपा रखता है, उसका कार्य सफल नहीं होता, परन्तु जो उनको मान लेता और छोड़ भी देता है, उस पर दया की जायेगी। 14 जो मनुष्य निरन्तर प्रभु का भय मानता रहता है वह ध्न्य है, परन्तु जो अपना मन कठोर कर लेता है वह विपत्ति में पड़ता है। ;नीतिवचन 28ः13-14द्ध मैं दृढ़ता के साथ कहता हूँ, बुरा मनुष्य निर्दोष न ठहरेगा, परन्तु ध्र्मी का वंश बचाया जाएगा। ;नीतिवचन 11ः21द्ध प्रभु में सदा आनन्दित रहो, मैं फिर कहता हूँ, आनन्दित रहो। 5 तुम्हारी कोमलता सब मनुष्यों पर प्रगट  हो। प्रभु निकट है। 6 किसी भी बात की चिन्ता मत करो, परन्तु हर एक बात में तुम्हारे निवेदन, प्रार्थना और विनती के द्वारा ध्न्यवाद के साथ परमेश्वर के सम्मुख उपस्थित किए जाएँ। 7 तब परमेश्वर की शान्ति, जो सारी समझ से परे है, तुम्हारे हृदय और तुम्हारे विचारों को मसीह यीशु में सुरिक्षत रखेगी। ;फिलिप्पियों 4ः4-7द्ध प्रभु यीशु मसीह का अनुग्रह और परमेश्वर का प्रेम और पवित्रा आत्मा की सहभागिता तुम सबके साथ होती रहे। ;2 कुरिन्थयों 13ः14द्ध
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यीशु मसीह आज भी जीवित है
आप सब को प्रभु यीशु के नाम में जय मसीह की इस पुस्तक में परमेश्वर के पुत्रा मसीह का सुसमाचार और प्रेम के बारे में बताया गया है! प्रभु यीशु ने अन्धे को आँखे दी लगड़ो को चलाया, मुर्दो को जिंदा किया। पापो की क्षमा आदि आज भी प्रभु यीशु ये काम कर रहे है, इससे भी मनोहर और खुशी की बात ये है, कि प्रभु यीशु पुरी मनुष्य जाति के लिए इस संसार में मसीहा बनकर आये, ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे वह नाश न हो परन्तु अनन्त जीवन पाऐ। इस पुस्तक को पढ़े जाने पर प्रभु यीशु आप सबको आशीष दे। - सबको जय मसीह