RADHE RADHE RADHE RADHE RADHE RADHE RADHE RADHE RADHE

Wednesday, 30 November 2011

Sad Guru Baba Devi Sahab

हरि सेती हरिजन बरे, समझ देख मन माहिं ।
कहे कबीर जग हरि विषै, सो हरि हरिजन माहिं ।।
मुल्तान से चल कर बाबा देवी साहब क्वेटा होकर बीच के स्थानों पर उपदेश करते हुए कराँची पहुँचे और वहाँ उनका 'भक्ति' विषय पर व्याख्यान हुआ --
मित्रो ! इस समय मैं आपके सामने एक ऐसे विषय पर कुछ कहना चाहता हूँ कि जिसका वार्तालाप समस्त भूमण्डल के लोगों की जिह्वा पर प्राय: सब समय रहता है; परन्तु वे उस पर तनिक भी ध्यान नहीं देते और उसको एक साधारण वस्तु समझते हैं । मेरी समझ में तो यह एक बहुत ही मूल्यवान् वस्तु है, जिसको सब मतों के साधु पुरुष अपने-अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त करने के लिए एक अत्यावश्यक वस्तु समझते हैं और इसी को वे सिद्धान्तसार जान-मान कर अन्य सिद्धान्तों को इसका दास और सेवक समझते हैं । वे यह भी मानते हैं कि इसकी सहायता के बिना कोई सिद्धान्त नहीं चल सकता और न किसी ऐहिक वा पारलौकिक कार्य में साफल्य प्राप्त हो सकता है । यदि हम इसको एक 'रहस्य' का नाम दें, तो नि:संदेह यह इसका पात्र है; क्योंकि समस्त रहस्यों क रहस्य वह परमेश्वर है, परन्तु यह भी अपने पद में उससे कम नहीं है, किन्तु परमेश्वर और इसमें समानता का सम्बन्ध है और उसमें भी यह अपना प्रथम पद रखता है और परमेश्वर द्वितीय । यदि परमेश्वर ताला है, तो यह उसके खोलने की कुञ्जी है; क्योंकि इसकी सहायता के बिना न तो अब तक किसी को परमेश्वर का रहस्य खुला और न स्रिष्टि-रचना के कारणों का रहस्य किसी के सामने आया । जिस किसी के पास इस सम्पत्ति की थोरी बहुत मात्रा भी होती है, वह उक्त दोनों रहस्यों का ज्ञाता हो जाता है, अन्यथा लाखों मनुष्य परमेश्वर और स्रिष्टि के रहस्यों को बिना जाने ही इस संसार से उठ जाते हैं ।
अब प्रश्न यह है कि इसका क्या नाम है और यह कहाँ है ? इसका नाम भक्ति, इश्क और लव (Love) है । देखने में ये तीनों शब्द अलग हैं; परन्तु इन सबका अर्थ एक ही है । भक्ति कहो, चाहे इश्क अथवा 'लव' । इसमें मेल करा देने का स्वभाव है कि जिसके प्रभाव से दो अलग पदार्थ मिल जाया करते हैं और एक नूतन आक्रिति का निर्माण होकर उसका स्वयं प्रादुर्भाव हो जाता है । आक्रितियाँ छोटी और बरी, इस प्रकार कई भाँति की होती हैं । कुछ आक्रितियाँ इस समय ऐसी विशाल हैं कि जिनको देखते ही हमको उनका ज्ञान हो जाता है कि यह अमुक पदार्थ है । और, कुछ आक्रितियाँ ऐसी छोटी हैं कि उनका ज्ञान हमको सूक्ष्मदर्शक यन्त्र से भी नहीं हो सकता कि यह क्या है । ऐसी दशा में यह गहन विषय किस प्रकार सर्वसाधारण के समझने योग्य हो सकता है ।
इस प्रत्यक्षीकरण से स्पष्ट है कि इन परमाणुऔं पर अवश्य कोई ऐसी वस्तु काम करती है कि जिसका स्वभाव मिलान का है । यदि कोई ऐसी वस्तु काम करने वाली न होती, तो ये कुल शरीर और पिण्ड आदि प्रादुर्भाव में न आते, और न यह इतना विशाल संसार द्रिष्टिगोचर होता । परमाणु से लेकर समस्त संसार तक, सब भक्ति के एक तार में बँधे हुए हैं, किसी प्रकार वे डावाँडोल नहीं हो सकते । यदि इनमें से भक्ति का अंश निकल जावे तो समस्त संसार और इसके परमाणु खुलकर अलग-अलग हो जावें । इससे यह समझ लेना चाहिए कि भक्ति ही समस्त संसार के जीवन का प्राण है, जिससे कि परमाणु से लेकर समस्त शरीर और पिण्ड आदि की स्थिति है ।
यह कुल पिण्ड अर्थात् तारे और नक्षत्र जो आकाश में भरे हुए हैं, भक्तिपूर्ण होकर पूर्व से पश्चिम को चले जा रहे हैं, और अपनी शक्ति अर्थात् प्रकाश और जीवन को किरणों के द्वारा सीधे धरती पर प्रविष्ट कर रहे हैं कि जो उसके जीवन का हेतु है । इस प्रकार भक्ति-भाव से प्रेरित होकर यह प्र्‍थ्वी (धरती) भी सर्वदा नाचती रहती है और अपनी असंख्य शक्ति-धाराओं को रस के रुप में वनस्पतियों में प्रविष्ट कर रही है कि जो उसके जीवन का हेतु है । भक्ति भाव में आकर ही वनस्पति उमर-उमर कर अपनी शक्ति को धाराओं के द्वारा अन्नादि रुप मे पशुओं के अन्दर प्रविष्ट करती है कि जो उसके जीवन का हेतु है और इसी भक्ति में तन्मय होकर पशु अपनी शक्ति को दुग्ध-धाराओं के द्वारा अपने बच्चों मे प्रविष्ट किया करते हैं ।
अब हम इस आश्चर्य में हैं कि यह स्रिष्टि है या कि सर्वव्यापी प्रेमालय है कि जहाँ स्रिष्टि का प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने इष्ट को सामने रखकर प्रेम की धूम मचा रहा है और अपने-अपने प्रेमपात्र में विलीन हो रहा है । यह कुल अन्तकाल तक इतना काम करते हैं कि अपने-अपने प्रेमपात्रों में विलीन हो जाते हैं । देखो, ज्योतिष्मान पदार्थ तारे नक्षत्रादि तो खनिज पदार्थों के आकार को बढाते-बढाते लुप्त होते हैं और खनिज पदार्थ आदि वनस्पतियों के लिये काम करते-करते चल बसते हैं । इसी प्रकार, वनस्पतियाँ पशुओं के काम में आते-आते नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं ।
भक्ति को हम मद्य कहें या क्लोरोफोर्म, क्या कहें और क्या न कहें कि जिसके मद में समस्त संसार डूबा हुआ है । देखो, भक्ति न तो कोई फल है और न कोई मिष्टान्न है तथापि यह ऐसी स्वादयुक्त वस्तु है कि यदि इसका नाम भी कोई जिह्वा पर ले आवे और कहे कि प्रेम ! भक्ति ! तो इसका नाम सुनते ही मनुष्य-ह्र्‍दय में, चाहे वह बालक हो या बुढा और चाहे हो वह युवा, एक तरंग उठती है और संपूर्ण शरीर की नस-नस में प्रविष्ट होकर एक उन्माद (मस्ती) उत्पन्न कर देती है । भक्ति का यह एक विचित्र स्वभाव है कि यह जिसकी ओर अपना थोडा भी मुँह फेरती है कि उसको अपना कर लेती है और वह इसी का पक्षपाती हो जाता है । सेवक की तरह वह हर समय इसके सामने करबद्ध खडा रहता है कि जो आज्ञा हो, उसका पालन करूँ ।
भक्ति ने अपने चमत्कार संसार में डिण्डिम घोष से जता रखा है कि बडे-बडे हिंसक जंतुओं को अपने वश में करके सरकस के खेल में स्त्री और बालकों के समान नचाती, कुदाती और खेल दिखाती है । भक्ति से एक छोटे पद का लेखक (मुहरिर) अथवा चपरासी अपने अधिकारी को ऐसा अनुकूल और अनुग्राहक बना लेता है कि अपनी इच्छा के अनुसार उनसे काम बनवा सके, और सब सरकारी नियम व आज्ञाएँ बसा खडी-खडी देखा करें । भक्ति से ही एक मुनीम या कारिन्दा स्वामी को अपने ऊपर आक्रिष्ट कर लेता है कि उससे यथेष्ट पदार्थ प्राप्त कर सके, और उसके सब भाई-बंधु-संबंधी उस समय सिर पटकते ही रह जाते हैं । यही नहीं, भक्ति से संपूर्ण शक्तियाँ और समस्त देव अपने वश में हो जाते हैं और भक्ति के संकेत व प्रेरणा से वे ऐसे-ऐसे काम करते हैं कि वहाँ मनुष्य की बुद्धि चकरा जाती है और वह उसको चमत्कार, सिद्धि अथ्वा दूसरी भाषा में मौजजा, सहर या जादू का नाम देता है ।
भक्ति के द्वारा परमेश्वर और मनुष्य में एक मेल, स्नेह और संबंध हो जाता है; इस लोक और परलोक के संबंध में आदेश और उपदेश प्रादुर्भाव में आते हैं कि जिनको लोग इलहाम के नाम से पुकारते हैं । भक्ति के द्वारा लोग आगे की होनेवाली बातों को बताते हैं और इसी के द्वारा असंभव संभव और संभव असंभव हो जाते हैं । भक्ति द्वारा जादू के सब आक्रमण और प्रभाव और विविध रोग नष्ट हो जाते हैं । भक्तिमान् पुरुष की ही स्तुति और प्रार्थना स्वीक्रित होती है । भक्ति के द्वारा मनुष्य अत्यन्त समझदार और निर्मल-बुद्धि हो जाता है । भक्तिमान् पुरुष के सामने अर्थशुद्धि (ईमानदारी) और सच्चाई हाथ बाँधे खडी रहती है । भक्ति समस्त संसार का धर्म है और कोई मत, सम्प्रदाय वा पंथ इसकी सहायता के बिना स्थिर नहीं रह सकता । भक्ति में मुख्य विशेषता यह है कि मनुष्य के भीतर परमेश्वर तक का सरल मार्ग खोल देती है, जिससे मनुष्य अपने केन्द्र या लक्ष्य पर पहुँच जाता है और फिर वह कभी नहीं लौटता । सारांश यह कि भक्ति एक ऐसी वस्तु है कि जिसके बिना सांसारिक अथवा पारलौकिक कोई भी कार्य पूर्ण नहीं हो सकता । जो भक्ति-रहस्य से जानकारी रखता है, वही मनुष्य है और जिसका हर्‍दय (heart) भक्ति भावों से रिक्त है, वह पशु ही नहीं; किन्तु उससे भी निक्रिष्ट है ।
अब प्रश्न यह है कि वह भक्ति कि जिसके गुणों का इतने विस्तार से वर्णन किया गया, क्या पदार्थ है? यह स्वयं कोई पुरातन पदार्थ है अथवा किसी से उत्पन्न हुआ है, वह क्या पदार्थ है? स्रिष्टि की उत्पत्ति के प्रारम्भ से अब तक तीन प्रकार के महापुरुष हो चुके हैं, जो बडे बुद्धिमान् और पवित्रात्मा माने जाते हैं, उन्हीं की समझ के ऊपर समस्त संसार में मत, दर्शन, और विज्ञान की आधारशिला रही है । कुछ महापुरुषों का कथन है कि भक्ति मध्य-वस्तु है, जिसमें प्राचीनता या नूतनता का प्रश्न ही नहीं । दूसरे यह विचार रखते हैं कि भक्ति ही स्वयं (परमेश्वर) है, वह किसी से उत्पन्न नहीं हुई है । परमेश्वर और उसमे केवल नाम का भेद है, अन्यथा एक ही वस्तु है । तीसरे अपनी सम्मति यह रखते हैं कि भक्ति एक उत्पत्तिमान् पदार्थ है और वह जीवात्मा से उत्क्रिष्ट परन्तु परमेश्वर से निक्रिष्ट है ।
जब विचार किया जाता है तो यद्यपि देखने में भक्ति की उक्त तीन आक्रितियाँ हैं; परन्तु वास्तव में एक ही पदार्थ हैं; क्योंकि प्रथम सम्मति के अनुसार यदि यह कोई मध्य-वस्तु है तो भी कुछ-कुछ परमेश्वर के समान आदरणीय है कि जो भक्ति का भण्डार है । यदि दूसरे विचारानुसार, भक्ति स्वयं परमेश्वर है तो परमेश्वर ही उसका भण्डार है । यदि तीसरी सम्मति के अनुकूल भक्ति जीवात्मा से ऊपर और परमेश्वर से नीचे है तो भी परमेश्वर उसक केन्द्र है । अन्त मे मुझे यह कहना पडता है कि चाहे भक्ति वस्तु है अथवा स्वयं परमेश्वर और या यह जीवात्मा से कोई उत्क्रिष्ट पद रखती है, इन तीनों अवस्थाओं में गुण समान ही हैं, इससे सिद्ध होता है कि इसका कारण भी एक ही है, अनेक नहीं ।
भक्ति समस्त संसार की जान है और अभी कहीं चली नहीं गई है, अपितु स्रिष्टि के आवरण वस्त्र में छिपकर अपने प्रभावों का रंग दिखा रही है । इस बात को जाँचने के लिए समीपस्थ से समीपस्थ मनुष्य को ही देख लीजिये कि यदि इसमें भक्ति का अंश न होता तो यह संसार में कंकड-पत्थर के समान एक ही स्थान पर पडा रहता । यह भक्ति की ही शक्ति है कि जिससे मनुष्य चल-फिर रहा है और उसके कुल काम हो रहे हैं; क्योंकि प्रत्येक चेष्टा तथा प्रेरणा कि जिससे मनुष्य प्रेरित हो रहा है या उसके कुल कार्य हो रहे हैं, उन सबका एकमात्र हेतु भक्ति ही है । भक्ति वह आवश्यक पदार्थ है कि कोई कार्य चाहे वह लौकिक हो अथवा पारलौकिक; इसके बिना पूर्ण नहीं हो सकता; क्योंकि मनुष्य जिन कामों को करने में पूरे चाव से लगा हुआ है, वे पूर्ण हो जाते हैं और जिन कामों में चाव की कमी है, वह काम पूरे नहीं होते या अधूरे रह जाते हैं ।
तात्पर्य यह कि भक्ति अथवा प्रेम हर एक बात और हर एक काम को पूरा करने के लिए एक अत्यावश्यक वस्तु है और इसी को हर एक काम में सफलता प्राप्त करने के लिए एक विशेष अंग समझा गया है । अत: बुद्धिमान् मनुष्य को किसी काम को आरंभ करने से पूर्व यह देखना चाहिये कि उस कार्य को पूरा करने के योग्य अपने में भक्ति की मात्रा पर्याप्त है या नहीं । यदि है तो उस कार्य को प्रारम्भ करे अन्यथा मौन साध ले और भक्ति की मात्रा प्राप्त करने का प्रयत्न करे । जब भक्ति प्राप्त हो जावेगी तो इसके निर्धारित कार्य स्वत: होते चले जाएंगे ।
अब प्रश्न है कि भक्ति ही लोक और परलोक की प्राप्ति के लिए एक अचूक साधन है तो वह कहाँ है और कैसे प्राप्त हो सकती है ? इस विषय में प्राचीन अथवा अर्वाचीन महात्माओं का यह विचार है कि भक्ति तो सबमें विद्यमान है; परन्तु उसके आगे कुछ ऐसे आवरण लटके हुए हैं कि उसका प्रादुर्भाव नहीं होने देते, अत: ऐसे स्थान पर जाना चाहिए कि जहाँ आवरण को हटाने की विधि बताई जाती है । सन्तों और साधुओं की परिभाषा में ऐसे स्थान को सत्संग कहते हैं और वहाँ भक्ति उत्पन्न करने तथा उसके आगे से आवरण हटाने के लिए क्रियाएँ बताई जाती हैं । वे क्रियाएँ बहुत सरल और साधारण हैं कि जिन पर प्रत्येक मनुष्य आचरण कर सकता है -- प्रथम शरीर-स्वास्थ्य, द्वितीय इन्द्रिय-स्वास्थ्य और त्रितीय आत्म-स्वास्थ्य ।
शरीर-स्वास्थ्य की विधि है कि उसको उचित और पवित्र भोजन से बनाना कि जो भोजन भले लोगों के व्यवहार करने से प्राप्त होता है; क्योंकि शरीर का प्रभाव इन्द्रियों पर पडता है और इन्द्रियों का प्रभाव आत्मा पर कि जिससे परमेश्वर के भजन में अन्तर पड जाता है । यदि शरीर स्वस्थ और सबल ना हो तो उसमें पूर्ण रीति से आन्तरिक शक्तियों और तेज का विकास नहीं होता, और वह समय कि जो ईश्वर-प्रार्थना में लगाया जाता है, कुछ विशेष सफल नहीं होता और जब सफलता नहीं, तो अभ्यासी का उद्येश्य नष्ट हो जाता है ।
अपनी इन्द्रियों और मनोव्रित्तियों को सांसारिक यश, धन के अहंकार, विद्या और कुल के गर्व से सुरक्षित रखना चाहिये; क्योंकि यह सब भक्ति के शत्रु हैं, जहाँ ये रहते हैं, वहाँ से भक्ति दूर भाग जाती है । यदि भक्ति प्रकाश है तो ये सब अन्धकार हैं । जो कोई भक्ति के शत्रुओं को अपने हर्‍दय मे बैठाता है, भक्ति उससे रूठ जाती है । भक्ति के इच्छुकों को यह आवश्यक है कि वे ऐसे लोगों की संगति से दूर रहें जो अपनी वासनाओं के वशीभूत हैं; क्योंकि उनकी संगति हलाहल विष से भी अधिक घातक है । ये लोग ऐसी बातें सुनाते हैं कि जिनसे मनुष्य के उत्तम गुण नष्ट हो जाते हैं और उनमें ईर्ष्या तथा लोभ की अग्नि धधकने लगती है कि जिससे उनका चित्त सर्वदा चिन्तित और व्याकुल रहता है ।
आत्म-स्वास्थ्य इन तीनों इन्द्रियों वाणी, नेत्र और कर्ण के बाहरी तथा भीतरी सदुपयोग से होता है । (१) प्रथम, वाणी को मिथ्याभाषण से बचाकर परमेश्वर की स्तुति-प्रार्थना मे लगाना चाहिये; क्योंकि जो कोई किसी के गुण गाता है तो वह गुण गानेवाले पर प्रसन्न होता है और उससे स्वयमेव प्रेम करने लगता है । अत: जो कोई परमेश्वर के गुण गाता है, परमेश्वर उससे प्रेम करने लगते हैं । जैसे इस समय हम यह कहते हैं -- अमुक पुरुष आपकी बडी प्रशंसा करता है, तो आपका चित्त उस पर प्रसन्न हो जाता है और उसके लिए प्रेम-भाव उमड आते हैं । परमेश्वर को प्रसन्न करने और मनाने के लिये इससे उत्तम मार्ग या प्रयत्न कोई दूसरा नहीं है । संसार को उपदेश या शिक्षा देना और सन्मार्ग पर चलाना भी ईश्वर-गुणगान के अन्तर्गत है, यह तो रहा वाणी का बाहरी सदुपयोग, और भीतरी सदुपयोग यह कि कम बोलना चाहिये, बकवाद से बचकर चुप रहना चाहिये जिससे इसकी कोई चेष्टा न हो ।
(२) द्वितीय, नेत्रेन्द्रिय को संसार के विभिन्न पदार्थों का ध्यानपूर्वक निरीक्षण करने में उपयुक्त करना चाहिये कि जिससे परमेश्वर की शक्ति का ज्ञान होता है और फिलास्फरों (Philosophers) के मस्तिष्कों का पता लगता है, धार्मिक विश्वास में ढ्र्‍ढता (determination) होती है कि हम सीधे मार्ग पर चल रहे हैं कि जिस पर पहले भी लोग चल चुके हैं । यह तो नेत्रेन्द्रियों को बाह्य स्रिष्टि में प्रयुक्त करने की विधि है । नेत्र को आन्तरिक संसार में उपयुक्त करने कि विधि दूसरी है, उसको 'इल्म-वसीरत' के नाम से पुकारते हैं, अर्थात् वह ज्ञान कि जो अन्त:करण में आन्तरिक द्रिष्टि से प्राप्त हो, यही ज्ञान एक ऐसा ज्ञान है कि जिसको सीखने के लिए अफलातून 13 वर्ष तक मिस्र देश के मन्दिरों में पडा रहा ।
एकान्त में अपनी द्रिष्टि को सामने अन्तरिक्ष मे स्थिर करने में नबी, अवतार, देवता और महात्माओं के ठीक-ठीक दर्शन होते हैं और ईश्वरीय तेज व प्रकाश का साक्षात्कार होता है । दोनों प्रकार के साक्षात्कार भिन्न स्वभाव रखते हैं । अवतार-देवतादि के दर्शनों से तो गुप्त भेदों का बोध होता है तथा वाणी या संकेतों द्वारा जो कुछ समय-समय पर बोला जाता है, वह यथार्थ होता है । तेज और प्रकाश के दर्शन से विविध विद्याओं का कि जो कभी न पढी और कभी न सुनी हो, प्रादुर्भाव होता है और यही विद्या और विज्ञान के प्रकट करने का मुख्य द्वार है । द्रिष्टि के इस अभ्यास को द्रिष्टि-योग साधन या विन्दु-ध्यान कहते हैं । द्रिष्टि को स्थूल पदार्थों पर स्थिर करने से बचाना चाहिये; क्योंकि उनसे पागलपन, विस्मरण, मूर्खता, छल और कपट तथा अन्य दुर्गुण तथा दुष्ट स्वभाव उत्पन्न होते हैं ।
(3) त्रितीय, कर्णेन्द्रिय से उपदेष्टाओं, गुरुओं और व्याख्यानदाताओं के कथनों को बहुत ध्यानपूर्वक सुनना और समझना चाहिये और अपने ध्यान को उस ध्वनि पर जो गाने में प्रयुक्त होती है, लगाना चाहिये । उससे भक्ति उत्पन्न होती है और आत्मा को अचूक आत्मिक भोजन प्राप्त होता है तथा उसमें एक विलक्षण आनन्द प्रतीत होता है, जो कि वर्णनातीत है । गान का प्रभाव बडे-बडे बुद्धिमानों और विद्वानों पर, जिनके हर्‍दय विविध विद्याओं तथा सभ्यता के अंगों से परिपूर्ण होते हैं, पडता है, और वह प्रकट रूप मे उन गानमण्डलियों में मग्न हो जाते हैं तथा उनके सिर उस आनन्द में झूमने लगते हैं और मुख से वाह-वाह की ध्वनि निकल पडती है, उस समय वे ऐसे बेसुध हो जाते हैं कि उनको सभा के नियमों का भी ध्यान नहीं रहता । ईश्वर के ध्यान में मग्न रहनेवाले लोग गान-ध्वनि से उस दशा में पहुँच जाते हैं कि जिसको 'वज्द' कहते हैं । इसमें उनके सिर स्वयमेव उस आनन्द में झूमा करते हैं और वे उन आनन्दों का अनुभव करते हैं कि जिनका वर्णन करना अशक्य है । पशु भी इस गान-ध्वनि के प्रभाव से बच नहीं सके, वे भी इसमें मग्न होकर नाचने लगते हैं । गान का ही यह प्रभाव है कि सैनिक रण-स्थल में अपने जीवन की चिन्ता न कर प्राणों की आहुति दे देते हैं । गान का प्रभाव शरीर, इन्द्रियों और आत्मा पर साक्षात् पडता है और उससे शारीरिक, इन्द्रिय-संबंधी तथा आत्मिक रोग नष्ट होते हैं । यह तो प्रकट गान का प्रभाव है जो कर्ण के बाहरी उपयोग से संबंध रखता है ।
दूसरा गान या ध्वनि आन्तरिक है और उसके सुनने की विधि यह है कि अपने ध्यान को उस भीतरी शब्द पर लगाना चाहिये कि जो प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में हो रहा है । शब्द मानव-जीवन की एक बहुत बडी सम्पत्ति है । जबतक मनुष्य के भीतर शब्द विद्यमान है, तबतक वह जीवित रहता है और शब्द निकलते ही उसकी इतिश्री है । अत: मुर्दे और जीवित मे यही अन्तर है कि जब मनुष्य जीवित है तो चलता-फिरता है और बोल सकता है और जब शब्द निकल जाता है तो न वह चलता-फिरता है, न कुछ बातचीत करता है । जीवन-चक्र शब्द की प्रेरणा का ही फल है और उन सब पुस्तकों का यह शब्द ही केन्द्र है कि जो इल्हामी या आस्मानी कही जाती हैं और इसके द्वारा प्राचीन काल में लोगों ने बडी-बडी आयु प्राप्त की कि जिसका आजकल के लोग विश्वास नहीं करते ।
मनुष्य के मस्तिष्क में प्राक्रितिक भाग के अतिरिक्त तीन भाग दूसरे भी हैं -- शब्द, प्रकाश और अन्धकार । शब्द की तरंग प्रकाश पर और प्रकाश से अन्धकार पर और अन्धकार से मस्तिष्क पर तथा मस्तिष्क से बारीक-बारीक नसों में प्रविष्ट होकर समस्त शरीर में फैल गई है । शरीर में इसका रूप जान है और मस्तिष्काकाश में इसका रूप प्रकाश है, सुन्न में उसका रूप शब्द है । यह शब्द एक अत्यन्त मूल्यवान पदार्थ है और प्राचीन काल में यूनानियों, मिस्रियों, रोमियों, और हिन्दुओं ने शब्द के विषय मे बहुत पुस्तकें लिखी हैं, इसलिये मैं कहता हूँ कि प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि शब्द की अनुभूत जानकारी करे कि इसका स्रोत उसमें कहाँ से प्रवाहित है ।
मित्रो ! मेरा भक्ति-विषयक कथन समाप्त हुआ । मैं फिर विनयपूर्वक निवेदन करता हूँ कि यदि कोई बात आपको असह्य हो तो क्षमा करना ।

Sunday, 20 November 2011

Aarti Shri Sai Baba Ji Ki

SHRI RAM WAS BORN IN AYODHYA



SHRI RAM WAS BORN IN AYODHYA

Shri Ram was born in Ayodhya. This fact can be ascertained from several books written by Indian and foreign authors before and after the birth of Christ - Valmiki Ramayan, Tulsi Ramayan, Kalidasa's Raghuvansam, Baudh and Jain literature, etc. These books have narrated in great detail the location, rich architecture and beauty of Ayodhya which had many palaces and temples built all over the kingdom. Ayodhya was located on the banks of the Saryu river with Ganga and Panchal Pradesh on one side and Mithila on the other side. Normally 7,000 years is a very long period during which earthquakes, storms, floods and foreign invasions change the course of rivers, destroy the towns/buildings and alter the territories. Therefore, the task of unearthing the facts is monumental. The present Ayodhya has shrunk in size and the rivers have changed their course about 40 km north /south.


Shri Ram went out of Ayodhya in his childhood (13th year as per Valmiki Ramayan) with Rishi Vishwamitra who lived in Tapovan (Sidhhashram). From there he went to Mithila, King Janaka's kingdom. Here he married Sita after breaking Shiv Dhanusha. Researchers have gone along the route adopted by Shri Ram as narrated in the Valmiki Ramayan and found 23 places which have memorials that commemorate the events related to the life of Shri Ram. These include Shringi Ashram, Ramghat, Tadka Van, Sidhhashram, Gautamashram, Janakpur (now in Nepal), Sita Kund, etc. Memorials are built for great men and not for fictitious characters.


Date of exile of Shri Ram: It is mentioned in Valmiki Ramayan's Ayodhya Kand (2/4/18) that Dashratha wanted to make Shri Ram the king because Sun, Mars and Rahu had surrounded his nakshatra and normally under such planetary configuration the king dies or becomes a victim of conspiracies. Dashratha's zodiac sign was Pisces and his nakshatra was Rewati. This planetary configuration was prevailing on the January 5, 5089 BC, and it was on this day that Shri Ram left Ayodhya for 14 years of exile. Thus, he was 25 years old at that time (5114-5089). There are several shlokas in Valmiki Ramayan which indicate that Shri Ram was 25-years-old when he left Ayodhya for exile.


Valmiki Ramayan refers to the solar eclipse at the time of war with Khardushan in later half of 13th year of Shri Ram's exile. It is also mentioned it was amavasya day and Mars was in the middle. When this data was entered, the software indicated that there was a solar eclipse on October 7, 5077 BC, (amavasya day) which could be seen from Panchvati. The planetary configuration was also the same - Mars was in the middle, on one side were Venus and Mercury and on the other side were Sun and Saturn. On the basis of planetary configurations described in various other chapters, the date on which Ravana was killed works out to be December 4, 5076 BC, and Shri Ram completed 14 years of exile on January 2, 5075 BC, and that day was also Navami of Shukla Paksha in Chaitra month. Thus Shri Ram had come back to Ayodhya at the age of 39 (5114-5075).


A colleague, Dr Ram Avtar, researched on places visited by Shri Ram during his exile, and sequentially moved to the places stated as visited by Shri Ram in the Valmiki Ramayan, starting from Ayodhya he went right upto Rameshwaram. He found 195 places which still have the memorials connected to the events narrated in the Ramayana relating to the life of Shri Ram and Sita. These include Tamsa Tal (Mandah), Shringverpur (Singraur), Bhardwaj Ashram (situated near Allahabad), Atri Ashram, Markandaya Ashram (Markundi), Chitrakoot, Pamakuti (on banks of Godavari), Panchvati, Sita Sarovar, Ram Kund in Triambakeshwar near Nasik, Shabari Ashram, Kishkindha (village Annagorai), Dhanushkoti and Rameshwar temple.


In Valmiki Ramayan it is mentioned that Shri Ram's army constructed a bridge over the sea between Rameshwaram and Lanka. After crossing this bridge, Shri Ram's army had defeated Ravana. Recently, NASA put pictures on the Internet of a man-made bridge, the ruins of which are lying submerged in Palk Strait between Rameshwaram and Sri Lanka. Recently the Sri Lankan Government had expressed the desire to develop Sita Vatika as a tourist spot. Sri Lankans believe this was Ashok Vatika where Ravana had kept Sita as a prisoner (in 5076 BC).


Indian history has recorded that Shri Ram belonged to the Suryavansh and he was the 64th ruler of this dynasty. The names and other relevant particulars of previous 63 kings are listed in Ayodhya Ka Itihas written about 80 years ago by Rai Bahadur Sita Ram. Professor Subhash Kak of Lousiana University, in his book, The Astronomical Code of the Rig Veda, has also listed 63 ancestors of Shri Ram who ruled over Ayodhya. Sri Ram's ancestors have been traced out as: Shri Ram, King Dashratha, King Aja, King Raghu, King Dilip and so on. From Kashmir to Kanyakumari and from Bengal to Gujarat, everywhere people believe in the reality of Shri Ram's existence, particularly in the tribal areas of Himachal, Rajasthan, Madhya Pradesh and the North-East. Most of the festivals celebrated in these areas revolve around the events in the life of Shri Ram and Shri Krishna.


The events and places related to the life of Shri Ram and Sita are true cultural and social heritage of every Indian irrespective of caste and creed. Therefore, it is common heritage. After all, Shri Ram belonged to the period when Prophet Mohammed or Jesus Christ were not born and Muslim or Christian faiths were unknown to the world. The words Hindu (resident of Hindustan) and Indian (resident of India) were synonymous. India was also known as Bharat (land of knowledge) and Aryavarta (where Aryans live) and Hindustan (land of "Hindus" - derived from word Indus).

During Ram Rajya, the evils of caste system based on birth were non-existent. In fact, Maharishi Valmiki is stated to be of shudra class (scheduled caste), still Sita lived with him as his adopted daughter after she was banished from Ayodhya. Luv and Kush grew in his ashram as his disciples. We need to be proud of the fact that Valmiki was perhaps the first great astronomer and that his study of planetary configurations has stood the test of times. Even the latest computer softwares have corroborated his astronomical calculations, which proves that he did not commit any error.

Shabari is stated to be belonging to the Bheel tribe. Shri Ram's army, which succeeded in defeating Ravana, was formed by various tribals from Central and South India. The facts, events and all other details relating to the life of Shri Ram are the common heritage of all the Indians including scheduled castes, scheduled tribes, Muslims, Christians, etc.


Prophet Mohammad was born 1,400 years ago. Jesus Christ was born 2,000 years back. Gautam Buddha was born 2,600 years back, whereas Ram was born 7,000 years back. Hence, discovering the details relating to Shri Ram's life would be lot more difficult as destruction caused by floods, earthquakes and invasions etc., would be far greater. But, should that stop our quest for learning more about our cultural heritage?


As Indians, let us all take pride in the fact that the Indian civilisation is the most ancient civilisation today. It is certainly more than 10,000 years old. Therefore, let us reject the story of Aryan invasion in India in 1,500 BC as motivated implantation. In fact Max Mueller, who was the creator of this theory had himself rejected it. Let us admit that during the British Rule, we were educated in the schools based on Macaulay school of thinking which believed that everything Indian was inferior and that entire "Indian literature was not worth even one book rack in England". If there were similarities in certain features of Indian people and people from Central Europe, then automatic inference drawn was that the Aryans coming from Europe invaded India and settled here. No one dared of thinking in any other way. Therefore, there is urgency for the historians and all other intellectuals to stop reducing Indian history to myth. There is need to gather, dig out, search, unearth and analyse all the evidences, which would throw more light on ancient Indian civilisation and culture.


There is need for the print and the electronic media to take note of these facts and create atmosphere which would motivate our young and educated youth to carry out research and unearth true facts about the ancient Indian civilisation and wisdom and would also encourage them to put across the results of their research before the people fearlessly and with a sense of pride.

Saturday, 19 November 2011

Aarti Shri Tulsi Ji Ki

About Krishan


  1. Shree Krishna appeared in front of Mahaprabhu Vallabhacharya on Shravan Shukl Ekadashi at Thakurani Ghat, Gokul. He instructed Mahaprabhu ji to give Brahm Sambandh (Deeksha) to devotees in the path of grace and love.
  2. On leaving Govardhan Hill, Sri Govardhan Nath travelled for two and a half years before camping at Naathdwara near Udaipur.
  3. Haweli is a temple-home of Thakurji (Sri Krshna), where he is served through Asht-yaam seva throughout the day.
  4. In summer, scented water fountains and flower-bowers or Phool Banglas are prepared for Thakurji to keep the sultry heat away.
  5. Haweli Sangeet took birth with Raag-seva rendered by Asht-chaap sakhas – Parmanand ji, Nand Swami, Govind ji, Kumbhan Das, Surdas ji, Chaturbhuj ji, Chit Swami & Krishna Swami.
  6. Haweli Sangeet is largely sung in Dhrupad & Dhamar styles of classical Indian music. This is still practiced at Radha Raman mandir, Radha Vallabh mandir, Sri Tatiya sthaan and Raghunath temple in Vrindavan.
  7. Vrindavan’s Raaslila performances use Braj-bhasha poetry, Rasiya songs and a touch of Kathak dance to enact stories about Sri Krishna. Raslila shows an earlier impact of Kathak.
  8. Noted classical Hindustani singer Girija Devi has a collection of verses written by Krishna’s Muslim devotees.
  9. In Vrindavan, Phundan Lal and Kundan Lal Shah built a palace-temple for Sri Radha Raman ji. This 250 year old palace in Italian marble, embellished with Rajasthani Jharokhas, Lucknowi stucco art & Belgian crystal is worth a dekko. Check it out on your next visit to Vrindavan!
  10. Regular tram service between Mathura and Vrindavan is an exciting way of seeing local life here @just Rs 2 for a ride.
  11. Around Purnima, takers of Sri Giriraj Maharaj’s (Govardhan) parikrama increase manifolds. Regular parikrama takers from Delhi and surrounding surrounding villages areas hit the 21 Km path without fail!
  12. Akbar was a patron of Tansen’s guru Sri Haridas, and sent gifts of Poshak (dress), ornaments and perfumes to temples of Vrindavan.
  13. Vrindavan was a heavily forested area when rediscovered and renovated by efforts of Chaitanya Mahaprabhu, his 6 Goswamis, Mahaprabhu Vallabhacharya ji, Swami Haridas ji, Hit Harivansh Goswami & other Rasiks of Shree Hari.
  14. Mahaprabhu Vallabhacharya got Krishna’s darshan of Gwal at Raman Reti, Gokul.
  15. Yamuna Maharani is a beloved wife of Krishna. Vaishnavs around the world request her grace. Keep Yamuna clean and happy.
  16. Dhruv, a child devotee of Vishnu received his darshan after tapasya on the banks of Ganga at Bithoor, near Kanpur.
  17. River Yamuna’s Pani ghat is any bird-watcher’s haven in winter. Migratory birds flock here in thousands, while parakeets, lapwings, warblers, babblers, bee-eaters, drongos, egrets, mainas & a host of others can be seen any time of the year.
  18. Sri Banke Bihari ji is a combined swaroop of Shree Krishna & Radha Rani.
  19. Kadam & Tamaal trees are considered part of the original flora of Vrindavan.
  20. Lucknow’s Nawab Wajid Ali Shah performed Rahaas dance-drama, based on Krishna’s Raslila.

Wallpaper Mansi Ganga Goverdhan

Mansi Ganga Goverdhan





Goverdhan Maharaj

Gulab



Wallpaper Goverdhan Puja


Wallpaper Goverdhan Puja



Saturday, 12 November 2011

The fourth day of Diwali celebrations is 'Padwa' or 'Varshapratipada'. In the North India, it is called as Govardhan Puja. This pooja is performed with great zeal and enthusiasm and in the states of Punjab, Haryana, Uttar Pradesh and Bihar. In this pooja, there is a tradition of building cow dung hillocks, which symbolize the Mount Govardhan, the mountain which was once lifted by Lord Krishna. After making such hillocks people decorate them with flowers and then worship them. They move in a circle all round the cow dung hillocks and offer prayers to Lord Govardhan. Read on this article to explore more about the Govardhan Puja.

Govardhan Puja Legends
'Govardhan' is a small hillock situated at 'Braj', near Mathura. The legends in 'Vishnu Puraan' have it that the people of Gokul used to worship and offer prayer to Lord Indra for the rains because they believed that it was he who sent rains for their welfare but Lord Krishna told them that it was Mount Govardhan (Govardhan Paevat) and not Lord Indra who caused rains therefore they should worship the former and not the latter. People did the same and it made Lord Indra so furious that the people of Gokul had to face very heavy rains as a result of his anger. Then Lord Krishna came forward to ensure their security and after performing worship and offering prayers to Mount Govardhan lifted it as an umbrella on the little finger of his right hand so that everyone could take shelter under it. After this event Lord Krishna was also known as Giridhari or Govardhandhari.

Govardhan Pooja Celebrations

Anna-Koot
The fourth day of diwali celebrations is also observed as Anna-Koot, which literally means 'mountain of food'. On this auspicious day the people prepare fifty-six or one hundred and eight different varieties of delicious dishes to offer Lord Krishna as 'Bhog'. In the temples, specifically in Mathura and Nathdwara, the deities are given milk bath, dressed in new shining attires and decorated with ornaments of dazzling diamonds, pearls, rubies and other precious stones and metals. Then they are worshipped, offered prayers and bhajans and also offered delicious sweets, fruits and eatables that are ceremoniously raised in the form of a mountain before the idols.

Padwa
The fourth day of diwali celebrations or the day following the 'Amavasya' is 'Kartik Shuddh Padwa', which is also the day when the King Bali would come out of the 'Patal Lok', the nether land and rule the 'Bhoo Lok', the world as per the boon given to him by 'Batu Waman', Lord Vishnu. Therefore this day is also known as 'Bali Padyami'. 'Padwa' or 'Varshapratipada' also marks the coronation of King Vikramaditya as 'Vikaram-Samvat' was started from this Padwa day.

Gudi Padwa
The day of Gudi Padwa has special significance for the Hindu families. There is a custom in which on this holy day the wife applies the 'Tilak' on the forehead of her husband, garlands him, performs his 'Aarti' and also prays for his long life. Then the husband gives her a gift in appreciation of all the tender care that his wife showers on him. Thus the Gudi Padwa is festival of celebrations and respect of love and devotion between the wife and the husband. People invite their newly married daughters with their husbands on this day of Gudi Padwa for special meals and give them gifts.

Recepie of Mathura Peda


Some devotees asked me if I knew how to make Mathura peda, also called as Dharwad peda, to offer for their Radha Vrindavanchandra deities. So I experimented with some ingredients and came up with 2 methods, not very different from each other. Both tasted good, while i felt the second method came close to the taste of Mathura peda, my daughter went with the first method.

In the first method i used:
1 1/4 cup of Mava or whole milk powder
4 tablespoons of heavy cream
elaichi/cardamom powder- 1 teaspoon
brown sugar- 1/2 cup
granulated sugar and coconut powder for dusting/rolling.

Thoroughly mix the heavy cream and one cup of mava, cook on a medium flame, in a thick bottomed pan. Add the brown sugar and stir well to mix. Continue stirring and scraping till the mixture becomes a thick paste. Add the remaining quarter cup of mava and mix well, till the mixture leaves the sides of the pan. Add the cardamom powder. When cool shape into small pedas. Roll in coconut powder and powdered sugar.

The second method: This tasted more like the peda.
2 heaped tablespoons of chenna.
3/4 cup of mava/milk powder
1/2 cup of brown sugar
3 tablespoons of heavy cream
1 teaspoon of elaichi freshly powdered.

Incorporate the chenna into the above given method and follow all the steps adding the remaining ingredients in the same manner as above till the mixture pulls away from the sides of  the pan. Shape into pedas when cool, roll it in superfine granulated sugar and coconut powder.