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Sunday, 8 January 2012

पहाडों वाली मां "वैष्णों देवी" | Vaishno Devi (Pahado Wali Maa) - Mother in the Mountains

Vaishno Devi
नीलमत के अनुसार हिमालय के उतर पश्चिम भाग में कश्यप पीठ (कश्मीर ) के निकट माता वैष्णों देवी का मंदिर शक्ति उपासना का प्रसिद्ध केन्द्र है. रुद्रयामल तंत्र के अनुसार यह शक्ति तथा शिव के साक्षात्कार का प्रवेश द्वार है. यहां शक्ति की विभिन्न रुपों में उपासना की जाती है. तथा कई सिद्धपीठ, देवीपीठ, शक्तिपीठ है.
शंकराचार्य को यहीं के शारदा पीठ से ही जगदगुरु उपाधि मिली थी. मां वैष्णवी देवी का पीठ शक्तिपीठ सभी पीठों में शिरोभूषण कहा जाता है. यहां पर मां का कोई मंदिर नहीं है. वरन वह चित्रकूट पर्वत की एक गुफा में तीन पिण्डियों के रुप में मां विराजती है. जो क्रमश: महालक्ष्मी, महाकाली, महासरस्वती मानी जाती है. यह गुफा ही मां दुर्गा का शक्तिपीठ मानी जाती है. तीन पिण्डियों में मध्य पिण्डी महालक्ष्मी की है, जिन्हें वैष्णों देवी कहते है. यह पीठ स्थिर आस्था का पावन स्थल है, जहां भक्त लौकिक तथा पारलौकिक दोनों शक्तियों की प्राप्त करते है.
मां की यह गुफा कितनी प्राचीन है. यह कहना कठिन है. किन्तु मान्यता है, कि मां ने यह गुफा स्वयं अपने त्रिशूल के प्रहार से निर्मित की थी. भौगोलिक अध्ययनों के अनुसार यह गुफा करोडों वर्ष पुरानी प्रतीत होती है. महाभारत में महर्षि पुलस्त्य ने भी इस स्थान का वर्णन किया था. इस स्थान पर दर्शन करने मात्र से समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती है. इस स्थान को ऋषि-महात्माओं की पुन्यस्थली कहा गया है.
भगवान श्री कृ्ष्ण ने महाभारत के युद्ध से पहले अर्जुन से माता वैश्णों देवी की आराधना करने को कहा था. ताकि युद्ध में उन्हें विजय प्राप्त हों.
एक अन्य कथा के अनुसार भैरोनाथ ने कन्या रुपी मां  को देखा तथा उन्हें पकडने के लिये दौडा था. तब कन्यारुपी देवी मां एक द्वार से त्रिकूट पर्वत की और गयी यह द्वार आज दर्शनीय द्वार कहा जाता है. मां जब त्रिकूट पर्वत की ओर बढीं तो वीर लांगुर भी उनके साथ था. चलते-चलते उसे प्यास लगी, तब मां ने तीर से पर्वत पर प्रहार किया और वहां से एक छोटी सी नदी निकल पडीं. जिसे बाणगंगा कहते हैं. उसी में मां ने अपने केश भी धोयें.
भैरों मां का पीछा करते हुए जब वहां पहुंचा, तब मां आगे बढी. लगभग 2किलोमीटर आगे एक जगह उन्होने विश्राम किया तथा जिस शिला पर वह चढीं वहां उनके पैर के चिन्ह भी मौजूद है. जिसे चरणापादुका कहते है. भैरों अब भी पीछा कर रहा था. अत: उन्हें देखते ही वह और आगे चल पडीं तत्ब उन्हें झाडियों की बीच एक गुफा दिखी़. जिसमें व प्रविष्ट होकर तपस्या करने लगीं. तथा भैरोनाथ की मृ्त्यु की प्रतिक्षा करने लगी. नौ माह बीत गए पर भैरों उन्हें खोजता ही रहा.

सहसा उसने संकरे मुख वाली यह गुफा देवी अत: वह भीतर गया. इस गुफा को अर्द्वकुमारी गुफा भी कहते है. भैरों को वहां पर देख कर माता को क्रोध आ गया. उन्होनें भैरों को युद्ध के लिये ललकारा तथा त्रिशुल से उसका सिर काट दिया. जहां उसका सिर गिरा, वहां आज भैरोनाथ मंदिर है. इस मंदिर में भैरों के मात्र सिर के दर्शन होते है. मां वहां से भवन जिसे दरबार कहा जाता है, चली गई. मृ्त्युपूर्व भैरव ने वर मांगा तब मां ने कहा कि लोग जब उसके दर्शन कर लेगें. तभी वैष्णों देवी की यात्रा भी पूर्ण होगी.
मां वैष्णों देवी की यात्रा के कई पडाव हैं. दर्शनी दरवाजा से लगभग एक कि.मी. आगे बाणगंगा का मंदिर है. कई यात्री यहां स्थान भी करते हैं. इस स्थान के विषय में एक किवदंती है, कि बाणगंगा के जल में नथ पहने एक मछली रहती है. यह मछली अति भाग्यशाली लोगों को ही दिखाई देती है. यहां का जल अति पवित्र माना जाता है. कुछ यात्री यहां से जल लेकर आते हैं.
यहां से 2 किमी दुर चरणपादुका मंदिर यात्रा का दूसरा पडाव है. जो समुद्रतल से 3380 फुट की ऊंचाई पर स्थित है. चरणपादुका मंदिर से लगभग 4.5 कि़मी. दुर अर्धकुमारी मंदिर है. यहां 15 फुट लंबी संकरी गुफा है, जिसे यात्री घुटनों के बल चलकर पार करते है. मोटे से मोटा व्यक्ति भी इस गुफा को पार कर लेता है.
 किन्तु इस गुफा के विषय में मान्यता है, कि पापी व्यक्ति इस गुफा को पार नहीं कर पाते है. अर्द्धकुमारी से लगभग 205 कि़मी की लंबी चढाई है. जिसे हाथी मत्था की चढाई कहा जाता है. इसकी आकृ्ति हाथी के मत्थे जैसी है. चढाई कठिन होने के बावजूद भक्तजनों का माता के दर्शन में उत्साह बना रहता है.
यहां से 4 किलोमीटर दुर समुद्रतल से 72मी. फुट की ऊंचाई पर सांझी छत नामक स्थान है. यहां से भैरों नाथ मंदिर के लिए एक अलग मार्ग जाता है. आखिरी 3 किलोमीटर की यात्रा का मार्ग उतराई वाला है. सांझी छत से भवन 3 किमी दुर है. मां की गुफा में प्रवेश के पहले चमडे की वस्तुएं निकाल कर देनी पडती है.
98 फुट लंबी गुफा में ही तीनों पिण्डियां विराजती है. गुफा के द्वार पर एक बडा सा पत्थर है. जिसपर लेट कर ही प्रवेश करना होता है. इस पत्थर के विषय में एक मान्यता प्रसिद्ध है, कि वह पत्थर भैरों का धड है. लगभग 10 फुट लेटकर जाने के बाद गुफा में प्रविष्ट होते ही शीतल जल की धार पैरों को स्पर्श करती है. गुफा में सीधे खडा नहीं हुआ जा सकता है. तीनों पिण्डियों के चरण से निरन्तर जल प्रवाहित होता रहता है. इसे ही चरण गंगा कहते है.

यहां पर पुजारी भैंट आदि लेकर पूजन करते हैं. दर्शन के बाद नई गुफा से वापस लौटते है. बाहर आने पर कन्यापूजन होता है. गुफा सुबह-शाम आरती के समय बंद रहती है. 

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