माँ भगवती के सिद्ध मंत्र
सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरी नारायणि नमोऽस्तु।1।
सर्वाबाधा विनिर्मुक्तो धनधान्य सुतान्वितः।
मनुष्यों मत्प्रसादेन भविष्यति न संषयः।2।
जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा षिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु।3।
देही सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि यषो देहि द्विषो जहि।4।
जिनकी दाढें वज्रके समान हैं, जो तीन नेत्र धारण करते हैं, जिनके कण्ठमें हलाहल- पानका नील चिह्न सुशोभित होता है, जो शत्रुभाव रखनेवालों का दमन करते हैं, जिनके सहस्त्रों कर (हाथ अथवा किरणें) हैं तथा जो अभक्तों के लिये अत्यन्त उग्र हैं, उन उपापति शम्भुको मैं प्रणाम करता हूँ।
ऋषभजी कहते हैं-जो सम्पूर्ण पुराणों में गोपनीय कहा गया है, समस्त पापोंको हर लेने वाला है, पवित्र, जयदायक तथा सम्पूर्ण विपत्तियों से छुटकारा दिलानेवाला है, उस सर्वश्रेष्ठ षिवकवचका मैं तुम्हारे हितके लिये उपदेष करूँगा।
मैं विष्वव्यापी ईश्वर महादेवजी को नमस्कार करके मनुष्यों की सब प्रकार से रक्षा करने वाले इस शिवस्वरूप कवचका वर्णन करता हूँ।। 1।।
पवित्र स्थान में यथायोग्य आसन बिछाकर बैठे। इन्द्रियों को अपने वश में करके प्राणायामपूर्वक अविनाषी भगवान् षिवका चिन्तन करे।। 2।।
‘परमानन्दमय भगवान् महेष्वर हृदय-कमलके भीतरकी कर्णिकामें विराजमान हैं, उन्होंने अपने तेजसे आकाषमण्डलको व्याप्त कर रखा है। वे इन्द्रियातीत, सूक्ष्म, अनन्त एवं सबके आदिकरण हैं।’ इस तरह उनका चिन्तन करे।।3।।
इस प्रकार ध्यानके द्वारा समस्त कर्मबन्धनका नाष करके चिदानन्दमय भगवान् सदाषिवमें अपने चित्तको चिरकालतक लगाये रहे। फिर षडक्षरन्यासके द्वारा अपने मनको एकाग्र करके मनुष्य निम्नांकित शिवकवचके द्वारा अपनी रक्षा करे।।4।।
‘सर्वदेवमय महादेवजी गहरे संसार-कूपमें गिरे हुए मुझ असहायकी रक्षा करें। उनका दिव्य नाम जो उनके श्रेष्ठ मन्त्रका मूल है, मेरे हृदयस्थित समस्त पापोंका नाश करे।।5।।
सम्पूर्ण विष्व जिनकी मूर्ति है, जो जयोतिर्मय आनन्दघनस्वरूप चिदात्मा हैं, वे भगवान् षिव मेरी सर्वत्र रक्षा करें। जो सूक्ष्मसे भी अत्यन्त सूक्ष्म हैं, महान् शक्तिसे सम्पन्न हैं, वे अद्वितीय ‘ईष्वर’ महादेवजी सम्पूर्ण भयोंसे मेरी रक्षा करें।।6।।
जिन्होंने पृथवीरूप से इस विश्वको धारण कर रखा है, वे अष्टमूर्ति ‘गिरिश’ पृथवीसे मेरी रक्षा करें। जो जलरूप से जीवों को जीवनदान दे रहे हैं, वे ‘शिव’ जलसे मेरी रक्षा करें।।7।।
जो षिवद लीलाविहारी ‘शिव’ कल्पके अन्तमें समस्त भुवनोंको दग्ध करके (आनन्दसे) नृत्य करते हैं, वे ‘कालरूद्र’ भगवान् दावानलसे, आँधी-तूफानके भय से समस्त तापों से मेरी रक्षा करें।।
प्रदीप्त विद्युत् एवं स्वर्णके सदृश जिनकी कान्ति है, विद्या, वर और अभय (मुद्राएँ) तथा कुल्हाड़ी जिनके कर-कमलोंमें सुषोभित हैं, चतुर्मुख त्रिलोचन हैं, वे भगवान् ‘तत्पुरूष’ पूर्व दिषा में निरन्तर मेरी रक्षा करें।।9।।
जिन्होंने अपने हाथोंमें कुल्हाड़ी, वेद, अंकुष,फंदा, त्रिशूल, कपाल, डमरू और रूद्राक्षकी मालाको धारण कर रखा है तथा जो चतुर्मुख हैं, वे नीलकान्ति त्रिनेत्रधारी भगवान् ‘अघोर’ दक्षिण दिषा में मेरी रक्षा करें।।10।।
कुन्द, चन्द्रमा, शंख और स्फटिक के समान जिनकी उज्जवल कान्ति है, वेेद, रूद्राक्षमाला, वरद और अभय (मुद्राओं)-से जो सुशोभित हैं, वे महाप्रभावषाली चतुरानन एवं त्रिलोचन भगवान् ‘सद्योजात’ पष्चिम दिषा में मेरी रक्षा करें।।11।।
जिनके हाथों में वर एवं अभय (मुद्राएँ), रूद्राक्षमाला और टाँकी विराजमान हैं तथा कमलकिंजल्कके सदृश जिनका गौर वर्ण है, वे सुन्दर चार मुखवाले त्रिनेत्रधारी भगवान् ‘वामदेव’ उत्तर दिषामें मेरी रक्षा करें।।12।।
जिनके कर-कमलों वेद, अभय और वर (मुद्राएँ), अंकुश, टाँकी, फंदा, कपाल, डमरू, रूद्राक्षमाला और त्रिशूल सुशोभित हैं, जो श्वेत आभासे युक्त हैं, वे परम प्रकाशरूप पंचमुख भगवान् ‘ईषान’ मेरी ऊपर से रक्षा करें।।13।।
भगवान् ‘चन्द्रमौलि’ मेरे सिरकी, ‘भालनेत्र’ मेरे ललाटकी,’ भगनेत्रहारी’ मेरे नेत्रोंकी और ‘विष्वनाथ’ मेरी नासिकाकी सदा रक्षा करें।।14।।
‘श्रुतिगीतकीर्ति’ मेरे कानोंकी, ‘कपाली’ निरन्तर मेरे कपोलोंकी, ‘पंचमुख’ मुखकी तथा ‘वेदजिहव’ जीभकी रक्षा करें।।15।।
‘नीलकण्ठ’ महादेव मेरे गलेकी, ‘पिनाकपाणि’ मेरे दोनों हाथोंकी, ‘धर्मबाहु’ दोनों कंधोंकी तथा ‘दक्षयज्ञविध्वंसी’ मेरे वक्ष‘ स्थलकी रक्षा करें।। 16।।
‘गिरीन्द्रधन्वा’ मेरे पेटकी, ‘कामदेवके नाषक’ मध्यदेषकी,‘गणेषजीके पिता’ मेरी नाभिकी तथा ‘धूर्जटि’ मेरी कटिकी रक्षा करें।।17।।
‘कुबेरमित्र’ मेरी दोनों जाँघोंकी, ‘जगदीश्वर’ दोनों घुटनोंकी, ‘पुंगवकेतु’ दोनों पिंडलियों की और ‘सुरवन्द्यचरण’ मेरे पैरोंकी सदैव रक्षा करें।। 18।।
‘महेश्वर’ दिनके पहरमें मेरी रक्षा करें। ‘वामदेव’ मध्य पहरमें मेरी रक्षा करें। ‘त्र्यम्बक’ तीसरे पहरमें और ‘वृषभध्वज’ दिनके अन्तवाले पहरमें मेरी रक्षा करें।। 19।।
‘शषिशेखर’ रात्रिके आरम्भमें, ‘गंगाधर’ अर्धरात्रिमें, ‘गौरीपति’ रात्रिके अन्तमें और ‘मृत्युंजय’ सर्वकालमें मेरी रक्षा करें।। 20।।
‘शंकर’ घरके भीतर रहनेपर मेरी रक्षा करें। ‘स्थाणु’ बाहर रहनेपर मेरी रक्षा करें, ‘पशुपति’ बीचमें मेरी रक्षा करें और ‘सदाषिव’ सब ओर मेरी रक्षा करें।।21।।
‘भुवनैकनाथ’ खड़े होने के समय, ‘प्रमथनाथ’ चलते समय, ‘वेदान्तवेद्य’ बैठे रहनेके समय और ‘अविनाषी षिव’ सोते समय मेरी रक्षा करें।। 22।।
‘नीलकण्ठ’ रास्तेमें मेरी रक्षा करें। ‘त्रिपुरारि’ शैलादि दुर्गोंमें और उदारषक्ति ‘मृगव्याध’ वनवासादि महान् प्रवासोंमें मेरी रक्षा करें।।23।।
जिनका प्रबल क्रोध कल्पोंका अन्त करने में अत्यन्त पटु है, जिनके प्रचण्ड अट्टहाससे ब्रहृमाण्ड काँप उठता है, वे ‘वीरभद्रजी’ समुद्र के सदृश भयानक शत्रुसेनाके दुर्निवार् महान् भयसे मेरी रक्षा करें।।24।।
भगवान् ‘मृड’ मुझपर आततायीरूपसे आक्रमण करनेवालोंकी हजारों, दस हजारों, लाखों और करोड़ों पैदलों, घोड़ों और हाथियों से युक्त अति भीषण सैकड़ों अक्षौहिणी सेनाओंका अपनी घोर कुठारधारसे भेदन करें।। 25।।
भगवान् ‘त्रिपुरान्तक’ प्रलयाग्निेके समान ज्वालाओं से युक्त जलता हुआ त्रिशूल मेरे दस्युदलका विनाष कर दे और उनका पिनाक धनुष चीता, सिंह, रीछ, भेड़िया आदि हिंस्त्र जन्तुओंको संत्रस्त करे।।26।।
वे जगदीष्वर मेरे बुरे स्वप्न, बुरे शकुन, बुरी गति, मनकी दुष्ट भावना, दुर्भिक्ष, दुव्र्यसन, दुस्सह अपयष, उत्पात, संताप, विषभय, दुष्ट ग्रहोंकी पीड़ा तथा समस्त रोगोंका नाश करें।।27।।
ऊँ जिनका वाचक है, सम्पूर्ण तत्त्व जिनके स्वरूप हैं, जो सम्पूर्ण तत्त्वों में विचरण करनेवाले, समस्त लोकोंके एकमात्र कर्ता और सम्पूर्ण विष्वके एकमात्र भरण-पोषण करनेवाले हैं, जो अखिल विष्वके एक ही संहारकारी, सब लोकोंके एकमात्र गुरू, समस्त संसारके एक ही साक्षी, सम्पूर्ण वेदोंके गूढ़ तत्व, सबको वर देनेवालेक, समस्त पापों और पीड़ाओंका नाश करनेवाले, सारे संसारको अभय देनेवाले, सब लोकोंके एकमात्र कल्याणकारी, चन्द्रमाका मुकुट धारण करनेवाले, अपने सनातनप्रकाष से प्रकाषित होनेवाले, निर्गुण, उपमारहित, निराकार, निराभास, निरामय, निष्प्रपंच, निष्कलंक, निद्र्वन्द्व, निस्संग, निर्मल, गतिषून्य, नित्यरूप, नित्य-वैभवसे सम्पन्न, अनुपम ऐष्वर्यसे सुशोभित, आधारशून्य, नित्य-शुद्ध-बुद्ध, परिपूर्ण, सच्चिदानन्दघन, अद्वितीय तथा परम शान्त, प्रकाशमय, तेजः-स्वरूप हैं, उन भगवान् सदाषिवको नमस्कार है। हे महारूद्र, महारौद्र, भद्रावतार, दुःख- दावाग्नि-विदारण, महाभैरव, कालभैरव, कल्पान्तभैरव, कपालमालाधारी! हे खट्वांग, खड्ग, ढाल, फंदा, अंकुष, डमरू, त्रिशूल, धनुष, बाण, गदा, शक्ति, भिन्दिपाल, तोमर, मुसल, मुद्गर, पिट्टश, परशु, परिघ, भुशुण्डी, शतघ्नी और चक्र आदि आयुधोंके द्वारा भयंकर हाथोंवालेे! हजार मुख और दंष्ट्रोंसे कराल, विकट अट्टहाससे विषाल ब्रहमाण्ड-मण्डलका विस्तार करनेवाले, नागेन्द्र वासुकिको कुण्डल, हार, कंकण तथा ढालके रूपमें धारण करनेवाले, मृत्युंजय, त्रिनेत्र, त्रिपुरनाशक, भयंकर नेत्रोंवाले, विष्वेष्वर, विष्वरूप में प्रकट, बैलपर सवारी करनेवाले, विषको गलेमें भूषणरूप में धारण करनेवाले तथा सब ओर मुखवाले शंकर! आपकी जय हो, जय हो! आप मेरी सब ओर से रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। प्रज्वलित होइये, प्रज्वलित होइये। मेरे महामृत्यु- भयका तथा अपमृत्यु के भयका नाष कीजिये, नाष कीजिये। (बाहरी और भीतरी) रोग-भयको जड़से मिटा दीजिये, जड़से मिटा दीजिये। विष और सर्पके भयको शान्त कीजिये, शान्त कीजिये। चोरभयको मार डालियें, मार डालिये। मेरे (काम-क्रोध-लोभादि भीतरी तथा इन्द्रियों के और शरीरके द्वारा होने वाले पापकर्मरूपी बाहरी) शत्रुओं का उच्चाटन कीजिये, उच्चाटन कीजिये, त्रिशूलके द्वारा विदारण कीजिये, विदारण कीजिये, कुठारके द्वारा काट डालिये, काट डालिये, खड्गके द्वारा छेद डालिये, छेद डालिये, खट्वांगके द्वारा नाश कीजिये, नाश कीजिये, मुसलके द्वारा पीस डालिये, पीस डालिये और बाणोंके द्वारा बींध डालिये, बींध डालिये। (आप मेरी हिंसा करनेवाले) राक्षसोंको भय दिखाइये, भय दिखाइये। भूतोंको भगा दीजिये, भगा दीजिये। कूष्माण्ड, वेताल, मारियों और ब्रहमराक्षसों को संत्रस्त कीजिये। मुझको अभय दीजिये, अभय दीजिये। मुझ अत्यन्त डरे हुए को आश्वासन दीजिये, आश्वासन दीजिये। नरक-भयसे मेरा उद्धार कीजिये, उद्धार कीजिये। मुझे जीवन-दान दीजिये, जीवन-दान दीजिये, जीवन-दान दीजिये। क्षूधा-तृषाका निवारण करके मुझको आप्यायित कीजिये, आप्यायित कीजिये। आपकी जय हो, जय हो। मुझ दुःखातुर को आनन्दित कीजिये, आनन्दित कीजिये। शिवकवचसे मुझे आच्छादित कीजिये, आच्छादित कीजिये। त्र्यम्बक सदाशिव! आपको नमस्कार है, नमस्कार है, नमस्कार है।
ऋषभजी कहते हैं- इस प्रकार यह वरदायक षिवकवच मैंने कहा है। यह सम्पूर्ण बाधाओं को शान्त करनेवाला तथा समस्त देहधारियों के लिये गोपनीय रहस्य है।। 28।। जो मनुष्य इस उत्तम षिवकवचको सदा धारण करता है, उसे भगवान् शिवके अनुग्रहसे कभी और कहीं भी भय नहीं होता।।29।।
जिसकी आयु क्षीण हो चली है, जो मरणासन्न हो गया है अथवा जिसे महान् रोगों ने मृतक-सा कर दिया है, वह भी इस कवचके प्रभावसे तत्काल सुखी हो जाता और दीर्घायु प्राप्त कर लेता है।। 30।। षिवकवच समस्त दरिद्राताका शमन करनेवाला और सौमंगल्यको बढ़ानेवाला है, जो इसे धारण करता है, वह देवताओं से भी पूजित होता है।।31।। इस षिवकवचके प्रभाव से मनुष्य महापातकों के समूहों और उपपातकों से छुटकारा पा जाता है तथा शरीर का अन्त होने पर षिवको पा लेता है।।32।।
वत्स! तुम भी मेरे दिये हुए इस उत्तम शिवकवचको श्रद्धापूर्वक धारण करो, इससे तुम शीघ्र और निष्चय ही कल्याणके भागी होओगे।।33।।
सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरी नारायणि नमोऽस्तु।1।
सर्वाबाधा विनिर्मुक्तो धनधान्य सुतान्वितः।
मनुष्यों मत्प्रसादेन भविष्यति न संषयः।2।
जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा षिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु।3।
देही सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि यषो देहि द्विषो जहि।4।
जिनकी दाढें वज्रके समान हैं, जो तीन नेत्र धारण करते हैं, जिनके कण्ठमें हलाहल- पानका नील चिह्न सुशोभित होता है, जो शत्रुभाव रखनेवालों का दमन करते हैं, जिनके सहस्त्रों कर (हाथ अथवा किरणें) हैं तथा जो अभक्तों के लिये अत्यन्त उग्र हैं, उन उपापति शम्भुको मैं प्रणाम करता हूँ।
ऋषभजी कहते हैं-जो सम्पूर्ण पुराणों में गोपनीय कहा गया है, समस्त पापोंको हर लेने वाला है, पवित्र, जयदायक तथा सम्पूर्ण विपत्तियों से छुटकारा दिलानेवाला है, उस सर्वश्रेष्ठ षिवकवचका मैं तुम्हारे हितके लिये उपदेष करूँगा।
मैं विष्वव्यापी ईश्वर महादेवजी को नमस्कार करके मनुष्यों की सब प्रकार से रक्षा करने वाले इस शिवस्वरूप कवचका वर्णन करता हूँ।। 1।।
पवित्र स्थान में यथायोग्य आसन बिछाकर बैठे। इन्द्रियों को अपने वश में करके प्राणायामपूर्वक अविनाषी भगवान् षिवका चिन्तन करे।। 2।।
‘परमानन्दमय भगवान् महेष्वर हृदय-कमलके भीतरकी कर्णिकामें विराजमान हैं, उन्होंने अपने तेजसे आकाषमण्डलको व्याप्त कर रखा है। वे इन्द्रियातीत, सूक्ष्म, अनन्त एवं सबके आदिकरण हैं।’ इस तरह उनका चिन्तन करे।।3।।
इस प्रकार ध्यानके द्वारा समस्त कर्मबन्धनका नाष करके चिदानन्दमय भगवान् सदाषिवमें अपने चित्तको चिरकालतक लगाये रहे। फिर षडक्षरन्यासके द्वारा अपने मनको एकाग्र करके मनुष्य निम्नांकित शिवकवचके द्वारा अपनी रक्षा करे।।4।।
‘सर्वदेवमय महादेवजी गहरे संसार-कूपमें गिरे हुए मुझ असहायकी रक्षा करें। उनका दिव्य नाम जो उनके श्रेष्ठ मन्त्रका मूल है, मेरे हृदयस्थित समस्त पापोंका नाश करे।।5।।
सम्पूर्ण विष्व जिनकी मूर्ति है, जो जयोतिर्मय आनन्दघनस्वरूप चिदात्मा हैं, वे भगवान् षिव मेरी सर्वत्र रक्षा करें। जो सूक्ष्मसे भी अत्यन्त सूक्ष्म हैं, महान् शक्तिसे सम्पन्न हैं, वे अद्वितीय ‘ईष्वर’ महादेवजी सम्पूर्ण भयोंसे मेरी रक्षा करें।।6।।
जिन्होंने पृथवीरूप से इस विश्वको धारण कर रखा है, वे अष्टमूर्ति ‘गिरिश’ पृथवीसे मेरी रक्षा करें। जो जलरूप से जीवों को जीवनदान दे रहे हैं, वे ‘शिव’ जलसे मेरी रक्षा करें।।7।।
जो षिवद लीलाविहारी ‘शिव’ कल्पके अन्तमें समस्त भुवनोंको दग्ध करके (आनन्दसे) नृत्य करते हैं, वे ‘कालरूद्र’ भगवान् दावानलसे, आँधी-तूफानके भय से समस्त तापों से मेरी रक्षा करें।।
प्रदीप्त विद्युत् एवं स्वर्णके सदृश जिनकी कान्ति है, विद्या, वर और अभय (मुद्राएँ) तथा कुल्हाड़ी जिनके कर-कमलोंमें सुषोभित हैं, चतुर्मुख त्रिलोचन हैं, वे भगवान् ‘तत्पुरूष’ पूर्व दिषा में निरन्तर मेरी रक्षा करें।।9।।
जिन्होंने अपने हाथोंमें कुल्हाड़ी, वेद, अंकुष,फंदा, त्रिशूल, कपाल, डमरू और रूद्राक्षकी मालाको धारण कर रखा है तथा जो चतुर्मुख हैं, वे नीलकान्ति त्रिनेत्रधारी भगवान् ‘अघोर’ दक्षिण दिषा में मेरी रक्षा करें।।10।।
कुन्द, चन्द्रमा, शंख और स्फटिक के समान जिनकी उज्जवल कान्ति है, वेेद, रूद्राक्षमाला, वरद और अभय (मुद्राओं)-से जो सुशोभित हैं, वे महाप्रभावषाली चतुरानन एवं त्रिलोचन भगवान् ‘सद्योजात’ पष्चिम दिषा में मेरी रक्षा करें।।11।।
जिनके हाथों में वर एवं अभय (मुद्राएँ), रूद्राक्षमाला और टाँकी विराजमान हैं तथा कमलकिंजल्कके सदृश जिनका गौर वर्ण है, वे सुन्दर चार मुखवाले त्रिनेत्रधारी भगवान् ‘वामदेव’ उत्तर दिषामें मेरी रक्षा करें।।12।।
जिनके कर-कमलों वेद, अभय और वर (मुद्राएँ), अंकुश, टाँकी, फंदा, कपाल, डमरू, रूद्राक्षमाला और त्रिशूल सुशोभित हैं, जो श्वेत आभासे युक्त हैं, वे परम प्रकाशरूप पंचमुख भगवान् ‘ईषान’ मेरी ऊपर से रक्षा करें।।13।।
भगवान् ‘चन्द्रमौलि’ मेरे सिरकी, ‘भालनेत्र’ मेरे ललाटकी,’ भगनेत्रहारी’ मेरे नेत्रोंकी और ‘विष्वनाथ’ मेरी नासिकाकी सदा रक्षा करें।।14।।
‘श्रुतिगीतकीर्ति’ मेरे कानोंकी, ‘कपाली’ निरन्तर मेरे कपोलोंकी, ‘पंचमुख’ मुखकी तथा ‘वेदजिहव’ जीभकी रक्षा करें।।15।।
‘नीलकण्ठ’ महादेव मेरे गलेकी, ‘पिनाकपाणि’ मेरे दोनों हाथोंकी, ‘धर्मबाहु’ दोनों कंधोंकी तथा ‘दक्षयज्ञविध्वंसी’ मेरे वक्ष‘ स्थलकी रक्षा करें।। 16।।
‘गिरीन्द्रधन्वा’ मेरे पेटकी, ‘कामदेवके नाषक’ मध्यदेषकी,‘गणेषजीके पिता’ मेरी नाभिकी तथा ‘धूर्जटि’ मेरी कटिकी रक्षा करें।।17।।
‘कुबेरमित्र’ मेरी दोनों जाँघोंकी, ‘जगदीश्वर’ दोनों घुटनोंकी, ‘पुंगवकेतु’ दोनों पिंडलियों की और ‘सुरवन्द्यचरण’ मेरे पैरोंकी सदैव रक्षा करें।। 18।।
‘महेश्वर’ दिनके पहरमें मेरी रक्षा करें। ‘वामदेव’ मध्य पहरमें मेरी रक्षा करें। ‘त्र्यम्बक’ तीसरे पहरमें और ‘वृषभध्वज’ दिनके अन्तवाले पहरमें मेरी रक्षा करें।। 19।।
‘शषिशेखर’ रात्रिके आरम्भमें, ‘गंगाधर’ अर्धरात्रिमें, ‘गौरीपति’ रात्रिके अन्तमें और ‘मृत्युंजय’ सर्वकालमें मेरी रक्षा करें।। 20।।
‘शंकर’ घरके भीतर रहनेपर मेरी रक्षा करें। ‘स्थाणु’ बाहर रहनेपर मेरी रक्षा करें, ‘पशुपति’ बीचमें मेरी रक्षा करें और ‘सदाषिव’ सब ओर मेरी रक्षा करें।।21।।
‘भुवनैकनाथ’ खड़े होने के समय, ‘प्रमथनाथ’ चलते समय, ‘वेदान्तवेद्य’ बैठे रहनेके समय और ‘अविनाषी षिव’ सोते समय मेरी रक्षा करें।। 22।।
‘नीलकण्ठ’ रास्तेमें मेरी रक्षा करें। ‘त्रिपुरारि’ शैलादि दुर्गोंमें और उदारषक्ति ‘मृगव्याध’ वनवासादि महान् प्रवासोंमें मेरी रक्षा करें।।23।।
जिनका प्रबल क्रोध कल्पोंका अन्त करने में अत्यन्त पटु है, जिनके प्रचण्ड अट्टहाससे ब्रहृमाण्ड काँप उठता है, वे ‘वीरभद्रजी’ समुद्र के सदृश भयानक शत्रुसेनाके दुर्निवार् महान् भयसे मेरी रक्षा करें।।24।।
भगवान् ‘मृड’ मुझपर आततायीरूपसे आक्रमण करनेवालोंकी हजारों, दस हजारों, लाखों और करोड़ों पैदलों, घोड़ों और हाथियों से युक्त अति भीषण सैकड़ों अक्षौहिणी सेनाओंका अपनी घोर कुठारधारसे भेदन करें।। 25।।
भगवान् ‘त्रिपुरान्तक’ प्रलयाग्निेके समान ज्वालाओं से युक्त जलता हुआ त्रिशूल मेरे दस्युदलका विनाष कर दे और उनका पिनाक धनुष चीता, सिंह, रीछ, भेड़िया आदि हिंस्त्र जन्तुओंको संत्रस्त करे।।26।।
वे जगदीष्वर मेरे बुरे स्वप्न, बुरे शकुन, बुरी गति, मनकी दुष्ट भावना, दुर्भिक्ष, दुव्र्यसन, दुस्सह अपयष, उत्पात, संताप, विषभय, दुष्ट ग्रहोंकी पीड़ा तथा समस्त रोगोंका नाश करें।।27।।
ऊँ जिनका वाचक है, सम्पूर्ण तत्त्व जिनके स्वरूप हैं, जो सम्पूर्ण तत्त्वों में विचरण करनेवाले, समस्त लोकोंके एकमात्र कर्ता और सम्पूर्ण विष्वके एकमात्र भरण-पोषण करनेवाले हैं, जो अखिल विष्वके एक ही संहारकारी, सब लोकोंके एकमात्र गुरू, समस्त संसारके एक ही साक्षी, सम्पूर्ण वेदोंके गूढ़ तत्व, सबको वर देनेवालेक, समस्त पापों और पीड़ाओंका नाश करनेवाले, सारे संसारको अभय देनेवाले, सब लोकोंके एकमात्र कल्याणकारी, चन्द्रमाका मुकुट धारण करनेवाले, अपने सनातनप्रकाष से प्रकाषित होनेवाले, निर्गुण, उपमारहित, निराकार, निराभास, निरामय, निष्प्रपंच, निष्कलंक, निद्र्वन्द्व, निस्संग, निर्मल, गतिषून्य, नित्यरूप, नित्य-वैभवसे सम्पन्न, अनुपम ऐष्वर्यसे सुशोभित, आधारशून्य, नित्य-शुद्ध-बुद्ध, परिपूर्ण, सच्चिदानन्दघन, अद्वितीय तथा परम शान्त, प्रकाशमय, तेजः-स्वरूप हैं, उन भगवान् सदाषिवको नमस्कार है। हे महारूद्र, महारौद्र, भद्रावतार, दुःख- दावाग्नि-विदारण, महाभैरव, कालभैरव, कल्पान्तभैरव, कपालमालाधारी! हे खट्वांग, खड्ग, ढाल, फंदा, अंकुष, डमरू, त्रिशूल, धनुष, बाण, गदा, शक्ति, भिन्दिपाल, तोमर, मुसल, मुद्गर, पिट्टश, परशु, परिघ, भुशुण्डी, शतघ्नी और चक्र आदि आयुधोंके द्वारा भयंकर हाथोंवालेे! हजार मुख और दंष्ट्रोंसे कराल, विकट अट्टहाससे विषाल ब्रहमाण्ड-मण्डलका विस्तार करनेवाले, नागेन्द्र वासुकिको कुण्डल, हार, कंकण तथा ढालके रूपमें धारण करनेवाले, मृत्युंजय, त्रिनेत्र, त्रिपुरनाशक, भयंकर नेत्रोंवाले, विष्वेष्वर, विष्वरूप में प्रकट, बैलपर सवारी करनेवाले, विषको गलेमें भूषणरूप में धारण करनेवाले तथा सब ओर मुखवाले शंकर! आपकी जय हो, जय हो! आप मेरी सब ओर से रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। प्रज्वलित होइये, प्रज्वलित होइये। मेरे महामृत्यु- भयका तथा अपमृत्यु के भयका नाष कीजिये, नाष कीजिये। (बाहरी और भीतरी) रोग-भयको जड़से मिटा दीजिये, जड़से मिटा दीजिये। विष और सर्पके भयको शान्त कीजिये, शान्त कीजिये। चोरभयको मार डालियें, मार डालिये। मेरे (काम-क्रोध-लोभादि भीतरी तथा इन्द्रियों के और शरीरके द्वारा होने वाले पापकर्मरूपी बाहरी) शत्रुओं का उच्चाटन कीजिये, उच्चाटन कीजिये, त्रिशूलके द्वारा विदारण कीजिये, विदारण कीजिये, कुठारके द्वारा काट डालिये, काट डालिये, खड्गके द्वारा छेद डालिये, छेद डालिये, खट्वांगके द्वारा नाश कीजिये, नाश कीजिये, मुसलके द्वारा पीस डालिये, पीस डालिये और बाणोंके द्वारा बींध डालिये, बींध डालिये। (आप मेरी हिंसा करनेवाले) राक्षसोंको भय दिखाइये, भय दिखाइये। भूतोंको भगा दीजिये, भगा दीजिये। कूष्माण्ड, वेताल, मारियों और ब्रहमराक्षसों को संत्रस्त कीजिये। मुझको अभय दीजिये, अभय दीजिये। मुझ अत्यन्त डरे हुए को आश्वासन दीजिये, आश्वासन दीजिये। नरक-भयसे मेरा उद्धार कीजिये, उद्धार कीजिये। मुझे जीवन-दान दीजिये, जीवन-दान दीजिये, जीवन-दान दीजिये। क्षूधा-तृषाका निवारण करके मुझको आप्यायित कीजिये, आप्यायित कीजिये। आपकी जय हो, जय हो। मुझ दुःखातुर को आनन्दित कीजिये, आनन्दित कीजिये। शिवकवचसे मुझे आच्छादित कीजिये, आच्छादित कीजिये। त्र्यम्बक सदाशिव! आपको नमस्कार है, नमस्कार है, नमस्कार है।
ऋषभजी कहते हैं- इस प्रकार यह वरदायक षिवकवच मैंने कहा है। यह सम्पूर्ण बाधाओं को शान्त करनेवाला तथा समस्त देहधारियों के लिये गोपनीय रहस्य है।। 28।। जो मनुष्य इस उत्तम षिवकवचको सदा धारण करता है, उसे भगवान् शिवके अनुग्रहसे कभी और कहीं भी भय नहीं होता।।29।।
जिसकी आयु क्षीण हो चली है, जो मरणासन्न हो गया है अथवा जिसे महान् रोगों ने मृतक-सा कर दिया है, वह भी इस कवचके प्रभावसे तत्काल सुखी हो जाता और दीर्घायु प्राप्त कर लेता है।। 30।। षिवकवच समस्त दरिद्राताका शमन करनेवाला और सौमंगल्यको बढ़ानेवाला है, जो इसे धारण करता है, वह देवताओं से भी पूजित होता है।।31।। इस षिवकवचके प्रभाव से मनुष्य महापातकों के समूहों और उपपातकों से छुटकारा पा जाता है तथा शरीर का अन्त होने पर षिवको पा लेता है।।32।।
वत्स! तुम भी मेरे दिये हुए इस उत्तम शिवकवचको श्रद्धापूर्वक धारण करो, इससे तुम शीघ्र और निष्चय ही कल्याणके भागी होओगे।।33।।
No comments:
Post a Comment