आध्यात्मिक उन्नति का सोपान-देवयज्ञ
यज्ञ का महत्त्व
क्या आप नित्य दैनिक यज्ञ करते हैं? अजी कहाँ समय मिलता है, फिर इस मँहगाई के जमाने में आप घी फूँकने की बात करते हैं, घी खाने को मिल जाये यही बहुत है, आदि उत्तर आजकल प्रायः सभी अनपढ़ नहीं अपितु पढ़े लिखे लोग भी यही उत्तर देते हैं। आष्चर्य तो तब होता है जब विज्ञान के ज्ञाता भी यही बातें दोहराते हैं।
हमारा एक पुराना शिष्य एम.एस.सी. उत्तीर्ण करने के बाद हमारे पास आकर बोला-गुरूजी, आप विद्यालय में दैनिक यज्ञ के बाद प्रायः यज्ञ के महत्त्व पर व ईष्वर की स्तुति पर कुछ बातें बताते थे। तब हम नादान थे, आपकी बात बलात् स्वीकार कर लेते थे, किन्तु अब मैंने एम.एस.सी. पास कर लिया है, अब आपके प्रत्येक बात का उत्तर देने में समर्थ हूँ। मैं ईष्वर को नहीं मानता हूँ, विज्ञान के नित-नये आविष्कारों ने यह सिद्ध कर दिया है कि मानव-बुद्धि ही सर्वोपरि है, ईश्वर नाम की कोई सत्ता नहीं है।
यह सुनकर हम तो आश्चर्य में पड़ गये कि विज्ञान की प्रगति व्यक्ति को नास्तिक बना ही है जब कि सृष्टि में छिपे हुए नित्य नये अज्ञात नियमों की खोज विज्ञान है। विज्ञान की यह खोज, यहाँ आविष्कार उस नियामक का, नियन्ता का बोध देता है। फिर भी हमने छात्र पर स्नेहभरी दृष्टि डालकर कहा-हमारे एक प्रष्न का उत्तर आप देंगे-जरा बतायें हम जो रोटी खाते हैं, उसका शरीर में क्या बनता है? छात्र का उत्तर था-जी, शरीर के पोषक तत्त्व बनते हैं, रक्त, माँस, मज्जा आदि। हमने सरलता से कहा कि सौ रोटियाँ यहाँ अभी मँगवाते हैं, आप वैज्ञानिकों से कहें जिस प्रक्रिया से ये शरीर में रक्तादि बनते हैं वैसे ही ये यहाँ बना दें। षिष्य शान्त था। हमने उससे कहा परमात्मा की क्या उत्तम रचना है कि शरीर निर्माण के साथ सभी के शरीर में एक जैसे यन्त्र बना दिये, जो खाये हुए पदार्थो को शरीर के पुष्ट बनाने में लग जाते हैं, यह सब के शरीर में एक जैसा है। यही तो उसका नियम है, अद्भुत नियम है।
मैंने कहा-पुत्रा! वैज्ञानिकों के सम्मेलन में ही एक महान् वैज्ञानिक ने कहा था कि वैज्ञानिकों को अपने सफल नूतन आविष्कार के लिए उस जगत् पिता के आगे नतमस्तक होना चाहिए, अन्यथा क्या हम सिर का एक बाल भी बना सकते हैं? नहीं बना सकते।
शिष्य वह भी आधुनिक शिष्य जल्दी हार माननेवाला नहीं था, बोला चलिये ईष्वर पर फिर कभी बात कर लेंगे किन्तु मैं आज तक अच्छी तरह यह नहीं समझ पाया कि हमें प्रतिदिन यज्ञ क्यों करना चाहिये, व्यर्थ घी फूंकने से क्या लाभ, फिर यज्ञ में मन्त्र बोलने से क्या लाभ है, साथ ही यज्ञ में समिधा आदि प्रयोग का विषेष विधान है। आदि-आदि बातें कभी समझ में नहीं आयी। कृपया यज्ञ शब्द का अर्थ समझाते हुए क्रमषः नित्य क्यों करना चाहिये, इसको आज समझ दें। आप तो जानते ही है कि मनुष्य स्वभावतः महत्त्व जानने पर ही, लाभ जानने पर ही श्रद्धा भाव से किसी कर्म को साधु सम्पन्न करने में प्रवृत्त होता है।
हमें अपने षिष्य का विचार अच्छा लगा, कि उसे थोड़ा बहुत समझाया, किन्तु सोचा क्यों न यह विचार सब तक पहुँचे। तो आइये पहले यह विचार करें कि प्रतिदिन यज्ञ क्यों करें?
वर्तमान में अनेक समस्याओकं से घिरा हुआ मनुष्य पीड़ित है। धन है तो शान्ति नहीं है। पुत्र है तो शान्ति नहीं, समस्त सुख के साधन है फिर भी जीवन अधूरा अधूरा है। लगता कुछ कमी है, कुछ खो गया है, सब कुछ पाने पर भी कुछ पाना शेष है, क्या है वह यह समझ में नहीं आता है। सत्य तो यह है कि भौतिकता, केवल भौतिक सम्पत्ति की दौड़ ने हमें यह टीस, यह व्याकुलता, यह अशान्ति दे दी है। भौतिक सम्पत्ति ने हमें क्या दिया है, यह एक शायर के शब्दों में इस प्रकार है-
इस दौर-ए तरक्की के अन्दाज निराले हैं।
जेहनों में तो अन्धेरे हैं सड़कों पर उजियाले हैं।।
सत्य ही बाहरी दृष्टि से हम उन्नत हैं किन्तु मनों में अन्धेरे हैं।
क्या आप इस अन्धेरे से बचना चाहते हैं, क्या शान्ति चाहते हैं, मानसिक शान्ति, वह शान्ति जो प्रत्येक दशा में हमें आनन्दित रखे, तो हम आप से कहेंगे बिना अधिक सोचे समझे आप घर में प्रतिदिन यज्ञ करना आरम्भ कर दें। यज्ञ में वर्णित मन्त्रों, के भाव, जिसका वर्णन हम आगे करेंगे, से आपके चित्त का पर्यावरण शुद्ध होगा, अन्तः करण में पवित्रता का संचार होगा, अशान्ति दूर होगी-और आप शान्ति पा सकेंगे।
हम संसार में रहते हैं, स्वाभावकि रूप से इस शरीर को स्वस्थ रखने के लिए हमें वायु, जल व अन्न की आवश्यकता है। प्रकाश देनेवाला सूर्य न हो, शीतलता, अन्न व औषधि आदि जीवन शक्ति डालनेवाला, रस डालने वाला चन्द्र न हो, बादल न हों, वर्षा न हो, ऋतुओं की अनुकूलता न हो, वृक्ष न हो, फल-फूल न हो आदि सृष्टि की प्राकृतिक सम्पदा न होते हमारा जीवन कैसे चलेगा, कभी आपने इस पर विचार किया है। ये शुद्ध होंगे तो हमारा जीवन शुद्ध होगा, स्वस्थ होगा और ये दूषित रहेंगे तो शरीर स्वस्थ न रहेगा और अस्वस्थ शरीर मात्र सुख के साधनों को एकत्रित कर लेने मात्र से सुखी शान्त नहीं होगा।
कभी आपने सोचा ये दूषित क्यों होते हैं? जबकि प्रकृति तो शुद्ध वायु, शुद्ध जल, शुद्ध प्रकाश आदि की सम्पत्ति देती है। थोड़े से चिन्तन से यह स्पष्ट हो जायेगा कि मनुष्य अपने लिए सुख के साधन चाहता है, इन साधनों के लिए बड़ी-बड़ी फैक्टरियाँ, कारें, स्कूटर आदि अनेक साधन बना लिये हैं। इन साधनों का धुंआ, गैस आदि अन्तरिक्ष को दूषित कर रहा है। दूसरे हम प्रकृति से प्रत्येक तत्व शरीर में शुद्ध रूप में ग्रहण करते हैं किन्तु जब इन्हें शरीर से निकालते हैं तो पूर्ण दूषित रूप में निकालते हैं।
वायु हम शुद्ध, सुगन्धित ग्रहण करते हैं किन्तु हमारी सांस दुर्गन्धमय होती है, हम जलीय तत्व शुद्ध रूप में ग्रहण करते हैं किन्तु पसीने, मूत्रादि रूप में दूषित निकालते हैं, हम अन्न तो शुद्ध पवित्र ही ग्रहण करते हैं किन्तु मल के रूप में अत्यन्त दुर्गन्ध शरीर से निकालते हैं। इस प्रकार हम स्वयं प्राकृतिक पर्यावरण को दूषित कर देते हैं।
प्रष्न यह है कि जब यह दूषित पर्यावरण हमारे लिए हानिप्रद है, यह दूषित अन्तरिक्ष हम को अशुद्ध वायु, अशुद्ध जल एवं अशुद्ध अन्नादि प्रदान करेगा तो हम कैसे स्वस्थ रह सकेंगे, कैसे सुखी रह सकेंगे। प्रकृति के ये देव-वायु देवता, जल देवता, अन्न देवता आदि तथा इनका प्रमुख स्थान अन्तरिक्ष देवता ही दोषमय होगा और उनको दूषित करने के भी हम ही कारण हैं तो इन्हें शुद्ध कैसे करें। व्यास जी ने इस रहस्य को इन शब्दों में प्रकट किया है-
देवान्.......श्रेयोऽवाप्स्यथ।। गीता अ. १!!११!!
इस यज्ञ के द्वारा इन जड़ देवों को शुद्ध करो वे देव तुम्हें स्वस्थ सुखी रखेंगे। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे को स्वस्थ रखने से परम कल्याण की प्राप्ति होगी। वैसे भी ब्राह्यणग्रन्थों के भी वचन है-‘‘स्वर्गकामो यजेत’’ 1, ‘‘नौर्ह वा एषा स्वग्र्या यदग्निहोत्रम्’’ 2 ‘‘यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म’’।3
अर्थात् स्वर्ग की कामना है तो यज्ञ करना चाहिए। निश्चय से यह अग्निहोत्र ही स्वर्ग की नौका है। यज्ञ श्रेष्ठतम कर्म है। ऐसे अनेक वचन यह सन्देष देते हैं कि हमें सुख के लिए, शान्ति के लिए, पर्यावरण शुद्धि के लिए प्रतिदिन यज्ञ करना चाहिए।
पर्यावरण भौतिक भी है, मानसिक भी! भौतिक पर्यावरण के दूषित होने के कारण हम ही हैं। अपनी सुविधा के लिए कल-कारखाने, रेलगाड़ी आदि अनेक साधन अन्तरिक्ष को अपने धुएं से, गैसीय तत्व से दूषित कर रहे हैं। इस भौतिक उन्नति ने हमें क्या दिया है?
आज परिवार टूट रहे हैं, विघटन बढ़ गया है। एक पुत्र धन के लिए, जायदाद के लिए, एकाधिपत्य के लिए पिता की मृत्यु की प्रतीक्षा करता है। भारत का वह आदर्ष-
‘मातृदेवो भव पितृदेवो भव’ तैत्तिरीयोपनिषत्-१.११.२
मता के भक्त, पिता के भक्त बनो-
अनुव्रतःपितुः पुत्रो, मात्रा भवतु संमनाः।। तथा अथर्व. ३.३0.२
मा भ्राता........भद्रया ।। अथर्व ३. ३0.३
अर्थात् -पुत्र पिता की आज्ञा का पालन करने वाला बने, माता का आदर करे।
भाई भाई से, बहन-बहन से तथा भाई-बहन से , बहन-भाई से द्वेष न करे, साथ रहते हुए समान व्रतवाले (स्नेह, तप, त्यागवाले) होकर परस्पर कल्याणकारी वाणी वाले अर्थात् पारस्परिक व्यवहार इतना शुद्ध, पवित्र तथा मधुर हो जिससे कि भद्र-इहलोक कल्याण तथा परलोक कल्याण हो।
यह आदर्श, यह पुनीत भाव आज दिवा स्वप्न हो गया है, कारण स्पष्ट है मानसिक पर्यावरण की अशुद्धि। इस मानसिक पर्यावरण की अशुद्धि। इस मानसिक पर्यावरण की अशुद्धि ‘यज्ञ’ द्वारा दूर होती है। यज्ञ ही वह साधन है जो फिर से उस मानव का जिसमें त्याग, तपस्या, स्नेह, समर्पण के गुण हो, का निर्माण कर सकता है।
यज्ञ में बोले जाने वाले मन्त्र अन्तरिक्ष में दूषित ध्वनि तरंगों में परिवर्तन की सामथ्र्य रखते हैं, चित्त पर पड़े जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों को, अशुद्ध संस्कारों को शुद्ध करते हैं, मन्त्रों में निहित भावों के द्वारा आचरण में पवित्रता का संचार होता है, यज्ञ में की जाने वाली विधि जीवन निर्माण की दिषा को प्रबुद्ध बनाती है। प्रतिदिन किये जाने वाले यज्ञ के द्वारा, दैनिक यज्ञ के द्वारा भौतिक मानसिक एवं सामाजिक पर्यावरण का शुद्धिकरण होता है। भौतिक, मानसिक एवं सामाजिक रोगों के विनाश का साधन, सर्वोतम साधन दैनिक यज्ञ है।
वैसे भी मनुष्य लोकव्यवहार में उपकार करने वाले के प्रति कृतज्ञ होता है, उसके गुणों का यत्र तत्र सर्वत्र वर्णन कर आत्मतोष पाता है। किसी सुन्दर कलाकृति को देखकर प्रसन्न होता है, प्रशंसा करता है, वाह-वाह करता है, जो इस कार्य को नहीं करता उसे अज्ञानी मूढ़ समझा जाता है। कृतज्ञता का भाव, किये हुए उपकार को मानने का भाव जिसमें नहीं होता है, समाज उसे कृतघ्न कहकर हेय दृष्टि से देखता है।
हमारे विचार से जो दैनिक यज्ञ नहीं करता है, वह ईष्वर के कृत उपकारों के प्रति कृतज्ञता का भाव नहीं रखता। सृष्टि में उसकी सुन्दर उपादेय कलाकृति को देखकर उसकी प्रशंसा, उसकी स्तुति नहीं करता है, वह समाज में ज्ञानवान् है? यह कैसे कहा जा सकता है। उस कलाकार की कृति ने सूर्य, चन्द्र, आकाष, अन्तरिक्ष, वायु, अग्नि आदि अनेक उपादेय तत्त्व बनाये हैं, जिनके अभाव में हमारा जीवन ही कठिन नहीं असम्भव हो जाता। उसने नेत्र दिये हैं, प्रकाष दिया है, जिससे हम विविध सौन्दर्य को देखकर आनन्दित होते हैं, रसना दी है विविध वस्तुओं का रसास्वादन कर आनन्दित होते हैं, कान दिये है जो विविध नाद सौन्दर्य से चित्त को आल्हादित करते हैं। हमारे पाठक इनमें से एक के अभाव की कल्पना करें फिर चिन्तन करें तो उस कलाकार के कला कौषलका अपने ऊपर हुए उपकारों का भाव जागृत हो जायेगा। इन उपकारों को गुणनुवाद करना परमेष्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना हमारा नैतिक कर्तव्य हो जाता है। इस कर्तव्य पूर्ति का साधन ‘दैनिक यज्ञ’ है।
यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का द्वितीय मन्त्र है-
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे। ४0/२
अर्थात् -इस संसार में कर्म करते हुए ही सौ वर्ष तक (आयु पर्यन्त) जीने की इच्छा रखनी चाहिए। यहाँ कर्म करने के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है। किन्तु कर्म इस प्रकार निष्काम भाव से करने चाहिये, जिससे कर्म बन्धन के कारण न बनें।
क्या आप चाहते है कि वह गुर सीख लें कि हम कर्म भ्ज्ञी करें किन्तु कर्म बन्धन के कारण न बनें। इस प्रकार फलेच्छा रहित, आसक्ति रहित कर्म करने का अभ्यास होना चाहिए। दैनिक यज्ञ ही वह अभ्यास है जिसके करने से, जीवन को यज्ञमय बनाने से, प्रत्येक कर्म को समर्पण भाव से करने की प्रवृत्ति का विकास होता है। श्रीमद् भगवद्गीता ने इस भाव को इन सरल शब्दों में व्यक्त किया है-
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र........समाचार।। १३/९
यज्ञ के अतिरिक्त यज्ञीय भाव से रहित किये गये कर्म बन्धन में, दुःख में, प्रपञ्च में फंसाने वाले होते हैं, अतः समर्पण भाव से कर्म करना चाहिये, आसक्ति के लगाव के तृष्णा के त्याग से ही समर्पण भाव का जीवन में समावेश हो सकता है।
अन्त में हम तो यही कहेंगे कि आप उलझन भरे, समस्याओं से भरे हुए जीवन से छुटकारा चाहते है, यदि आप चाहे हैं प्रतिदिन नवीन से नवीन रोगों के शिकार होकर स्वस्थ रहने के आनन्द को न खावें, भौतिक पर्यावरण की अशुद्धि से बचें, यदि मानसिक चिन्ताओं की सुरसा राक्षसी से बचना चाहते हैं, यदि आप में यह अभिलाषा हो कि हम उस अनन्त वैभव सम्पन्न, आनन्द-निधान के प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट कर अपने को उदात्त बनावें, निष्चय से हम यदि संसार के बन्धनों से छूटना चाहते हैं, वासनाओं के जाल से मुक्त होकर अहर्निष आनन्द में रहना चाहते हैं तो संकल्प लें कि हम दैनिक यज्ञ करेंगे, अवष्य ही करेंगे।
यज्ञ ही देवपूजा है
कुछ वर्षो पूर्व बम्बई में श्री रामचन्द्र आर्य ने ‘अन्धेरी’ में ‘सामवेद पारायण यज्ञ’ रखा। इस यज्ञ के अवसर पर लेखक ने यज्ञ विषयक अनेक शंकाओं का सरल समाधान किया था। उस अवसर पर एक यज्ञ-श्रद्धालु ने कहा-
‘ब्रह्मा जी एक प्रष्न हमारा है, उसका समाधान करने की कृपा करें। प्रष्न पूछने पर उन्होंने कहा आर्यसमाजी नास्तिक होते हैं। यह कैसे? वे उत्तर में बोले-कभी किसी भी अवसर पर मन्दिर में जाते नहीं हैं, सिर झुकाते नहीं हैं, पूजा पाठ करते नहीं हैं। हाँ यज्ञ अवष्य कर लेते हैं। नामकरण, चूड़ाकर्म, विवाह, गृहप्रवेश आदि कोई कार्य हो तो बस यज्ञ कर लेते हैं। न किसी देवी-देवता की पूजा करते हैं, न सत्यनारायण की कथा करते हैं। भला जो पूजा न करता हो, वह आस्तिक कैसा? भला हवन कर लेना, यज्ञ कर लेना क्या कोई देव पूजा हुई?
हमारी दृष्टि में प्रश्न बहुत अच्छा था, पूछने वाले बहुपठ या शास्त्रज्ञ नहीं थे, किन्तु श्रद्धालु अवष्य थे। वे इसका सरल समाधान चाहते थे। सरल से तात्पर्य सामान्य व्यक्ति के गले में उत्तर जाये, उसकी समझ में आ जाये, ऐसा समाधान। आइये! विचार करें कि यज्ञ देव पूजा है या नहीं। प्रष्न कत्र्ता का उचित समाधान हो, प्रतिदिन मन्दिर में जाकर सिर झुकाना, नमन करना मात्र को पूजा समझने वाले व्यक्ति की दृष्टि से समाधान।
पूजा किसे कहते हैं-
इसको समझने के लिए पहले जन सामान्य की दृष्टि से पूजा किसे कहते हैं, वह क्यों करते हैं, इसे समझ लें तो उत्तम रहेगा।
जन सामान्य की दृष्टि में पूजा का तात्पर्य तो केवल इतना मात्र है कि किसी मूर्ति के आगे सिर झुका देना, अगरबत्ती या धूप जला देना, अधिक से अधिक शंख, घंटा आदि बजाकर आरती कर लेना देव पूजा है, परमेष्वर की पूजा है। हमारे एक अध्यापक साथी अंग्रेजी प्रवक्ता हैं, पढ़े लिखे हैं, एक दिन हमसे बोले-शास्त्री जी, आप प्रतिदिन यज्ञ करते हैं तो मैं भी प्रतिदिन बिना ईष्वर की पूजा किये कुछ खाता-पीता नहीं हूँ। मैंने कहा-यह आपका नियम है, वत्र्तमान समय को देखते हुए अच्छा नियम है।
एक दिन हमें उनके घर जाने का अवसर मिला। हम प्रातः 8 बजे उनके यहाँ पहुंचे, उनके साथ अन्य साथी के यहाँ ‘कथा’ में जाने का विचार बना था। देखा तो एक केटली में चाय थी, वे चाय पी रहे थे, बोले-दो तीन कप चाय पीने के बाद ही मैं शौचादि नित्य कर्म करता हूँ। मैंने कहा-जल्दी करो, वहाँ मित्र के यहाँ ‘कथा’ में समय पर पहुँचना है। बोले -बस 15-20 मिनट लगेगें, तब तक आप आज के समाचार पढ़ लीजिये। सचमुच वे तैयार होकर बीस मिनट में आ गये, बोले-बस अभी आया, बिना ‘पूजा’ किये बाहर नहीं निकलता हूँ, बस जरा पूजा कर आऊँ। हमने सोचा-अब इतनी देर से बैंठे हैं तो और सही, जाना तो है इनके साथ ही। बस जी, आ गये बोले-शास्त्री जी, चलिये। मैंने आष्चर्य से पूछा-पूजा? बोले -कर आया। हमने पूछा-इतनी जल्दी, बोले-देर क्या लगती है? घर के बड़े से आले में विष्णु, कृष्ण, हनुमान व देवी के चित्र रखे हैं, बस धूप बत्ती जलाकर सब पर घुमा दी, मन में कल्याण करो, अपराध क्षमा करो कहा-बस पूजा हो गयी।
यह सब हमने इस भाव को दर्शाने के लिए लिखी कि जब एक पढ़ा लिखा एम.ए. पास व्यक्ति उक्त कार्य को पूजा सझता है तो सामान्य जन की तो बात ही क्या? आपने देखा होगा चलते-चलते मन्दिर दीखा तो सिर झुका दिया, हाथ जोड़ लिये सोचा-पूजा हो गयी। एक आदरणीय बहन ने अपना अनुभव बताया-एकान्त रास्ते में मेरा स्कूटर खराब हो गया, मैंने सोचा-प्लक खोलकर देखूँ। इतने में क्या देखती हूँ कि एक मोटर साईकिल पर एक युवक-युवती थे। पीछे बैठी युवती ने बड़ी जोर से एक ओर देखकर हाथ उठाकर -‘हाय हनु’ कहा। उनकी गाड़ी जाने पर बहन जी ने सोचा-उधर कोई है नहीं, फिर इसने ‘हाय’ कहकर किसको विष किया। अर्थात् सम्मान दिया। वे बोली-‘‘ध्यान से देखने पर दिखाई दिया कि दूसरी ओर एक छोटी सी हनुमान की मूर्ति थी। उस हनुमान भक्त ने ‘हाय हनु’ कहकर उसकी भावनानुसार हनुमान की पूजा की।’’ वर्तमान समय में इसे ही ‘‘हाय हनु’’ वाली पूजा को देव पूजा समझा जाता है, यही उनकी दृष्टि में ईष्वर की पूजा है।
आईये, विचार करे कि पूजा का तात्पर्य क्या हैं? शास्त्रानुसार-‘पूजनं नाम सत्कारः’ अर्थात् यथोचित व्यवहार करना, पूजा है। लोक व्यवहार में भी यही प्रचलित है। भूखा बालक जब भूख-भूख चिल्लाता है तो माँ कहती है दो मिनट में तेरी पेट पूजा करूँगी। यहाँ पूजा से तात्पर्य हाथ जोड़ना या पेट की आरती करना नहीं, अपितु यथोचित व्यवहार भोजन खिलाना है। दुष्ट के लिए कहते हैं, पीठ पूजा कर दो। मनु ने लिखा है-
‘‘यत्र नार्यस्तु.............भूषणाच्छादनाशनैः।३।५९।।
अर्थात् नारियों की सदैव भूषण, वस्त्र तथा भोजनादि से पूजा-सत्कार, सम्मान करना चाहिए। इस प्रकार पूजा का अर्थ यथोचित व्यवहार, सत्कार, सम्मान करना होता है।
पूजा क्यों-दुर्जन तोष न्याय से पूजा का अर्थ मात्र देवालयों में स्थित देव पूजा स्वीकार कर लिया जाये तो भी वह पूजा क्यों की जाती है? यह जानना आवष्यक है। प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी कामना से पूजा करता है। अपनी-अपनी इच्छा पूर्ति के लिए पूजा की जाती है। तात्पर्य यह है कि पूजा लाभ के लिए की जाती है, स्वर्ग-सुख प्राप्ति के लिए की जाती है।
संसार में सुख किस से प्राप्त होता है, यदि इसका चिन्तन करें तो अनेक वस्तुएँ सुखदायक है, यही कहा जायेगा। किन्तु सत्य पूछें तो सब से अधिक सुख, जिसके बिना जीवन, जीवन ही न रहे, वह प्राप्त होता है-हवा, पानी एवं अन्न से। क्या हम यह अनुभव नहीं करते है कि हवा के बिना जीवन तो क्या संसार भी अत्यल्प समय के लिए भी नहीं टिक सकता है। जल के बिना कुछ दिनों चल सकते हैं किन्तु अधिक दिनों तक नहीं। आप कल्पना करे कि अनेक देषों का राजा यदि प्यासा मरूस्थल में भटक रहा हो, प्यास से तड़प रहा हो, व्याकुल हो रहा हो, उस समय उससे एक गिलास पानी का मूल्य मागे तो वह अपना सारा राज्य देने को तैयार होता है। निष्चय से प्यासे के लिये एक गिलास पानी के सामने सारा संसार ही तुच्छ हो जाता है, सारे संसार का वैभव व्यर्थ है। इसी प्रकार अन्न का महत्व भी जीवन में सर्व विदित है।
अब आप विचार करें कि क्या मन्दिर, गुरूद्धारा मसिजद तथा चर्च में की जानेवाली तथ कथित पूजा से क्या वायु, जल एवं अन्न की शुद्धता के लिए कोई प्रयत्न होता है, जब कि वर्तमान में तो यत्र-तत्र सर्वत्र दूषित पर्यावरण पर अनेक देश क्या सारा विष्व ही चिन्तित है। तो इन तथा कथित पूजाओं से हमें क्या लाभ मिल रहा है, यह चिन्तनीय है। निस्सन्देह यह पूजा नहीं, सच्ची देव पूजा नहीं है। फिर प्रश्न है-सच्ची देव पूजा क्या है?
देव पूजा शब्द में से पहले देव किसे कहते हैं, यह जान लेना आवष्यक है। निरूक्त में वर्णित -देवो दानाद् व दीपनाद् वा द्युस्थानों भवतीति वां 1 देव शब्द के स्पष्ट एवं शास्त्रीय अर्थ को छोड़कर जन सामान्य की दृष्टि से कहे तो-देव वह हैं जो देता है, बदले में कुछ चाहता नहीं हैं। सूर्य देवता, वायु देवता, वृक्ष देवता, पृथिवी देवता आदि जड़ देव जीवन देते हैं, बदले में कुछ नहीं चाहते हैं। चेतन देवों में माता, पिता, आचार्य, अतिथि, सन्त आदि आते है तथा समस्त देवों का देव परमपिता परमेष्वर है। ये सभी अर्थात् यथोचित व्यवहार, सम्मान, सुरक्षा द्वारा अधिक कल्याण, ग्रहण करना चाहते हैं। इस प्रकार चेतन देवों की तो हम पूजा करते रहते हैं, सम्मान करते रहते हैं, किन्तु जड़ की पूजा कैसे की जाये?
इस प्रष्न के समाधान से पूर्व यह जान लेना आवष्यक है कि ये जड़ देवता हमारा क्या और कैसे कल्याण करते हैं? हमारा नित्य का अनुभव हमें यह बताता है कि बिना वायु, जल एवं अन्न के हमारा जीवन चलता नहीं है। इन तीनों की स्थिति द्युलोक, अन्तरिक्षलोक एवं पृथिवीलोक है। उक्त तीन लोक जीवन के लिए आवष्यक है। सृष्टि निर्माता परमेष्वर ने इन्हें शुद्ध, स्वस्थ एवं पवित्र निर्माण किया, किन्तु मानव ने अपनी भौतिक आवष्यकताओं की पूर्ति के लिए जो कल कारखाने, रेल, कार आदि अनेक निर्माण किये हैं। इन निर्माणों से द्यु, अन्तरिक्ष एवं पृथिवी दूषित होगी। हम दूषित जल, अन्न ग्रहण करेंगे तो अस्वस्थ होंगे। आनेवाली सन्तान लूली, लंगड़ी विक्षिप्त आदि रोगों से युक्त होगी। इन सबके कारण हम हैं, मनुष्य हैं, हमारी मात्र भौतिक उन्नति है।
निष्चय से मन्दिरों में आरती करने से ये तीनों लोक, यह पर्यावरण शुद्धि न होगा। संसार की कोई पूजा पद्धति इन्हें शुद्ध, स्वस्थ करने में सक्षम नहीं है। इसीलिए हमारे दूरदर्शी महान् वैज्ञानिक ऋषियों, महर्षियों ने ‘यज्ञ की पावन पद्धति का आविष्कार किया था तथा यज्ञ को ही ‘देवपूजा’ कहा।
यज्ञ देवपूजा कैसे?
ऊपर हमने जड़ चेतन देव बताये। इनमें से चेतन देवों की पूजा यथोचित सत्कार या व्यवहार से सम्भव है तथा वे हमारी पूजा से, सम्मान से तृप्त होकर हमारा कल्याण करते हैं। प्रश्न तो जड़ देवों का है, इनकी पूजा कैसे हो? यह तो स्वीकार है कि इनज ड़ देवों के शुद्ध होने से हमारा जीवन स्वस्थ्य एवं सुखमय होता है। वायु, जल, अन्न जीवन के लिए आवष्यक तत्त्व हैं। इनकी पूजा हम कैसे करें, बात बड़ी उलझन की है।
थोड़ा विचार करें तो हमारे शास्त्रों ने सारे रहस्य स्पष्ट कर दिये हैं। हम अन्न जल से अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं तो क्या अन्न को शरीर में मलने से, सिर पर डाल देने मात्र से उन्हें अन्न जीवन प्रदान करेगा, उनकी तृप्ति होगी। नहीं, उनकी तृप्ति मुख द्वारा भोजन ग्रहण करने से होती है। इस प्रकार चेतन देवों का जीवन मुख द्वारा अन्न जलादि ग्रहण करने से चलता है। अन्न सूक्ष्म होकर उदर में जाता है, फिर पेट के यन्त्र उसे और सूक्ष्म करके सारे शरीर को ऊर्जा प्रदान करते हैं।
इस आधार पर जड़देवों की पूजा के लिए, उन्हें तृप्त करने के लिए उनका मुख क्या है, क्या हो सकता है जो इन्हें सूक्ष्म होकर ऊर्जा प्रदान करें, इन्हें जीवनी शक्ति से युक्त रख सके? शतपथ ब्राह्मण मंे लिखा है-‘‘अग्निर्वै मुखं देवानाम्’’
इन जड़ देवों का मुख अग्नि है, क्योंकि अग्नि में डाले हुए पदार्थ, पदार्थ विज्ञान के अनुसार नष्ट नहीं होते हैं अपितु रूपान्तरित होकर, सूक्ष्म होकर शक्तिशाली बनते हैं। सूक्ष्म होकर अन्तरिक्ष में वायु के माध्यम से फैलते हैं, व्यापक हो जाते हैं। सभी को जीवन शक्ति से संयुक्त कर देते हैं। अन्तरिक्ष में, द्युलोक में, व्याप्त पर्यावरण को शुद्ध करने में सक्षम हो जाते हैं। तभी-‘‘अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः’’ यजु 23//62 इस यज्ञ को भुवन की नाभि कहा है, जो पदार्थ अग्नि में डालते हैं, वे सूक्ष्म होकर वायु के माध्यम से ऊर्जस्वित होकर, शक्ति सम्पन्न होकर द्युलोक तक पहुँचते हैं। मनु महाराज ने स्पष्ट लिखा है-
अग्नौ प्रास्ताहुतिः............प्रजाः।। मनु. ३। ७६।।
अर्थात् अग्नि में अच्छी प्रकार डाली गयी घृत आदि पदार्थो की आहुति सूर्य को प्राप्त होती है-सूर्य की किरणों से वातावरण में मिलकर अपना प्रभाव डालती है, फिर सूर्य से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न पैदा होता है, उससे प्रजाओं का पालन-पोषण होता है। गीता मंे वर्णित है-
अत्राद् भवन्ति..........कर्मसमुद्भवः।। गीता ३।१४
अन्न से प्राणी, वर्षा से अन्न, देवयज्ञ से वर्षा तथा देवयज्ञ तो हमारे कर्मो के कारने से ही सम्पन्न होगा। निष्चय से देवयज्ञ ही वह साधन है जिस के द्वारा हम यथोचित रूप में चेतन देवों का सम्मान करते हैं तथा जड़ देवों की भी पूजा अर्थात् यथोचित व्यवहार द्वारा इन्हें दूषित नहीं होने देते हैं। अग्नि में डाले गये पदार्थ सूक्ष्म होकर वृक्ष देवता, वायु देवता, पृथिवी देवता, सूर्य देवता, चन्द्र देवता आदि सभी लाभकारी देवों को शुद्ध, स्वस्थ, पवित्र रखते हैं, और ये देव हमें स्वस्थ एवं सुखी बनाते हैं। गीता में इस तथ्य को कितने स्पष्ट शब्दों में वर्णित किया है-
देवान्भावयतानेन .................परमावाप्स्यथ।। ३।११
इस यज्ञ के द्वारा (अग्निहोत्र के द्वारा) तुम इन जड़ चेतन देवों को उत्तम बनाओ तब वे देव तुम्हारा कल्याण करेंगे। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे को स्वस्थ रखने से ही परम कल्याण की प्राप्ति होगी। यज्ञ का ही जीवन में अत्यनत महत्व है। यही सच्ची देवपूजा है। इसीलिए महा-भारत काल पर्यन्त यज्ञ का ही विधान प्राप्त होता है। किसी मूर्तिपूजा आदि का विधान नहीं मिलता क्योंकि यज्ञ के अतिरिक्त सभी पूजा पद्धतियों में वायु, जल, अन्न, वृक्षादि पर्यावरण के दोषो को दूर करने की सामथ्र्य नहीं है। जल-वायु शुद्ध होगा यज्ञ से, यथोचित व्यवहार से। अतः सच्चे अर्थो में यज्ञ ही देवपूजा है, सच्ची देवपूजा है। प्रतिदिन दैनिक यज्ञ करके इस देवपूजा को सम्पन्न करना हमारा नैतिक कत्र्तव्य है।
प्रथम सोपान-आचमन मन्त्र
कठोपनिषद का वचन है-
नायमात्मा..............तनंू स्वाम्।। २।२२
यह आत्मा न प्रवचन से, मेधा बुद्धि से, न सत्संग से प्राप्त करने योग्य हैं, जिसको यह आत्मा (परमात्मा) स्वयं स्वीकार करता है, उसी को यह प्राप्त होता है, उीस को यह अपना स्वरूप प्रकट करता हैं।
यहाँ स्वाभाविक रूप से मन में यह भाव बैठ जाता है कि परमात्मा जिसे चाहेगा, उसे अपना स्वरूप प्रकट करेगा, तो हमारे सम्पूर्ण सत्प्रयत्न बेकार होंगे, हमें कोई आवश्यकता नहीं है कि हम प्रतिदिन उस परमेष्वर की स्तुति उपसना करें, यज्ञादि सत्कर्म करें।
इसका समाधान हम अपने व्यवहार से प्राप्त कर सकते हैं। व्यवहार में हम देखें कि एक पिता के तीन-चार पुत्रा हैं तो वे इन पुत्रों में किसे अधिक चाहते हैं या चाहेंगे? इसका उत्तर अत्यन्त स्पष्ट है पिता उस पुत्र को चाहेंगे, जो उनके आदेष का पालन करता है, उनकी सेवा करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो जो सत्पात्र होगा, उस पर ही पिता अपनी कृपा दृष्टि रखेंगे।
इस व्यवहारिक सत्य को कठोरपनिषद् के वचन पर परखें तो यही बात समझ में आयेगी कि परमेष्वर अपनी कृपा दृष्टि उसी पर रखेंगे जो सत्पात्र होगा।
हम वेद मार्ग पर चलें, वेद विरूद्ध मार्ग पर नहीं। इस आधार पर वेद मार्ग पर चलना सत्पात्र बनना है। परमेष्वर तो दया का समुद्र है, अपनी कृपा की वर्षा सतत करता रहता है, वह तो -‘‘अन्ति सन्तं न पश्यति अन्ति सन्तं जहाति’। अथर्व १0 । ८।३२
इस वेद वचन के अनुसार कुपात्र या अज्ञानी उस परमात्मा को नहीं देख पाते हैं, किन्तु परमात्मा के नियम से कोई बच नहीं सकता है। बस उनकी कृपा सत्पात्र को ही प्राप्त होगी।
बाहर बहुत वर्षा हो रही थी, रात्रि का समय था। आचार्य ने षिष्य से कहा-जा, एक घड़ा उठाकर बाहर रख दे, वर्षा का जल प्राप्त होगा। षिष्य शीघ्रता में घड़ा रख आया। थोड़ी देर में आचार्य ने घड़ा मंगवाया तो जल उसमें भरा नहीं था, कारण पात्र उल्टा रखा था। आचार्य ने कहा पात्र सीधा रखोगे तो वर्षा का जल उसमें भरेगा, जाओ, पात्र सीधा रखो। षिष्य थोड़ा आवेश में जाकर रख आया। थोड़ी देर में पात्र मंगवाया तो देखा कि वर्षा का जल उसमें नहीं भरा था, कारण कि आवेष में पात्र रखने से पात्र में छिद्र हो गया था। छिद्र युक्त पात्र में जल कैसे भर सकता था। आचार्य ने दूसरा पात्र पुनः रखने के लिए कहा, कारण कि वर्षा बहुत सुन्दर रूप में बरस रही थी। षिष्य दूसरा पात्र रख आया। आचार्य ने पुनः घड़ा भर गया होगा, इस आशा से मंगवाया, सत्य ही घड़ा भर गया था। आचार्य प्रसन्न हुए, किन्तु प्रकाष में घड़े को देखा तो सारा जल गन्दा था, कारण कि षिष्य गोबर भरे घड़े को बाहर रख आया था। आचार्य बोले-षिष्य वर्षा तो बहुत बरस री थी, किन्तु पात्र उल्टा हो तो वर्षा का जल न मिलेगा, छिद्र युक्त होगा तो भी नहीं मिलेगा, तथा गन्दगी से भरा पात्र होगा तो जल उपयोगी नहीं होगा। इसी प्रकार परमात्मा की कृपा की वर्षा तो सतत बरसती रहती है, केवल सत्पात्र ही उस कृपा को प्राप्त कर सकता है। सत्यपात्र बनने के लिए ही दैनिक यज्ञ करना आवष्यक है। सत्पात्र वह होता है जो विपरीत मार्ग पर, उल्टे मार्ग पर न चलें, जो छिद्र -दोष युक्त कर्म न करे तथा दूषित अन्तः करण की वृत्तिवाला न हो। दैनिक यज्ञ की सम्पूर्ण विधि व्यक्ति को सत्पात्र बने रहने में पूर्ण सहायक है। सत्पात्र को ही प्रभु की कृपा प्राप्त होती है।
आचमन मन्त्रों का महत्त्व-
आचमन करने के साथ निम्न व्रतों को ग्रहण करते हुए जीवन को यज्ञमय बनाना चाहिए।
जल को अमृत’ कहा गया है। अमृत से तात्पर्य-‘‘न मृतम् अमृतम्’’ अर्थात् जल जीवनदायक अमृत स्वरूप है। संस्कृत में जल को जीवन कहते हैं। प्रभु कृपा से मानव शरीर मिला है, इसे जीवन युक्त बनाना चाहिए। प्रभु कृपा से हमारा जीवन जीवनमय बनें, अमृतमय, आनन्दमय बने। प्रथम आचमन के द्वारा यह व्रत लेना है।
द्वितीय आचमन के समय जल अमृतमय तब होता है ज बवह गतिशील होता है। गति ही जीवन है। तदनुसार निरन्तर गतिशील रहकर, कर्म के द्वारा, सत्कर्म के द्वारा जीवन निर्माण का व्रत ग्रहण करना चाहिए। जिस प्रकार गतिशील जल में जीवन तत्त्व रहते हैं, वैसे ही निरन्तर कर्म के द्वारा जीवन को गतिशील बनाने की प्रेरणा द्वितीय आचमन से ग्रहण करना है।
गतिषील जल निर्मल होता है। अतः तृतीय आचमन के साथ गति सदैव निर्मल, स्वच्छ, पवित्र हो, यह भावना ग्रहण करनी चाहिए। निर्मल अन्तःकरण में ही सत्य, यष एवं श्री शोभा, ऐष्वर्य का निवास होता है।
केवल मन्त्र पाठ से गृहीत आचमन से भौतिक दृष्टि से, बाह्य रूप से भले ही लाभ मिले किन्तु आत्मिक लाभ दृढ़ संकल्प एवं तदनुकूल आचरण से होता है। आचमन मन्त्रों के अर्थानुसार यह भाव भी स्मरण रखने योग्य है।
उपस्तरण का अर्थ बिछौना है। बिछौना आधार है, आश्रय है, माँ की गोद का आश्रय कितना आनन्दमय एवं शान्तिदायक होता है। उसी प्रकार ईष्वर भी सम्पूर्ण जगत् का आधार है, उसके आश्रय में रहकर मैं सदैव निर्भीक एवं आनन्दमय स्थिति में रहूँ।
द्वितीय मन्त्र में अपिधानम् का अर्थ है ओढ़नी। जिस प्रकार माँ की गोद में लेटा हुआ षिशु वस्त्र से आच्छादित होकर निर्भीक होता है। कभी षिषु निद्रा में भयभीत होता है तो माँ का हाथ उस पर आच्छादन का सहारा होता है। इस असार संसार में याजक को वह भाव ग्रहण करना चाहिए कि सर्वव्यापक परमेष्वर का हाथ सदैव याजक के ऊपर है। वह सर्वात्मना उसका रक्षक है, उसके रहते हुए संसार में किसका भय?
पूज्य स्वामी केवलानन्द जी का संस्मरण इस आषय को पुष्ट करने वाला है। पूज्य स्वामी केवलानन्द जी किसी पर्वतीय प्रदेष की शोभा देखने गये थे। विचार यह हुआ कि पर्वत पर प्रातः शीघ्र चढ़ेगे। रात्रि में एक धर्मषाला में ठहरे। प्रातः शीघ्र उठकर स्नान ध्यान से निवृत्त होकर धर्मशाला के सामने वाटिका में टहलकर और लोगों के तैयार होने की प्रतीक्षा करने लगे। स्वामी जी जी आकृति भव्य, उस पर लम्बी दाढ़ी और भी अधिक भव्य थी। सबके तैयार होने पर सब ऊपर चढ़ने लगे, अभी कुछ दूर चले होंगे कि स्वामी जी ने देखा कि एक भद्र महिला की गोद में बैठा बालक स्वामी जी को घूंसा दिखा रहा था। स्वामी जी ने आष्चर्य से दृष्टि दूसरी ओर की थोड़ी देर बाद पुनः उनकी दृष्टि उस पर पड़ी तो फिर वही किया। चार-पांच बार घूंसा दिखाने की बात रही। पर्वत पर चढ़कर थोड़ी देर विश्राम करने पर स्वामी जी ने भद्र महिला से पूछ ही लिया-बेटी, मैं आपको जानता भी नहीं, फिर आपका यह बालक सारे रास्ते मुझे घूंसा क्यों दिखा रहा था? क्षमा याचना के साथ महिला ने उत्तर दिया कि बालक का कोई अपराध नहीं। प्रातः यह बालक नहा नहीं रहा था, तब मैंने उसे बाग में टहलते हुए आपको दिखाकर कहा-नहीं नहायेगा तो बाबाजी झोली में डालकर ले जायेंगे, तो शीघ्र स्नान कर लिया। यह मेरी गोद में था। अतः निर्भीक बनकर आपको घूंसा दिखाकर यह कह रहा था कि मुझे क्या ले जाओगे? मैं आपको मारूँगा।
परमेश्वर के आश्रय में रहकर हमारे अन्दर भी निर्भीकता का भाव आना ही चाहिए।
तृतीय आचमन में सत्य, यश एवं श्री की कामना है। निस्सन्देह सत्याचरण यष प्रदान करता है। यषस्वी व्यक्ति का ऐष्वर्य ही शोभा देनेवाला अर्थात् इहलोक एवं परलोक में सुखशान्ति देने वाला होता है। यजुर्वेद का वचन है-
दृष्ट्वा .......प्रजापितः।। १९।७७।।
प्रजापति परमेष्वर ने भी सत्य और अनृत-असत्य के रूप को देखकर यह षिक्षा दी कि मनुष्य अनृत में अश्रद्धा और सत्य में श्रद्धा करे। इस प्रकार सत्याचरण का जीवन में विषेष महत्त्व है। असत्याचरण से प्राप्त धन सुख के साधन दे सकता है, पर सुख शान्ति नहीं। असत्यचरण से प्राप्त धन इस जीवन में थोड़ा सुख भले ही दे किन्तु परलोक तो नष्ट हो जाता है। मनु महाराज ने अर्थ की, धन की पवित्रता पर विशेष बल दिया है-
सर्वेषामेव..........शुचिः।। मनु ५।१0६
सभी पवित्रताओं में धन की पवित्रता सर्वश्रेष्ठ है। जो धनार्जन में पवित्र है, वही पवित्र है। मिट्टी जल की पवित्रता नहीं। अतः जीवन में सत्याचरण का विषेष महत्व है।
स्वाहा शब्द से तात्पर्य
प्रथम आचमन के समय स्वाहा कहते हुए यह संकल्प लेना चाहिए कि जल के समान-‘सु आह इति वा’ हम सदैव मधुर कोमल सर्वहितकारी वाणी बोलेंगे।
द्वितीय आचमन के समय स्वाहा उच्चारण के साथ ‘स्वावाग् आह इति वा’ अपने अन्तरात्मा में परमात्मा का आश्रय उनकी कृपा दृष्टि सदैव मेरे ऊपर है ऐसा विचार करके याथातथ्य अर्थात् ज्ञानानुसार सत्य बात कहने का संकल्प लेना चाहिए।
तृतीय आचमन के साथ स्वाहा का उच्चारण करते हुए श्रद्धा सहित ‘स्वाहुतं हविर्जुहोति इति वा’ अर्थात् स्वार्जित सत्याचरण से प्राप्त यष, लक्ष्मी (धनैष्वर्य) को सदैव संसार के कल्याणार्थ समर्पित करने का संकल्प लेना चाहिए।
उक्त संकल्प मोक्ष प्राप्ति के पात्रत्व का अधिकारी बनाता हैं।
तीन आचमन क्यों?
जिस प्रकार जल शान्त होता है, शान्ति देता है, जीवन देता है, उीस प्रकार हमें शान्त रहते हुए आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त हो। इन तापत्रय से मुक्ति का संकल्प आचमन से ग्रहण करना है।
इसके अतिरिक्त -‘‘मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्’ के अनुसार मन, वाणी एवं कर्म की एकता के द्वारा महान् बनने का संकल्प लेना है।
अगड़स्पर्श मन्त्र
अंग स्पर्श मन्त्रों का महत्व-
बांई हथेली में थोड़ा जल लेकर, दाहिने हाथ्ज्ञ की मध्यमा और अनाममिका अंगुलियों को मिलाकर मन्त्र निर्दिष्ट अंगों का पहले दक्षिण फिर वाम भाग के स्पर्श का विधान है। यहाँ पर ध्यान यह रखना है कि मध्यमा अंगुली-जीवन में मध्यम मार्ग, समन्वयात्मक मार्ग पर चलना अर्थात् त्याग-भोग, प्रवृत्ति-निवृत्ति, श्रेय-प्रेय का समन्वय करके चलने का भाव ग्रहण करना है। ‘‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’’ के अनुसार अति त्याग, अति भोग दोनों ही उचित नहीं है।
द्वितीय अंगुली ‘अनामिका’ है। संसार में प्रषंसनीय कार्य करते हुए भी सम्मान, यष, नाम प्राप्ति की भावना से दूर रहना है। क्योंकि जिस स्वर्ग प्राप्ति के लिये, मोक्ष प्राप्ति के लिये यज्ञ क्रिया करते हैं, उसमें सम्मान, नाम आदि की प्राप्ति में ‘अहम्’ का समावेष होता है। ‘अहम्’ भी मोक्ष प्राप्ति में एक बाधक तत्व है। इसलिए-
सम्मानाद्........सर्वदा।। मनु २/१६२
अर्थात् विद्वान को, मोक्ष मार्ग के पथिक को विष के समान सम्मान से डरना चाहिए तथा अपमान भाव को अमृत के समान स्वीकार करना चाहिए। मनु के इस वचन के अनुसार अनामिका अंगुली का व्रत, ‘नाम’ (यष) की भावना से रहित कर्म करने का व्रत ग्रहण करना है।
अग-स्पर्श के मन्त्र एवं विधि की आवष्यकता को निम्न उदाहरण से समझना उत्तम रहेगा-
एक नवयुवक कार्लमाक्र्स के पास जाकर बोला-‘‘कामरेड, आप साम्यवाद का ढिंढोरा पीटते हैं मैं अत्यन्त निर्धन हूँ। मुझे धन की आवष्यकता है, धन दे’’। माक्र्स ने युवक को देखा और कहा-बड़े दुःख की बात है तुम्हारे पास धन नहीं है, अभी-अभी एक कम्पनी खुली है, उसे मनुष्य के अंगों का परीक्षण करना है, तुम अपने दोनों हाथ देकर आओ, तुम्हें दो लाख मिलेंगे। नवयुवक ने हाथों को देखकर कहा-यह सम्भव नहीं है। कामरेड ने पुनः कहा-वह कम्पनी दो पैर लेगी, दोनों पैरों के दो करोड़ देगी-जाओ, दो करोड़ ले आओ। नवयुवक ने फिर मना कर दिया। फिर माक्र्स बोले-‘वही कम्पनी तुम्हारी आंखें ले लेगी। दोनों आंखों के दो अरब रूपये मिल जायेंगे। नवुयुवक ने फिर मना किया। माक्र्स गम्भीर होकर ‘तुम तो कह रहे थे मैं अत्यन्त निर्धन हूँ किन्तु अरबों की सम्पत्ति तो तुम्हारे पास है।’ नवयुवक एक बड़ा महान् बोध लेकर चला गया।
उक्त उदाहरण शरीर के अंग-प्रत्यंगों के महत्व को प्रकट करता है। इस अंग प्रत्यंग की पुष्टता के लिए इनकी वृत्ति सदैव सन्मार्ग पर रखने के लिए इन अंग स्पर्श के मन्त्रों का विधान है। ईष्वर की कृपा प्राप्त हो, हम सत्पात्र बनें, एतदर्थ ही अंग स्पर्ष करना आवष्यक है।
अंग स्पर्श मन्त्रों का भाव-
१. ओं वाड़् म आस्येऽस्तु- हे परमेष्वर! मेरे मुख में वाक् शक्ति प्रषस्त हो।
२. ओं नसोर्मे प्राणोऽस्तु- हे परमेष्वर! मेरे नासिका -छिद्रों में प्राण शक्ति हो।
३. ओम् अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु- हे परमेष्वर! मेरे नेत्रों में दृष्टि सामथ्र्य बना रहे।
४. ओं कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु- हे परमष्ेवर! म्ेरे कानों में श्रवण शक्ति हो।
५. ओं बाह्नोर्मे बलमस्तु- हे परमेष्वर! मेरी भुजाओं में बल हो।
६. ओम् ऊर्वोम ओजोऽस्तु- हे परमेष्वर! मेरी जंघाओं में ओज-शरीर को धारण करने की शक्ति हो।
७. ओम् अरिष्टानि मेऽगांनि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु- हे परेष्वर! मेरा शरीर और अंग- प्रत्यग रोग रहित या दोष रहित हों तथा ये अग-प्रत्यग मेरे शरीर के साथ पुष्ट हों।
अर्थर्ववेद का वचन है-
इयं या............शान्तिरस्तु नः।।
अर्थात् यदि वाणी कठोर हो तो बड़े भयंकर परिणाम सामने आते हैं, परमेष्वर की कृपा से हमारी वाणी ज्ञान से प्रभाव युक्त होकर हमें सुख शान्ति देने वाली हो।
महाराजा भर्तृहरि ने स्पष्ट लिखा है-
केयूरा न.................नीति शतक १८
केयूर, चन्द्रमा के समान उज्ज्वल हार, स्नान, चन्दन का लेप, पुष्प तथा सिर के बालों आदि की सजावट आदि कोई भी वस्तु कभी भी शोभा नहीं देती है। केवल सुसंस्कृत वाणी ही मनुष्य की शोभा बढ़ाती है। अन्य सारे आभूषण व्यर्थ हैं, केवल वाणी का आभूषण ही श्रेष्ठ आभूषण है।
द्वितीय मन्त्र नासिका में प्राणों की शक्ति तथा घ्राणशक्ति, सूंघने का सामथ्र्य बना रहे, के लिए हैं। निस्सन्देह प्राण-अपान शक्ति उत्तम न हो, स्वस्थ न हो तो जीवन का चलना भी कठिन हो जाता है। नासिका के छिद्रों के स्वस्थ रहने पर ही घ्राण शक्ति, प्राण शक्ति उत्तम स्वस्थ रहती है। प्राणायाम क्रिया का आधार नासिका ही हैं। इन्द्रियों को दोषों से रहित करने में प्राणायाम (नासिका) का विषेष महत्व है। मनु महाराज का वचन है-
दह्यन्ते........निग्रहात्।। ६/७१
जैसे अग्नि में तपाने से सुवर्ण आदि धातुओं के मल नष्ट होकर शुद्ध होते हैं, वैसे ही प्राणयाम के द्वारा समस्त इन्द्रियों के दोष दूर हो जाते हैं। खाद्य पदार्थ सड़ गया हो, बासी हो गया हो इसका भी सम्यक् ज्ञान स्वस्थ घ्राण शाक्ति द्वारा ही सम्भव है। योग दर्षनकार ने तो यहां तक लिखा है कि- योगाड़ानुष्ठानादशुद्विक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः’। २/२८
अर्थात् प्राणायाम के द्वारा क्रम-क्रम से अशुद्धि का नाश और ज्ञान का प्रकाष होता है।
इस प्रकार नासिका का स्वस्थ रहना, घ्राणशक्ति का सबल रहना जीवन के लिए आवष्यक है।
तृतीय मन्त्र में नेत्रों में दृष्टि-देखने की शक्ति बनी रहे, की प्रार्थना है। नेत्रों का महत्त्व नेत्र-हीन व्यक्ति से जान सकते हैं। संसार मे विविध सुन्दर वस्तुयें आनन्ददायी हैं, उन्हें नेत्रों से देखकर ही आनन्द उठाया जा सकता है। यह आनन्द तभी उठाया जा सकता है जब दृष्टि भद्रभाव से युक्त हो-‘‘भद्रं परयेमआक्षभिर्यजत्राः’’ ऋग्वेद १/८९/८ ऋग्वेद का वचन है-
विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे। इन्द्रस्य युज्यः सखा।। १/२२/१९
विष्णु के कर्मो को देखो, जिससे नियम निकलते हैं। यह विष्णु ही जीवात्मा का योग्य सखा है, मित्र है। नेत्रों के द्वारा परमात्मा निर्मित सृष्टि के नियमों को देखें, उससे अपने जीवन को नियमित, परोपकारमय या यज्ञीय बनायें। नेत्रवाले देखकर भी अनदेखा न करें इसलिये नेत्रों में उत्तमता से देखने की सामथ्र्य मांगी गयी है।
चतुर्थ मन्त्र में कानों में सुनने की सामथ्र्य की याचना है। सत्पात्र बनने के लिए इस निरीक्षण की आवष्यकता है-‘‘भ्रदं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवाः’’ ऋग्वेद १/८९/८
कानों से भद्र श्रेष्ठ बातें सुनें। आत्म निरीक्षण करें कि कहीं हममें निन्दित बातें सुनने का अभ्यास तो नहीं हो गया है। आज वैज्ञानिक स्वीकार करने लगे हैं कि ध्वनि का मन की तरंगों पर प्रभाव पड़ता है-शुभ वचनों का शुभ वचनों का अशुभ। अतः निन्दायुक्त, बातें, दूषित बातें न सुनें, न बोलें। दूसरों की निन्दा सुनने में यदि आनन्द आता है तो हमारी वृत्ति अच्छी नहीं है। उत्तम सुनें, उत्तम ही बोलें।
पांचवें मन्त्र में बाहुओं में बल की याचना है। बल भुजाओं में हो। परमेष्वर दत्त भुजाओं का बल सज्जनों, दीनों, अनाथों की सहायता में प्रयुक्त हो। संसार में बल तीन प्रकार के होते हैं-ज्ञानबल, धनबल, और शारीरिक बल। इन तीनों बलों का सदुपयोग जो करता है, वही श्रेष्ठ मनुष्य होता है। किसी नीतिकार ने उचित ही लिखा है-
विद्या विवादाय....................रक्षणाय।।
दुष्ट की विद्या विवाद के लिए, धन अभिमान के लिए तथा शक्ति दूसरों को पीड़ा देने के लिए होती है, सज्जनों के ये बल इससे विपरीत कार्य के लिए होते हैं-विद्या ज्ञान के प्रसार के लिए, धन दान के लिए तथा शारीरिक बल सज्जनों, दीनों, अनाथों आदि पीड़ितों की रक्षा के लिए होता है। हमें सदैव यह ध्यान रखना है कि हमारी भुजाओं की शक्ति लोक कल्याणकारी कार्यो में लगे।
षष्ठ मन्त्र में जंघाओं में ओज-शरीर को धारण करने की शक्ति की कामना है। शरीर को गतिशील रखना ही शरीर को धारण करने का आधार है। गतिशीलता ही जीवन है। यह गति जब स्वार्थ की सीमित सीमा में रहती है, तब उससे किसी पुण्य कार्य का सम्पादन नहीं होता है। तात्पर्य यह है कि अपने बच्चों को पालने की वृत्ति तो पशु-पक्षियों में भी प्राप्त होती है। अपने बच्चों को योग्य बनाना, उनके लिए जमीन जायदाद, वैभव आदि तो बनाना माता-पिता का नैतिक कत्र्तव्य तो हो सकता है, पर वह पुण्य का खाता नहीं होता। पुण्य का खाता तो तब आरम्भ होता है जब अपनों से ऊपर उठकर परायों का ध्यान करते हैं। उनकी गतिशीलता की सार्थकता दीन-दुःखी, अनाथ, अबला आदि के सहयोग में पूर्ण होती है। यह सहयोग ही जंघाओं का ओज है। हमारे महान् आत्माओं की यह घोषणा कितनी उत्तम है-
न त्वहं................प्राणिनामत्र्तिनाषनम्।।
न राज्य, न स्वर्ग (इहलोक सुख), न मोक्ष की ही कामना है। उनकी कामना तो केवल एक ही है, वह है- संसार के समस्त प्राणियों के दुःखों का नाष। यह कामना ऐसी गतिशीलता ही ओज है। हमें यह ओज मिले, यह जीवन मिले, शरीर का सामथ्र्य मिले। इसकी सार्थकता ही इस मन्त्र का भाव है।
सप्तम मन्त्र में शरीर के रोग रहित होने की तथा शरीर के समस्त अवयवों के पुष्ट होने की कामना है।
‘‘ शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’’ कालिदास
स्वस्थ शरीर से ही धर्म की साधना सम्पन्न हो सकती है। शरीर ही स्वस्थ न हो, पुष्ट न हो तो जीवन की साधारण आवष्यकताएँ भी पूर्ण करने में व्यक्ति असमर्थ हो जाता है। उसे सामान्य जीवन भी अच्छा नहीं लगता हैं, तब धर्म अधर्म का चिन्तन कैसे सम्भव हो सकता है। अतएव इस मन्त्र में सम्पूर्ण शरीर के स्वस्थ बने रहने की प्रार्थना की गयी है।
इसके साथ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि स्वस्थ्य शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। एक सर्वविदित वचन है-
यन्मनसा ध्यायति............................................तदभिसम्पद्यते।
जो मन से ध्यान करेंगे, वह वाणी में आयेगा, जो वाणी में होगा तदनुसार कर्म होंगे, कर्मानुसार ही कार्य की सफलता होगी। शुभ फल के लिए शुभ कर्म की आवष्यकता है, शुभ कर्म शुभ विचारों से सम्भव है, शुभ विचार शुभ मन से सम्भव है और शुभ मन की प्राप्ति स्वस्थ शरीर एवं ईष्वर की भक्ति से होती है। इन्द्रियों के संयमित न होने से व्यक्ति अनेक दोषों को प्राप्त होता है। मनु का वचन है-
इन्द्रियाणां..........नियच्छति।। २/९३
इन इन्द्रियों का संचालक मन है। एक मात्र मन वह सोपान है जिससे व्यक्ति ऊँचेप र चढ़ता है और इसके शुद्ध न होने से व्यक्ति अनेक मार्गो से पतन के गत्र्त में गिर जाता है-
‘‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोंः’’
मन ही तो मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का कारण होता है। प्रसिद्ध वचन है-
आपदां कथितः ................तेन गम्यताम्।।
इन्द्रियों को संयमित न करना आपत्ति का मार्ग है, उनको जीत लेना सम्पत्ति का मार्ग है, जो मार्ग अच्छा लगे उसी पर चलना चाहिए। इन्द्रियों का संयम मन पर है तथा मन शरीर के स्वस्थ होने पर स्वस्थ रहता हैं। मन का शुभत्व ईष्वर की कृपा से होता है, ईष्वर की कृपा सुपात्र को प्राप्त होती है। सुपात्रता समस्त शरीर के स्वस्थ एवं शुभ होने पर प्राप्त होती है। इसीलिये अंग स्पर्श का विधान मन्त्र सहित किया गया है।
जल से अंग स्पर्श क्यों?
अंग स्पर्श में जल का प्रयोग विशेष अभिप्राय से किया जाता है। जल की शीतलता का स्पर्ष सम्पूर्ण अवयवों को शीतल शान्ति रहने की प्रेरणा देता है। यदि मन्त्र के साथ-साथ जल की स्पर्शानुभूमि को मन से संयुक्त करके दृढ़ संकल्प हो तो इन्द्रियों पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। बिना जल के यह अनुभूति पवित्र न हो सकेगी। अतः जल का प्रयोग इस विधि में आवष्यक समझा गया है। वैसे भी मनु के विचारानुसार भी-
‘‘अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति’’ ५/१0९
जल से शरीर शुद्ध होता है। जल शीतल, गतिशील एवं निर्मल होता है। हमारे शरीर की इन्द्रियां जल के समान शीतल-शान्त, गतिशील एवं निर्मल हों, इस संकल्प को बल प्राप्त होता है।
आचमन एवं अंग स्पर्श का सम्पूर्ण प्रभाव मन के संयोजन से सफल होता है। बिना मन से किया गया सम्पूर्ण कार्य लाभकारी नहीं होता है।
द्वितीय सोपान
ईष्वर स्तुतिप्रार्थनोपासना मन्त्र
आचमन एवं अंगस्पर्श के मन्त्रों के पश्चात् दैनिक यज्ञ में ईष्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना के मन्त्रों का पाठ करना चाहिये। महर्षि ने सर्वत्र शुभ कर्मो के आरम्भ में ईष्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना करने का निर्देष किया है। ये मन्त्र, अपनी अल्पता का बोध देते हैं, ईष्वर के सामथ्र्य का बोध देते हैं, सृष्टि के सभी विशाल तत्व उसी की सत्ता का परिचय देते हैं, ऐसा ईष्वर हमारा बन्धु है, वही हमारा कल्याण कत्र्ता है, इसी भाव को धारण कर सुपथ पर चलते हुए सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति हो सकती है, आदि भावों को पुष्ट करने वाले ये मन्त्र हैं। अतः हमारे विचार में पूर्ण श्रद्धा के साथ तन्मय होकर इन मन्त्रों का पाठ मधुर स्वर से करना चाहिए।
इन मन्त्रों का इस दृष्टि से अधिक महत्व है कि इन्हें महर्षि दयानन्द ने आर्ष बुद्धि से संकलित किया है। ऋग्वेद के मन्त्रों की संख्या 10552 है, यजुर्वेद की संख्या 1975 है, सामवेद की मन्त्र संख्या 1875 है तथा अथर्ववेद के मन्त्रों की संख्या 5977 है। इस प्रकार चारों वेदों में कुल मन्त्र हुये 20379। इनमें महर्षि की आर्ष बुद्धि ने इन आठ मन्त्रों का चयन विषेष अभिप्राय से ही किया है। अतः हमारी सम्मति में आचमन अंगस्पर्ष मन्त्रों के बाद बिना किसी विवाद के इन मन्त्रों का पाठ अर्थ चिन्तन के साथ करना चाहिए। इन मन्त्रों में निहित भावों को जानने से पूर्व स्तुति, प्रार्थना, उपासना का तात्पर्य एवं उसके फल को जान लेना आवष्यक है।
आर्योद्देष्यरत्नमाला के अनुसार महर्षि के शब्दों में स्तुति ‘‘जो ईष्वर वा किसी दूसरे पदार्थ के गुण, ज्ञान, कथन, श्रवण और सत्य भाषण करना है, वह स्तुति कहती है’’।
प्रार्थना ‘‘अपने पूर्ण पुरूषार्थ के उपरान्त उत्तम कर्मो की सिद्धि के लिये परमेष्वर वा किसी सामथ्र्य वाले मनुष्य के सहाय लेने को प्रार्थना कहते है’’।
उपासना-‘‘जिससे ईष्वर ही के आनन्द स्वरूप में अपने आत्मा को मग्न करना होता है, उसको उपासना कहते हैं’’।
मनुष्य का स्वभाव होता है कि किसी में महान् या उत्तम गुण हो तो वह उसकी प्रषंसा करता ही है। उपकारी के गुणों का कथन करते-करते व्यक्ति आनन्द में डूब जाता है। जो उपकारी के उपकार को स्वीकार नहीं करता है, वह मानव समाज में आदर का पात्र नहीं होता है। जो बालक अपने उत्तम माता-पिता के गुणों को, उपकार को नहीं मानता है, वह समाजमें हेय दृष्टि से देख जाता है।
सच पूछा जाय तो ईष्वर के अनन्त उपकार है, ये सुन्दर नेत्र दिये हैं, विविध दृष्य देखते हैं, आनन्दित होते हैं, नासिका से विविध गन्धों का आनन्द लेते हैं, रसना विविध रसास्वादन में रस लेती है और सभी ईष्वर की कृपा है, जिसने सभी पदार्थो की रचना की है, ऐसे उस महान् ईष्वर के गुणों का गान करना मानव का नैतिक कत्र्तव्य है।
लोक व्यवहार में हम सहायता किस व्यक्ति की करते हैं। आलसी, पुरूषार्थ-हीन व्यक्ति की सहायता कोई करता नहीं है, न करना चाहता है। आप कल्पना करें कि एक व्यक्ति जेब से हाथ डाले खड़ा है और वह आपसे कहता है भाई जी जरा अटैची उठाना, तो आप यहीं कहेंगे कि खुद तो जेब में हाथ डाले खड़ा है और हमसे कहता है अटैची उठा देा। दूसरी ओर एक सामान्य व्यक्ति एक बोझ उठाने का बार-बार प्रयत्न करता है, उठा नहीं पाता है। बस आपकी ओर जरा देखता ही है कि आप शीघ्र उसकी सहायता के लिए तत्पर होते हैं। ठीक ऐसी ही सहायता पूर्ण पुरूषार्थ के उपरान्त याचना परमेष्वर की ओर से हमें सुलभ होती है। परमेष्वर तो दयालु है, वह दया का समुद्र है किन्तु हम तो दया की कटोरी भी नहीं हैं तो दयालु ईष्वर हम पर दया कैसे करेंगे, हम दया के पात्र बनें इसके लिए प्रार्थना-पुरूषार्थ करना आवष्यक है।
उपासना
हमने यहाँ स्थानीय एक संस्कार में ध्यान के महत्व पर कुछ शब्द कहे-प्रतिदिन समय निकालकर 10,15,20,30 मिनट उपासना करने की ध्यान में बैठने की प्रेरणा दी। दो तीन मास बाद एक माता जी बोलीं-मैंने आपके बताये निर्देषानुसार ध्यान में बैठने का कार्य आरम्भ किया। एक सप्ताह बैठने पर भी मन स्थिर नहीं हुआ, इधर-उधर दौड़ता ही रहता है। ऐसी स्थिति में क्या करें? यह दुविधा प्रायः सभी को कचोटती रहती है, फिर वह ध्यान में बैठने का विचार ही छोड़ देता है। आईये, इस समस्या के समाधान पर विचार करें।
मैंने माताजी से कहा कि आपके घर में आपका कोई पुत्र है। माताजी ने कहा -‘जी हां दो पुत्र है, एक बैंक में कार्यरत है, दूसरा एम.एस.सी. कर रहा है। मैंने पुनः उनसे कहा-‘आपने कितने धैर्य से, निष्ठा से, लगन से पुत्र को योग्य बनाने में अपने जीवन को लगा दिया। २२, २३ वर्ष का आपका प्रयास आपकी निष्ठा सफल हुई और निष्ठा की उपलब्धि पुत्र का योग्य होना, अपने पैरों पर खड़ा कर देना, प्राप्त हुई। जीवन के इतने वर्ष सांसारिक योग्यता में, उपलब्धि में व्यतीत हुए। फिर ईष्वर की उपलब्धि में थोड़े समय के बाद आप निराष क्यों हैं? आपने यह कार्य छोड़ क्यों दिया। धैर्य से करती रहती।
स्मरण रखना चाहिये कि मन चंचल ही है, वह तो दौड़ेगा, उसे अव्याहत गति से दौड़ने दीजिये। प्रथम तो कुछ दिन बाहरी बातों में दौड़ेगा, कुछ दिनों दौड़ने दें। फिर धीरे-धीरे अभ्यास करके मन्त्रार्थ में दौड़ाना चाहिए। ईष्वर के जिस गुण की चर्चा हो उस गुण के विषाल स्वरूप के चिन्तन मेे मन को दौड़ाइये, निराषा न हों, धीरे-धीरे अभ्यास से निराकार परमेष्वर की व्यापकता में, उसकी विषालता में दौड़ेगा। सन्ध्या में मनसा-परिक्रमा मन्त्रों का विधान भी इसी दृष्टि से है। मैंने माताजी की वृत्ति देखकर उन्हें यह भी प्रेरणा दी कि भोजन के उपरान्त आधा या एक घण्टे का मौन रखिये। इस अवसर पर एकान्त में बैठें। न कुछ सुनने में ध्यान हो, न बोलने का विचार हो, बस शान्त स्थित रहने का अभ्यास करें। कहने की आवष्यकता नहीं कि इस उपाय से उन्हें आनन्द आया। गीता के द्वितीय अध्याय का 44 वाँ श्लोक इस तथ्य को इन शब्दों में वर्णित करता है-
भोगैष्वर्यप्रसक्तानां...............................विधीयते।। २/४४
अर्थात्-भोग ऐष्वर्य की संलग्नता में जिनका चित्त व्यस्त रहता है, ऐसे व्यवसायात्मक चित्तयुक्त बुद्धि समाधि में, ध्यान में नहीं रमती है, नहीं लगती है। अतः उपासना से पूर्व अन्तःकरण की पवित्रता, चित्त की शुद्धि आवष्यक है। इसलिए प्रथम ईष्वर की स्तुति-गुणों का गान करने का विधान है, तदनन्तर गुणों के अनुसार आचरण के लिए प्रार्थना-पुरूषार्थ का करना आवष्यक है। यही उपासना का क्रम है। उपासना की सफलता के लिए अभ्यास की आवष्यकता है।
ईष्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना का फल क्या है? इस प्रश्न का सुन्दर समाधान महर्षि ने सत्यार्थ प्रकाष के सप्तम समुल्लास में किया है-
‘‘स्तुति से ईष्वर में प्रीति, उसके गुण, कर्म, स्वभाव से अपने गुण, कर्म, स्वभाव से अपने गुण, कर्म, स्वभाग, का सुधारना, प्रार्थना से निरभिमानता, उत्साह और सहाय का मिलना, उपासना से परब्रह्य से मेल और उसका साक्षात्मकार होना।’’
उपर्युक्त वचन से यह तात्पर्य निकलता है कि अपने गुण, कर्म और स्वभाव यदि नहीं सुधरते हैं तो वह स्तुति व्यर्थ है, उस स्तुति से लाभ है जिसमें अपने गुणों का विकास हो, अपने कर्म महान् हों, अपना स्वभाव उत्तम बने। अभिमान जीवन का महान् शुत्र है।
निरभिमानता की उपलब्धि प्रार्थना की महान् उपलब्धि है। महान पुरूर्षो के जीवन में तो ईष्वर की स्तुति प्रार्थना से महान् गुणों का विकास होता है-
निदन्तु ..............पदं न धीराः।। भर्तृहरि नीति ७९
नीति में चतुर लोग निंदा करें या प्रषंसा करें, लक्ष्मी आवे या अपनी इच्छानुसार चली जावें, आज ही मृत्यु हो अथवा वर्षो के बाद हो। निष्चय से धैर्य शाली लोग न्याय के मार्ग से कभी विचलित नहीं होते हैं। यह गुण ईष्वर की उपासना से आता है। महर्षि सत्यार्थप्रकाष के सप्तम समुल्लास में लिखते हैं-
‘‘इसका फल-जैसे शीत से आतुर पुरूष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत्त हो जाता है, वैसे परमेष्वर के समीप प्राप्त होने से सब दोष दुःख छूटकर परमेष्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के सदृष जीवात्मा के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हो जाते हैं। इसलिये परमेष्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना अवष्य करनी चाहिए। इससे इसका फल पृथक् होगा, परन्तु आत्मा का बल इतना बढ़ेगा, वह पर्वत के समान दुःख प्राप्त होने पर भी न घबरायेगा और सबको सहन कर सकेगा। क्या यह छोटी बात है? और जो परमेष्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है।’’ सत्यार्थ प्रकाष सप्तम समुल्लास।
कृतघ्न का कोई प्रायष्चित्त नहीं है, उद्धार का कोई उपाय ही नहीं है। अतः इस दोष से बचना आवष्यक है। महर्षि निर्देशित इन मन्त्रों का पाठ सम्पूर्ण शुभ कर्मो में तथा दैनिक यज्ञ में अवष्य करना चाहिए।
इन मन्त्रों का महत्व अनेक दृष्टियों से समझा जा सकता है। यज्ञ से पूर्व याजक अपने उद्देष्य को -‘यद् भद्रं तन्न आसुवं’ जो कल्याणकारी हो वह हमें प्राप्त हो, वह प्रार्थना सविता देव से है। सविता देव का सामथ्र्य, उसकी शक्ति द्वितीय मन्त्र में वर्णित है तो तृतीय मन्त्र यस्य विष्व उपासते’ कहकर हमें यह कार्य करने की प्रेरणा देता है क्योंकि वह तो ‘‘महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव’’ अपनी महानता से जगत् का राजा है, इतना ही नहीं-उग्रा द्यौ. पृथिवी च दृढ़ा’’ उग्र पृथिवी और द्यौ को भी धारण करने वाला है- उसके समान कोई प्रजापति नहीं है-वही हमारा बन्धु है, पिता है, अमृत की प्राप्ति भी की उपासना से प्राप्त हो सकती है-भद्रता की याचना ऐसे सामथ्र्यशाली परमेष्वर से उचित है, इसकी प्राप्ति कैसे हो सकेगी? इसका उत्तर भी-‘‘अग्ने नय सुपथा’’ सुपथ पर चलने से ही यह सब सुलभ हो सकेगा।
एक अन्य दृष्टि से विचार करें तो -व्यक्ति में १. उत्पादन का अहम् २. सामथ्र्य का अहम् ३. दान का अहम् ४. शासन का अहम् ५. धारणा करने का अहम् ६. प्रजापालन का अहम् ७. बन्धुत्व का अहम् ८. पथ प्रदर्षन का अहम्- इन आठ प्रकार के अहम् के विनाश के लिए आठ मन्त्रों का उच्चारण आवष्यक है। इन मन्त्रों के अर्थ इन सम्पूर्ण ‘अहम्’ का विनाष करते हैं। ‘‘अहम्’’ का विनाष जीवन की महान उपलब्धि है।
ईष्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना का प्रथम मन्त्र
महर्षि दयानन्द ने ‘संस्कार विधि’ के सामान्य प्रकरण के प्रारम्भ में ही लिखा है-
‘‘सब संस्कारों के आदि में निम्नलिखित मन्त्रों का पाठ और अर्थ द्वारा एक विद्वान् वा बुद्धिमान पुरूष ईष्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना स्थिर चित्त होकर परमात्मा में ध्यान लगा के करे और सब लोग उसमें ध्यान लगाकर सुनें अज्ञैर विचारें।’’
इस तथ्य को ध्यान में रखकर महर्षि ने स्वयं इन आठ मन्त्रों के अर्थ लिखे हैं। अतः इन मन्त्रों के अर्थ का रसास्वादन महर्षि कृत अर्थ पर विचार करके प्राप्त करना चाहिये। ईष्वरस्तुति-प्रार्थनोपासना का प्रथम मन्त्र इस प्रकार है-
ओ३म् विष्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।
यद् भद्रं तन्न आसुव।। यजु. ३0/३
महर्षि कृत अर्थ इस प्रकार है-
हे सवितः-सकल जगत् के उत्पत्ति कत्र्ता, समग्र ऐष्वर्ययुक्त, देव -शुद्ध स्वरूप, सब सुखों के दाता परमेष्वर! आप कृपा करके, नः-हमारे, विष्वानि-सम्पूर्ण, दुरितानि -दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को, परासुव-दूर कर दीजिये। यत्-जो, भद्रम्-कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, तत् -वह सब, नः हमको, आसुव-प्राप्त कीजिये।
इस मन्त्र में दुरित दूर हों, भद्र प्राप्ति हो, यह तो प्रार्थना है शेष स्तुति है। इस मन्त्र में दुरितानि दूर पहले करने हैं, तब भद्र प्राप्ति होगी, यह क्रम हे। लोक व्यवहार में भी यह देखा जाता है। ‘पात्र को प्रथम मैल से रहित करते हैं, कमरे को पहले साफ करते हैं, तब अच्छी वस्तु पात्र में डालकर उसको उपयोग में ले सकते हैं। स्वच्छ कमरें में ही आनन्द के साथ निवास सम्भव होता है। अतः मन्त्र में भी प्रथम दुरित को दूर करने की प्रार्थना की गयी है, तब भद्र प्राप्ति की याचना है। वेदमन्त्र का यह क्रम व्यवहार से भी सिद्ध है।
अब विचार यह करें कि प्रार्थना किस से की जाती है। लोकव्यवहार में देखें तो प्रार्थना सदैव सामथ्र्यषाली से की जाती है। दुरित दूर करने के लिए ‘सविता’ से कहा गया है।
विष्वानि दुरितानि- महर्षि ने ‘विष्वानि दुरितानि’ का अर्थ किया है- सम्पूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःख। दुर्गुणी व्यक्ति ही दुव्र्यसनों का शिकार होता है। अतः चंचल मन को वष में करना चाहिये।
नेह..........यथोष्णता।
इस संसार में चञ्चलता से रहित मन कहीं नहीं देखा जाता है, चञ्चलता तो मन का धर्म ऐसे ही है जैसे अग्नि का धर्म उष्णता है। गीता में भी लिखा है-
असंशयं...............गृह्मते।। ६/३५
हे-महाबाहो! मन बड़ा चंचल है, कठिनाई से वश में आता है, इसमे कोई संषय नहीं किन्तु निरन्तर अभ्यास से तथा वैराग्य से यह वष में होता है।
इस तथ्य से मन वष में अर्थात् स्थिर होता है, परन्तु वष का अर्थ स्थिर करना नहीं अपितु उसकी गति का मार्ग बदलना है, कुमार्ग पर है तो सुमार्ग पर चलाना है। दुरित की दृष्टि से मन या तो दुर्गुणों की ओर अग्रसर होगा, या फिर दुव्र्यसनों का षिकार होगा या फिर दुःख समुद्र में गोते खायेगा। मन की दुरित वृत्तियों को इन तीन रूपों में निरूद्ध कर ही महर्षि ने समस्त बुराईयों के आधारभूत इन तीन रूपों का वर्णन किया है। अब प्रष्न है यह दूरित भाव कैसे दूर होंगे क्योंकि बिना पुरूषार्थ के प्रार्थना निष्फल रहेगी।
दुरितों को दूर करने के उपाय
इन दुरितों को समस्त बुराईयों को दूर करने के लिए हमें निम्न उपाय अपनाने चाहिए। दुर्गुणों को दूर करने के लिए स्वाध्याय को अपनाना चाहिए। प्रतिदिन स्वाध्याय करने से आत्म-षुद्धि होती है। आत्म संस्कार का सोपान स्वाध्याय है। इसीलिए विविध विद्याओं में पारगंत छात्र को आचार्य दीक्षान्त संस्कार के अवसर पर -स्वाध्यायान्मा प्रमदः’’ स्वाध्याय में कभी आलस्य न करो, का उपदेष देते थे। मनु महाराज ने भी -‘‘स्वाध्याये नास्त्यनध्यायः’’। अर्थात् स्वाध्याय में कभी अवकाष नहीं ग्रहण करना चाहिए, का उपदेष देकर स्वाध्याय का महत्व दर्षाया है। अतः दुर्गुण को दूर करने के लिए स्वाध्याय का सद्गुण ग्रहण करना चाहिए।
दुरितानि-दुव्र्यसन को दूर करने का साधन है-सत्संग। सत्संग का व्यसन जिसे प्राप्त होता है उसके दुव्र्यसन अनायास ही समाप्त हो जाते हैं। महाराज भर्तृहरि ने ठीक ही लिखा है-
जाड्यं धियो...................करोति पुंसाम्।। नीति २२
सत्संगति भक्त के सभी दुव्र्यसनों को समाप्त कर देती है। बुद्धि की मूर्खता को दूर करती है, वाणी में सत्य का संचार करती है, मान की उन्नति का मार्ग दिखाती है, चित्त को प्रसन्न करती है दिषाओं में यष का विस्तार करती है। निष्चय से सत्संगति कहो क्या नहीं करती है। इस प्रकार दुव्र्यसनों को दूर करने के लिए सत्संगति करनी चाहिए। सत्संग के पुरूषार्थ से ही दुव्र्यसन दूर होने की प्रार्थना सफल होती है।
दुरितानि- दुःखों को दूर करने का सर्वोत्तम साधन समर्पण का भाव है। समर्पण वह सुधा है जिसके पान से भयंकर दुःख भी दुःख नहीं प्रतीत होते हैं। जब देष भक्तों ने अपने आप को देष की स्वतन्त्रता के लिए समर्पित कर दिया, तब कारागार की भीषण यातनाएँ भी उन्हें दुःखदायी नहीं मालूम पड़ी। यहां तक कि फांसी का फन्दा भी उन्हें जय माला ही लगी।
एक व्यक्ति अपने आपको जब परिवार के लिए समर्पित करता है तब नानाविध कष्टों को सहता भी है, साथ ही अपने मालिकों के कटुवचन, अपमान, तिरस्कार आदि सभी सहन कर लेता है। समर्पित जीवन में प्राप्त दुःख, दुःख नहीं होते हैं।
यदि भक्त हृदय अपने आपको परमात्मा को समर्पित कर दे तो उसे लोगों के कटु वचन भी व्यथित नहीं करते हैं। उस पर बरसाये गये पत्थर भी उसे पुष्प लगते हैं। विष को अमृत समझते हैं। महर्षि ने तो विष दाता को धन देकर भागने का ही परामर्ष दिया। समर्पित हृदय करूणा से पूर्ण होता है। समर्पित भाव शारीरिक व्यथा को, दुःख को, दुःख नहीं समझता है।
इस प्रकार विष्वानि दुरितानि परासुव-हे भगवन् सम्पूर्ण दुर्गुण, दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःख दूर करने की प्रार्थना -स्वाध्याय, सत्संग एवं समर्पण के पुरूषार्थ से सफल हो सकती है। पुरूषार्थ हीन प्रार्थना सफल नहीं होती है। एक भी दुर्गुण, एक भी दुव्र्यसन तथा एक भी दुःख भद्र प्राप्ति में बाधक होता है। अतः विष्वानि-सम्पूर्ण दुरितानि-दुर्गुणादि दूर करने की प्रार्थना की गयी है, जो सर्वथा उचित है।
सवितः शब्द का महत्व
सत्यार्थ प्रकाष के प्रथम समुल्लास में महर्षि ने षुन्ञ् अभिषवे तथा षूड् प्राणिगर्भविमोचने दो धातुओं से सविता शब्द सिद्ध किया है। उनके अनुसार-‘अभिषवः प्राणिगर्भविमोचनं चोत्पादनम्, यष्चराचरं जगत् सुनोति सूते वोत्पादयति स सविता परमेष्वरः।
जो सब जगत् की उत्पत्ति करता है, अतः परमेष्वर का नाम सविता है। संस्कार-विधि में इस मन्त्र के अर्थ में महर्षि ने सविता- सकल जगत् के उत्पत्ति कत्र्ता, समग्र ऐष्वर्य युक्त, अर्थ किया है। सविता शब्द बोध दे रहा है कि दुरितानि को दूर करने के लिए जिससे प्रार्थना की जा रही है, वह ईष्वर सामथ्र्यशाली है। वह अपने इस सामथ्र्य से समस्त दुरितों को दूर करे। सामथ्र्य हीन से की गयी प्रार्थना निष्फल हो सकती है, किन्तु इस ‘सविता’ से की गयी प्रार्थना अवष्य सफला होगी। क्योंकि सकल जगत् का उत्पत्तिकत्र्ता होने से ही वह हमारा पिता है, पालक है। वह हमसे स्नेह करता है। ध्यान यह भी रखना है कि वह दरिद्र पिता नहीं है अपितु ऐष्वर्यषाली है। वह ऐष्वर्य युक्त है, सामथ्र्य युक्त है, अतः हमारी प्रार्थना को पूर्ण करने में सक्षम है। हमारी प्रार्थना अवष्य सफल होगी, यह आषा ही हमें पुरूषार्थ करने की प्रबल प्रेरणा देती है। निष्चय से-‘‘आषा सर्वोतमं ज्योतिः’’ आषा ही सर्वोत्तम प्रकाष होता है।
‘यद् भद्रं तन्न आसुव’ इसका अर्थ महर्षि ने किया है-
जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ है, वह सब हमको प्राप्त कीजिये। भद्र शब्द-‘भदि कल्याणे सुखे च’ के अनुसार भदि धातु से औणदिक रक् प्रत्यय के योग से बनता है। महर्षि ने जो यहां भद्र शब्द का -गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ अर्थ किया है वह उनकी ऋषि बुद्धि या आर्ष बुद्धि का वैशिष्टच है। दुरितानि का अर्थ किया है-दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःख। भद्र का अर्थ है- गुण, कर्म, स्वभाव (और पदार्थ)। दुरित शब्द दुर, उपसर्ग पूर्वक् इण् गतौ धातु से बनता है। तथा वैयाकरणों के अनुसार -‘गतेस्त्रयोऽर्थाः ज्ञानं गमनं प्राप्तिष्चेति’।
गति के तीन अर्थ हैं-ज्ञान, गमन और प्राप्ति। दुर्गुण दूर होंगे सद् ज्ञान से, ज्ञान का विकास होगा स्वाध्याय से।
दुव्र्यसन दूर होंगे सद् गमन, सद् व्यवहार या सत्कर्म से, सत्कर्म में प्रवृत्ति होगी सत्संग से।
दुःख दुर होंगे प्राप्ति से, प्रभु प्राप्ति से, प्रभु प्राप्ति होगी, भक्ति से समर्पण भाव से। यह समर्पण का भाव हमारे स्वभाव का अंग होना चाहिए। अतः भद्र का अर्थ महर्षि ने गुण, कर्म, स्वभाव प्रमुखता से किया है।
‘भद्र’ शब्द का अर्थ पदार्थ भी किया है। बिना पदार्थ के, भौतिक वस्तुओं के अभाव में सामान्य जीवन भी नहीं चल सकता है।
भूखा व्याकरण के सूत्रों से पेट नहीं भरता है और प्यास व्यक्ति काव्य रस से अपनी प्यास नहीं बुझाता है। कणाद मुनि ने धर्म की परिभाषा की है- ‘‘यतोऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः’’ इहलोक उन्नति तथा परलोक उन्नति या मोक्ष की प्राप्ति जिन कर्मो से होती है वे कर्म, धर्म हैं। कालिदास का वचन है-‘‘षरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’’। स्वस्थ शरीर ही धर्म की साधना में सक्षम होता है शरीर स्वस्थ रहता है भौतिक आवयष्यक साधनों की पूर्ति से, भौतिक आवष्यक साधनों की पूर्ति से, भौतिक वस्तुओं या पदार्थो से। भूखा व्यक्ति आत्म -साधना में कैसे प्रवृत्त हो सकता है? यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का वचन इस तथ्य को इस आलंकारिक शैली में व्यक्त करता है-
विद्यां चाविद्यां..............विद्ययाऽमृतमष्नुते।। यजु. ४0.१४
इहलोक से तरने के दो साधन या मार्ग हैं-विद्या अविद्या दोनों को ही जानना है, प्राप्त करना है। अविद्या से-भौतिक साधनों से मृत्यु को, सांसारिक दुःख को दूर करना है तथा विद्या से, ज्ञान से, आत्म बोध से अमृत को मोक्ष को, प्राप्त करना है।
इस आधार पर ही महर्षि ने ‘भद्र’ शब्द के ‘भदि कल्याणे सुखे च’ के अनुसार गुण कर्म स्वभाव और पदार्थ अर्थ किये हैं। भौतिक पदार्थो के बिना आत्म उन्नति सम्भव नहीं है। निष्चय से महर्षि की आर्ष बुद्धि का ही यह वैषिष्टच है जो उन्होंने त्याग-भोग, प्रवृत्ति-निवृत्ति, श्रेय-प्रेय के वैदिक सिद्धान्त को ध्यान में रखकर ‘भद्र’ शब्द का समीचन या सार्थक अर्थ किया है।
‘देव’ शब्द का महत्व
निरूक्त का वचन है-‘देवो दानाद्वा, द्योतनाद्वा0’ इत्यादि सुखों का दाता, ज्ञान का प्रकाषक व प्रकाष स्वरूप होने से परमात्मा का नाम देव है। महर्षि ने देव शब्द का अर्थ किया है- ‘षुद्ध स्वरूप, सब सुखों का दाता परमेष्वर’। लोक व्यवहार में जो व्यक्ति निर्मल अन्तःकरण वाला है, ज्ञानानुसार आचरण वाला है, वही शुद्ध पवित्र कहलाता है। परमेष्वर शुद्ध स्वरूप इस अर्थ में भी है कि उसके सब कर्म लोक कल्याणा कारक है, समानता के साथ बिना भेदभाव के-
‘‘याथातथ्योऽर्थान् व्यदधाच्दाष्वतीभ्यः समाभ्यः’’ यजु ४0/८
अर्थात् नित्य प्रजाओं के लिए ठीक-ठीक कत्र्तव्य पदार्थो का विधान करता है। इसी अर्थ में तो वह ईष्वर बिना किसी पक्षपात के सबको शुद्धस्वरूपता के साथ सुविधायें प्रदान करता है। वह तो ‘‘षुद्धम् अपापविद्धम्’’ यजु. ४0/८
सब इन्द्रियों में से यदि एक इन्द्रिय भी पथ भ्रष्ट हो जाये तो उससे ज्ञान सम्पन्न की भी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है या ऐसे नष्ट हो जाती है जैसे फूटे पात्र में से पानी बूँद-बूँद करके टपक जाता है और पात्र रिक्त हो जाता है। अतः दुरितानि का विषेषण ‘विष्वानि’ साभिप्राय रखा गया है अर्थात् ‘सम्पूर्ण बुराईयाँ’। एक भी बुराई शेष न रहे। एक भी दुर्गुण व्यक्ति को पतन की ओर ले जाने में समर्थ है। इन दुर्गुणों को सावधानी से दूर करना है। सम्पूर्ण दुर्गुणों के समाप्त होने पर ही ‘भद्र’ की प्राप्ति सुलभ है। दुर्गुणों को दूर कर सत्पात्रता प्राप्त करनी है। अतः मन्त्र ने ‘विष्वानि दुरितानि’ सम्पूर्ण- बुराईयों को दूर करने की प्रार्थना की गयी है।
मन्त्र में ‘यद् भद्रं’ कहा गया है। यहां ‘यद्’ शब्द परमात्मा के प्रति पूर्ण आस्था भाव को प्रकट करता है। जीव अल्पज्ञ हैं, अत$ उसे क्या पता है, उसके लिए क्या भ्रद्र है? कोई धन के माध्यम से ‘भद्र’ की प्राप्ति करता है, कोई निर्धनता में ही ‘भद्र’ के मार्ग पर अग्रसर होता है, कोई नानाविध कष्टों को प्राप्त कर ‘भद्र’ मार्ग पर अग्रसर होता है तो कोई विरक्त भाव को प्राप्त होकर ‘भद्र’ प्राप्त करता है। हम अल्पज्ञ है। हमें बोध नहीं है कि हमें ‘भद्र’ क्या प्राप्त हो। जन्म-जन्मान्तर के कर्मजाल में ग्रथित मानव अपनी अल्पज्ञता के कारण उसे जान भी कैसे सकता है? अतः ‘समर्पण’ भाव के साथ उस परमात्मा से प्रार्थना है-‘यद् भद्रं तन्न आसुव’ जो ‘भद्र’ हो वह हमें प्राप्त कराइये। हम तो आपको समर्पित है। समर्पण एवं प्राप्ति का सुन्दर योग ही इस मन्त्र का वैषिष्टच है।
ईष्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना के ये आठों मन्त्र ‘अहम्’ भाव को दूर करने वाले भी है। जो यह कहे कि मैं तुम्हारा भद्र करने वाला हूं, यह उसका मिथ्याभिमान ही है। क्योंकि किसका कब कैसे ‘भद्र’ सम्भव है यह ‘अल्पज्ञ’ के ज्ञान से परे है। अतः हम ‘भद्र’ करने वाले हैं आदि मिथ्या ‘अहम्’ भाव से बचाने वाला यह मन्त्र है।
द्वितीय मन्त्र
ईष्वरस्तुति प्रार्थनोपासना का द्वितीय मन्त्र सविता देव के सामथ्र्य को प्रकट करता है। ‘दुरित’ दूर करने की ‘भद्र’ प्राप्ति की प्रार्थना प्रथम मन्त्र में की गयी है। यह प्रार्थना सफल होगी या नहीं याचक यह शंका न करे, इसके निवारणार्थ महर्षि ने इस मन्त्र को क्रम में दूसरे स्थान पर रखा है। इस द्वितीय मन्त्र में उस ईष्वर के सामथ्र्य का उत्तम वर्णन किया गया है। द्वितीय मन्त्र इस प्रकार है-
ओं हिरण्यगर्भः............................विधेम।। यजु. १३/४
जो हिरण्यगर्भः- स्वप्रकाषस्वरूप, और जिसने प्रकाष करने हारे सूर्यचन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं, जो भूतस्य-उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का जातः प्रसिद्ध पति-स्वामी एकः एक ही चेतनस्वरूप आसीत् था, जो अग्रे-सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्ण समवर्तत- वर्तमान था, सः- सो (वह) इनाम् - इस पृथिवीम्- भूमि उत -और द्याम्- सूर्यादि को दाधार -धारण कर रहा है। हम लोग उस कस्मैं -सुखस्वरूप देवाय-शुद्ध परमात्मा के लिए हविषा-ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से विधेम-विषेष भक्ति किया करें।।
इस मन्त्र में परमेष्वर के सामथ्र्य का निम्न रूप में बोध होता है-
१. हिरण्यगर्भः- विभुत्व या विषालता की दृष्टि से।
२. समवत्र्तताग्रे- अग्रज की दृष्टि से।
३. भूतस्य जातः-उत्पादन सामथ्र्य की दृष्टि से।
४. पतिरेक आसीत्- स्वामित्व की दृष्टि से।
५. स दाधार पृथ्वी द्यातुतेमाम्-शक्तिमत्ता की दृष्टि से।
हमने यह वर्णन महर्षिकृत अर्थ की दृष्टि से किया है। प्रथम मन्त्र वर्णित प्रार्थना सफल होगी या नहीं होगी, इस शंका का निवारण हो, इसी दृष्टि से उस ईष्वर के, सविता देवे के सामथ्र्य का वर्णन् इस मन्त्र में किया गया है। ईष्वरीय सामथ्र्य का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
१. हिरण्यगर्भः- स्वप्रकाशस्वरूप। जिससे प्रार्थना की है वह स्वयं प्रकाष स्वरूप है। उस का प्रकाष उसका स्वयं का है, किसी अन्य तेजोमय पदार्थ से उसका प्रकाष गृहीत नहीं है।
महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाष प्रथम समुल्लास में ‘हिरण्यगर्भः’ का अर्थ इस प्रकार किया है-
‘‘ज्योति वै.................हिरण्यगर्भः।’’
जिसमें सूर्यादिक तेजवाले लोक उत्पन्न हो के जिसके आधार पर रहते हैं अथवा जो सूर्यादिक तेजःस्वरूप पदार्थो का गर्भ नाम उत्पत्ति और निवास स्थान है, इससे उस परमेश्वर का नाम हिरण्यगर्भ है।
उक्त के आधार पर ही महर्षि ने ‘हिरण्यगर्भ’ का अर्थ किया स्वप्रकाषस्वरूप और जिसने प्रकाष करने हारे सूर्य चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं। सूर्य पृथिवी से तेरह लाख गुण बड़ा है। जरा कल्पना करें कि सूर्य के तेरह लाख टुकड़े करें तो एक हिस्सा, एक भाग के बराबर पृथिवी है। सूर्य से भी विशाल ग्रह, नक्षत्रों आदि को जो धारण किये हुए है, उसकी विषालता के विषय में सन्देह नहीं रहता है। निष्चय ही वह ईष्वर-‘‘महतो महीयान्’’ है। यजुर्वेद के अनुसार -‘‘ स ओतः प्रोतष्च विभुः प्रजासु’’ ३२।८।।
वह सब में विद्यमान है, विभु-विषाल है।
इस प्रकार विभुत्व की दृष्टि से, विषालता की दृष्टि से उसका सामथ्र्य महान् है।
२. सवमत्र्तताग्रे-जो सब जगत् के उत्पन्न होनें से पूर्व विद्यमान था। निष्चय से ईष्वर, जीव और प्रकृति ये तीनों तत्व अनादि हैं। फिर अग्रज की दृष्टि से उसका सामथ्र्य किस अर्थ में समझना चाहिये?
निश्चय से तीन तत्व अनादि है। प्रकृति मात्र जड़ है, उसके जड़त्व के कारण स्वयं कुछ होने का सामथ्र्य नहीं है। दूसरा जीव है। जीव अल्पज्ञ है, अल्पशक्तिवाला है, अतः शरीरनिर्माणादि सामथ्र्य से वह हीन है। यह सामथ्र्य तो मात्र-सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान ईष्वर में ही है। यजुर्वेद का वचन है-
परीत्य भूतानि परीत्य लोकान् परीत्य सर्वाः प्रतिशो दिषष्च।
उपस्थाय प्रथमजामृतस्यात्मनात्मानमभिसंविवेष।। ३२।११।।
महर्षि ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में इसका अर्थ इस प्रकार किया है-
‘‘जो परमेष्वर आकाषादि सब भूतों में तथा सूर्यादि सब लोकों में व्याप्त हो रहा है। इसी प्रकार जो पूर्वादि सब दिषा और आग्नेयादि उपदिषाओं में भी निरन्तर भरपूर हो रहा है अर्थात् जिसकी व्यापकता से अणु भी खाली नहीं है जो अपने भी सामथ्र्य का आत्मा है और जो कल्पादि में सृष्टि की उत्पत्ति करने वाला है, उस आनन्द स्वरूप परमेष्वर को जो जीवात्मा अपने सामथ्र्य अर्थात् मन से यथावत् जानता है, वही उसको प्राप्त होके सदा मोक्ष सुख भोगता है।
इस सृष्टि निर्माणादि के साथ जो जीवात्मा को शरीर के साथ अनेक साधन प्रदान करता है निष्चय से वह अपने इस सामथ्र्य से अग्रज है। ऐसा सामथ्र्यवान् वह अग्रज निस्सन्देह हमारे सम्पूर्ण दुरितों को दूर करने में सक्षम है तथा ‘भद्र’ प्राप्त कराने में भी वह समर्थ हैं
३. भूतस्य जातः- उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का वही प्रसिद्ध (स्वामी है)। कितना सामथ्र्यशाली है वह। इस विषाल ब्रह्माण्ड का रचयिता है। वह इसका स्वामी है, वह अत्यन्त प्रसिद्ध है।
‘‘सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्’’
उस धाता ने, सबको धारणा करने वाले परमात्मा ने पूर्व के समान सूर्य चन्द्रादि उत्पन्न करके उनको धारण किया है। विविध प्रकार के वृक्ष, पुष्प्, फल, रस आदि सभी उसी के उत्पादन सामथ्र्य का परिणाम है। हम अपने शरीर को ही देखें तो इसकी अद्भुत रचना को देखकर उसके उत्पादन सामथ्र्य का बोध हमें होता है। अन्न खाने के लिए दाँत, रसास्वादन के लिए रसना, विविध प्रकार के शरीर के यन्त्र जो भोजन पचाते हैं, रस बनाकर रक्त में परिवर्तित करते हैं, अशुद्ध रक्त को शुद्ध करके सारे शरीर में रक्त को पहुँचाकर सम्पूर्ण नस नाडिछयों को पुष्ट करने की प्रक्रिया, मज्जा, मांस, अस्थि आदि शारीरिक विकास को करने वाले तत्वों का निर्माण, विविध दृश्यों को देखने वाले सूक्ष्म तन्तुओं से निर्मित नेत्रादि अवयवों के निर्माण का सामथ्र्य जिस ईष्वर में है, उस ईष्वर के प्रति पूर्ण आस्था, श्रद्धा भाव रखना चाहिए, जिनसे हमारी कामनायें सफल होगी, यह आषा, विष्वास उसके उत्पादन सामथ्र्य को देखकर हममें होना चाहिए।
विज्ञान की उन्नति को सब कुुछ समझने वाले, वैज्ञानिक को, सामथ्र्यषाली समझने वालों को यह समझ लेना चाहिए कि समस्त वैज्ञानिक मिलकर भी एक सिर के बाल पर निर्माण नहीं कर सकते हैं। ‘लाप्लास’ ने पृथ्वी के अनेक रहस्यों को खोलने वाली रचना लिखी, किन्तु उसमें रचयिता का कोई वर्णन नहीं था। जब मित्रों ने कहा तो लाप्लास का उत्तर था कि मुझे उसकी कोई आवष्यकता ही अनुभव नहीं हुई। वह लाप्लास जब मृत्यु की घड़ियां गिनने लगा, तब उस ने अपने मित्र से कहा-रचना का दूसरा संस्करण छपे तो सबसे पहले उस रचयिता को प्रणाम लिखना, उसके रचना सामथ्र्य को मेरा अभिवादन लिखना। लाप्लास कहता है- उसका सामथ्र्य महान् उसका रचना कौषल आष्चर्यजनक है, उसके नियम अटल है, मैं मरना नहीं चाहता हूँ किन्तु मुझे कोई बलपूर्वक अपनी ओर खींच रहा है, निष्चय से उसका सामथ्र्य अदुभुत है।
४. पतिरेक आसीत्- स्वामी एक ही चेतन स्वरूप था। वह परमेष्वर जिससे हम अपनी मनोकामना पूर्ण करना चाहते है वह चेतन स्वरूप ही नहीं अपितु स्वामी है, मालिक है, पति है, पिता है-
त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ।
अथा ते सुम्नमीमहे। ऋग्वेद ८।९८।११।।
यज्ञ का महत्त्व
क्या आप नित्य दैनिक यज्ञ करते हैं? अजी कहाँ समय मिलता है, फिर इस मँहगाई के जमाने में आप घी फूँकने की बात करते हैं, घी खाने को मिल जाये यही बहुत है, आदि उत्तर आजकल प्रायः सभी अनपढ़ नहीं अपितु पढ़े लिखे लोग भी यही उत्तर देते हैं। आष्चर्य तो तब होता है जब विज्ञान के ज्ञाता भी यही बातें दोहराते हैं।
हमारा एक पुराना शिष्य एम.एस.सी. उत्तीर्ण करने के बाद हमारे पास आकर बोला-गुरूजी, आप विद्यालय में दैनिक यज्ञ के बाद प्रायः यज्ञ के महत्त्व पर व ईष्वर की स्तुति पर कुछ बातें बताते थे। तब हम नादान थे, आपकी बात बलात् स्वीकार कर लेते थे, किन्तु अब मैंने एम.एस.सी. पास कर लिया है, अब आपके प्रत्येक बात का उत्तर देने में समर्थ हूँ। मैं ईष्वर को नहीं मानता हूँ, विज्ञान के नित-नये आविष्कारों ने यह सिद्ध कर दिया है कि मानव-बुद्धि ही सर्वोपरि है, ईश्वर नाम की कोई सत्ता नहीं है।
यह सुनकर हम तो आश्चर्य में पड़ गये कि विज्ञान की प्रगति व्यक्ति को नास्तिक बना ही है जब कि सृष्टि में छिपे हुए नित्य नये अज्ञात नियमों की खोज विज्ञान है। विज्ञान की यह खोज, यहाँ आविष्कार उस नियामक का, नियन्ता का बोध देता है। फिर भी हमने छात्र पर स्नेहभरी दृष्टि डालकर कहा-हमारे एक प्रष्न का उत्तर आप देंगे-जरा बतायें हम जो रोटी खाते हैं, उसका शरीर में क्या बनता है? छात्र का उत्तर था-जी, शरीर के पोषक तत्त्व बनते हैं, रक्त, माँस, मज्जा आदि। हमने सरलता से कहा कि सौ रोटियाँ यहाँ अभी मँगवाते हैं, आप वैज्ञानिकों से कहें जिस प्रक्रिया से ये शरीर में रक्तादि बनते हैं वैसे ही ये यहाँ बना दें। षिष्य शान्त था। हमने उससे कहा परमात्मा की क्या उत्तम रचना है कि शरीर निर्माण के साथ सभी के शरीर में एक जैसे यन्त्र बना दिये, जो खाये हुए पदार्थो को शरीर के पुष्ट बनाने में लग जाते हैं, यह सब के शरीर में एक जैसा है। यही तो उसका नियम है, अद्भुत नियम है।
मैंने कहा-पुत्रा! वैज्ञानिकों के सम्मेलन में ही एक महान् वैज्ञानिक ने कहा था कि वैज्ञानिकों को अपने सफल नूतन आविष्कार के लिए उस जगत् पिता के आगे नतमस्तक होना चाहिए, अन्यथा क्या हम सिर का एक बाल भी बना सकते हैं? नहीं बना सकते।
शिष्य वह भी आधुनिक शिष्य जल्दी हार माननेवाला नहीं था, बोला चलिये ईष्वर पर फिर कभी बात कर लेंगे किन्तु मैं आज तक अच्छी तरह यह नहीं समझ पाया कि हमें प्रतिदिन यज्ञ क्यों करना चाहिये, व्यर्थ घी फूंकने से क्या लाभ, फिर यज्ञ में मन्त्र बोलने से क्या लाभ है, साथ ही यज्ञ में समिधा आदि प्रयोग का विषेष विधान है। आदि-आदि बातें कभी समझ में नहीं आयी। कृपया यज्ञ शब्द का अर्थ समझाते हुए क्रमषः नित्य क्यों करना चाहिये, इसको आज समझ दें। आप तो जानते ही है कि मनुष्य स्वभावतः महत्त्व जानने पर ही, लाभ जानने पर ही श्रद्धा भाव से किसी कर्म को साधु सम्पन्न करने में प्रवृत्त होता है।
हमें अपने षिष्य का विचार अच्छा लगा, कि उसे थोड़ा बहुत समझाया, किन्तु सोचा क्यों न यह विचार सब तक पहुँचे। तो आइये पहले यह विचार करें कि प्रतिदिन यज्ञ क्यों करें?
वर्तमान में अनेक समस्याओकं से घिरा हुआ मनुष्य पीड़ित है। धन है तो शान्ति नहीं है। पुत्र है तो शान्ति नहीं, समस्त सुख के साधन है फिर भी जीवन अधूरा अधूरा है। लगता कुछ कमी है, कुछ खो गया है, सब कुछ पाने पर भी कुछ पाना शेष है, क्या है वह यह समझ में नहीं आता है। सत्य तो यह है कि भौतिकता, केवल भौतिक सम्पत्ति की दौड़ ने हमें यह टीस, यह व्याकुलता, यह अशान्ति दे दी है। भौतिक सम्पत्ति ने हमें क्या दिया है, यह एक शायर के शब्दों में इस प्रकार है-
इस दौर-ए तरक्की के अन्दाज निराले हैं।
जेहनों में तो अन्धेरे हैं सड़कों पर उजियाले हैं।।
सत्य ही बाहरी दृष्टि से हम उन्नत हैं किन्तु मनों में अन्धेरे हैं।
क्या आप इस अन्धेरे से बचना चाहते हैं, क्या शान्ति चाहते हैं, मानसिक शान्ति, वह शान्ति जो प्रत्येक दशा में हमें आनन्दित रखे, तो हम आप से कहेंगे बिना अधिक सोचे समझे आप घर में प्रतिदिन यज्ञ करना आरम्भ कर दें। यज्ञ में वर्णित मन्त्रों, के भाव, जिसका वर्णन हम आगे करेंगे, से आपके चित्त का पर्यावरण शुद्ध होगा, अन्तः करण में पवित्रता का संचार होगा, अशान्ति दूर होगी-और आप शान्ति पा सकेंगे।
हम संसार में रहते हैं, स्वाभावकि रूप से इस शरीर को स्वस्थ रखने के लिए हमें वायु, जल व अन्न की आवश्यकता है। प्रकाश देनेवाला सूर्य न हो, शीतलता, अन्न व औषधि आदि जीवन शक्ति डालनेवाला, रस डालने वाला चन्द्र न हो, बादल न हों, वर्षा न हो, ऋतुओं की अनुकूलता न हो, वृक्ष न हो, फल-फूल न हो आदि सृष्टि की प्राकृतिक सम्पदा न होते हमारा जीवन कैसे चलेगा, कभी आपने इस पर विचार किया है। ये शुद्ध होंगे तो हमारा जीवन शुद्ध होगा, स्वस्थ होगा और ये दूषित रहेंगे तो शरीर स्वस्थ न रहेगा और अस्वस्थ शरीर मात्र सुख के साधनों को एकत्रित कर लेने मात्र से सुखी शान्त नहीं होगा।
कभी आपने सोचा ये दूषित क्यों होते हैं? जबकि प्रकृति तो शुद्ध वायु, शुद्ध जल, शुद्ध प्रकाश आदि की सम्पत्ति देती है। थोड़े से चिन्तन से यह स्पष्ट हो जायेगा कि मनुष्य अपने लिए सुख के साधन चाहता है, इन साधनों के लिए बड़ी-बड़ी फैक्टरियाँ, कारें, स्कूटर आदि अनेक साधन बना लिये हैं। इन साधनों का धुंआ, गैस आदि अन्तरिक्ष को दूषित कर रहा है। दूसरे हम प्रकृति से प्रत्येक तत्व शरीर में शुद्ध रूप में ग्रहण करते हैं किन्तु जब इन्हें शरीर से निकालते हैं तो पूर्ण दूषित रूप में निकालते हैं।
वायु हम शुद्ध, सुगन्धित ग्रहण करते हैं किन्तु हमारी सांस दुर्गन्धमय होती है, हम जलीय तत्व शुद्ध रूप में ग्रहण करते हैं किन्तु पसीने, मूत्रादि रूप में दूषित निकालते हैं, हम अन्न तो शुद्ध पवित्र ही ग्रहण करते हैं किन्तु मल के रूप में अत्यन्त दुर्गन्ध शरीर से निकालते हैं। इस प्रकार हम स्वयं प्राकृतिक पर्यावरण को दूषित कर देते हैं।
प्रष्न यह है कि जब यह दूषित पर्यावरण हमारे लिए हानिप्रद है, यह दूषित अन्तरिक्ष हम को अशुद्ध वायु, अशुद्ध जल एवं अशुद्ध अन्नादि प्रदान करेगा तो हम कैसे स्वस्थ रह सकेंगे, कैसे सुखी रह सकेंगे। प्रकृति के ये देव-वायु देवता, जल देवता, अन्न देवता आदि तथा इनका प्रमुख स्थान अन्तरिक्ष देवता ही दोषमय होगा और उनको दूषित करने के भी हम ही कारण हैं तो इन्हें शुद्ध कैसे करें। व्यास जी ने इस रहस्य को इन शब्दों में प्रकट किया है-
देवान्.......श्रेयोऽवाप्स्यथ।। गीता अ. १!!११!!
इस यज्ञ के द्वारा इन जड़ देवों को शुद्ध करो वे देव तुम्हें स्वस्थ सुखी रखेंगे। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे को स्वस्थ रखने से परम कल्याण की प्राप्ति होगी। वैसे भी ब्राह्यणग्रन्थों के भी वचन है-‘‘स्वर्गकामो यजेत’’ 1, ‘‘नौर्ह वा एषा स्वग्र्या यदग्निहोत्रम्’’ 2 ‘‘यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म’’।3
अर्थात् स्वर्ग की कामना है तो यज्ञ करना चाहिए। निश्चय से यह अग्निहोत्र ही स्वर्ग की नौका है। यज्ञ श्रेष्ठतम कर्म है। ऐसे अनेक वचन यह सन्देष देते हैं कि हमें सुख के लिए, शान्ति के लिए, पर्यावरण शुद्धि के लिए प्रतिदिन यज्ञ करना चाहिए।
पर्यावरण भौतिक भी है, मानसिक भी! भौतिक पर्यावरण के दूषित होने के कारण हम ही हैं। अपनी सुविधा के लिए कल-कारखाने, रेलगाड़ी आदि अनेक साधन अन्तरिक्ष को अपने धुएं से, गैसीय तत्व से दूषित कर रहे हैं। इस भौतिक उन्नति ने हमें क्या दिया है?
आज परिवार टूट रहे हैं, विघटन बढ़ गया है। एक पुत्र धन के लिए, जायदाद के लिए, एकाधिपत्य के लिए पिता की मृत्यु की प्रतीक्षा करता है। भारत का वह आदर्ष-
‘मातृदेवो भव पितृदेवो भव’ तैत्तिरीयोपनिषत्-१.११.२
मता के भक्त, पिता के भक्त बनो-
अनुव्रतःपितुः पुत्रो, मात्रा भवतु संमनाः।। तथा अथर्व. ३.३0.२
मा भ्राता........भद्रया ।। अथर्व ३. ३0.३
अर्थात् -पुत्र पिता की आज्ञा का पालन करने वाला बने, माता का आदर करे।
भाई भाई से, बहन-बहन से तथा भाई-बहन से , बहन-भाई से द्वेष न करे, साथ रहते हुए समान व्रतवाले (स्नेह, तप, त्यागवाले) होकर परस्पर कल्याणकारी वाणी वाले अर्थात् पारस्परिक व्यवहार इतना शुद्ध, पवित्र तथा मधुर हो जिससे कि भद्र-इहलोक कल्याण तथा परलोक कल्याण हो।
यह आदर्श, यह पुनीत भाव आज दिवा स्वप्न हो गया है, कारण स्पष्ट है मानसिक पर्यावरण की अशुद्धि। इस मानसिक पर्यावरण की अशुद्धि। इस मानसिक पर्यावरण की अशुद्धि ‘यज्ञ’ द्वारा दूर होती है। यज्ञ ही वह साधन है जो फिर से उस मानव का जिसमें त्याग, तपस्या, स्नेह, समर्पण के गुण हो, का निर्माण कर सकता है।
यज्ञ में बोले जाने वाले मन्त्र अन्तरिक्ष में दूषित ध्वनि तरंगों में परिवर्तन की सामथ्र्य रखते हैं, चित्त पर पड़े जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों को, अशुद्ध संस्कारों को शुद्ध करते हैं, मन्त्रों में निहित भावों के द्वारा आचरण में पवित्रता का संचार होता है, यज्ञ में की जाने वाली विधि जीवन निर्माण की दिषा को प्रबुद्ध बनाती है। प्रतिदिन किये जाने वाले यज्ञ के द्वारा, दैनिक यज्ञ के द्वारा भौतिक मानसिक एवं सामाजिक पर्यावरण का शुद्धिकरण होता है। भौतिक, मानसिक एवं सामाजिक रोगों के विनाश का साधन, सर्वोतम साधन दैनिक यज्ञ है।
वैसे भी मनुष्य लोकव्यवहार में उपकार करने वाले के प्रति कृतज्ञ होता है, उसके गुणों का यत्र तत्र सर्वत्र वर्णन कर आत्मतोष पाता है। किसी सुन्दर कलाकृति को देखकर प्रसन्न होता है, प्रशंसा करता है, वाह-वाह करता है, जो इस कार्य को नहीं करता उसे अज्ञानी मूढ़ समझा जाता है। कृतज्ञता का भाव, किये हुए उपकार को मानने का भाव जिसमें नहीं होता है, समाज उसे कृतघ्न कहकर हेय दृष्टि से देखता है।
हमारे विचार से जो दैनिक यज्ञ नहीं करता है, वह ईष्वर के कृत उपकारों के प्रति कृतज्ञता का भाव नहीं रखता। सृष्टि में उसकी सुन्दर उपादेय कलाकृति को देखकर उसकी प्रशंसा, उसकी स्तुति नहीं करता है, वह समाज में ज्ञानवान् है? यह कैसे कहा जा सकता है। उस कलाकार की कृति ने सूर्य, चन्द्र, आकाष, अन्तरिक्ष, वायु, अग्नि आदि अनेक उपादेय तत्त्व बनाये हैं, जिनके अभाव में हमारा जीवन ही कठिन नहीं असम्भव हो जाता। उसने नेत्र दिये हैं, प्रकाष दिया है, जिससे हम विविध सौन्दर्य को देखकर आनन्दित होते हैं, रसना दी है विविध वस्तुओं का रसास्वादन कर आनन्दित होते हैं, कान दिये है जो विविध नाद सौन्दर्य से चित्त को आल्हादित करते हैं। हमारे पाठक इनमें से एक के अभाव की कल्पना करें फिर चिन्तन करें तो उस कलाकार के कला कौषलका अपने ऊपर हुए उपकारों का भाव जागृत हो जायेगा। इन उपकारों को गुणनुवाद करना परमेष्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना हमारा नैतिक कर्तव्य हो जाता है। इस कर्तव्य पूर्ति का साधन ‘दैनिक यज्ञ’ है।
यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का द्वितीय मन्त्र है-
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे। ४0/२
अर्थात् -इस संसार में कर्म करते हुए ही सौ वर्ष तक (आयु पर्यन्त) जीने की इच्छा रखनी चाहिए। यहाँ कर्म करने के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है। किन्तु कर्म इस प्रकार निष्काम भाव से करने चाहिये, जिससे कर्म बन्धन के कारण न बनें।
क्या आप चाहते है कि वह गुर सीख लें कि हम कर्म भ्ज्ञी करें किन्तु कर्म बन्धन के कारण न बनें। इस प्रकार फलेच्छा रहित, आसक्ति रहित कर्म करने का अभ्यास होना चाहिए। दैनिक यज्ञ ही वह अभ्यास है जिसके करने से, जीवन को यज्ञमय बनाने से, प्रत्येक कर्म को समर्पण भाव से करने की प्रवृत्ति का विकास होता है। श्रीमद् भगवद्गीता ने इस भाव को इन सरल शब्दों में व्यक्त किया है-
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र........समाचार।। १३/९
यज्ञ के अतिरिक्त यज्ञीय भाव से रहित किये गये कर्म बन्धन में, दुःख में, प्रपञ्च में फंसाने वाले होते हैं, अतः समर्पण भाव से कर्म करना चाहिये, आसक्ति के लगाव के तृष्णा के त्याग से ही समर्पण भाव का जीवन में समावेश हो सकता है।
अन्त में हम तो यही कहेंगे कि आप उलझन भरे, समस्याओं से भरे हुए जीवन से छुटकारा चाहते है, यदि आप चाहे हैं प्रतिदिन नवीन से नवीन रोगों के शिकार होकर स्वस्थ रहने के आनन्द को न खावें, भौतिक पर्यावरण की अशुद्धि से बचें, यदि मानसिक चिन्ताओं की सुरसा राक्षसी से बचना चाहते हैं, यदि आप में यह अभिलाषा हो कि हम उस अनन्त वैभव सम्पन्न, आनन्द-निधान के प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट कर अपने को उदात्त बनावें, निष्चय से हम यदि संसार के बन्धनों से छूटना चाहते हैं, वासनाओं के जाल से मुक्त होकर अहर्निष आनन्द में रहना चाहते हैं तो संकल्प लें कि हम दैनिक यज्ञ करेंगे, अवष्य ही करेंगे।
यज्ञ ही देवपूजा है
कुछ वर्षो पूर्व बम्बई में श्री रामचन्द्र आर्य ने ‘अन्धेरी’ में ‘सामवेद पारायण यज्ञ’ रखा। इस यज्ञ के अवसर पर लेखक ने यज्ञ विषयक अनेक शंकाओं का सरल समाधान किया था। उस अवसर पर एक यज्ञ-श्रद्धालु ने कहा-
‘ब्रह्मा जी एक प्रष्न हमारा है, उसका समाधान करने की कृपा करें। प्रष्न पूछने पर उन्होंने कहा आर्यसमाजी नास्तिक होते हैं। यह कैसे? वे उत्तर में बोले-कभी किसी भी अवसर पर मन्दिर में जाते नहीं हैं, सिर झुकाते नहीं हैं, पूजा पाठ करते नहीं हैं। हाँ यज्ञ अवष्य कर लेते हैं। नामकरण, चूड़ाकर्म, विवाह, गृहप्रवेश आदि कोई कार्य हो तो बस यज्ञ कर लेते हैं। न किसी देवी-देवता की पूजा करते हैं, न सत्यनारायण की कथा करते हैं। भला जो पूजा न करता हो, वह आस्तिक कैसा? भला हवन कर लेना, यज्ञ कर लेना क्या कोई देव पूजा हुई?
हमारी दृष्टि में प्रश्न बहुत अच्छा था, पूछने वाले बहुपठ या शास्त्रज्ञ नहीं थे, किन्तु श्रद्धालु अवष्य थे। वे इसका सरल समाधान चाहते थे। सरल से तात्पर्य सामान्य व्यक्ति के गले में उत्तर जाये, उसकी समझ में आ जाये, ऐसा समाधान। आइये! विचार करें कि यज्ञ देव पूजा है या नहीं। प्रष्न कत्र्ता का उचित समाधान हो, प्रतिदिन मन्दिर में जाकर सिर झुकाना, नमन करना मात्र को पूजा समझने वाले व्यक्ति की दृष्टि से समाधान।
पूजा किसे कहते हैं-
इसको समझने के लिए पहले जन सामान्य की दृष्टि से पूजा किसे कहते हैं, वह क्यों करते हैं, इसे समझ लें तो उत्तम रहेगा।
जन सामान्य की दृष्टि में पूजा का तात्पर्य तो केवल इतना मात्र है कि किसी मूर्ति के आगे सिर झुका देना, अगरबत्ती या धूप जला देना, अधिक से अधिक शंख, घंटा आदि बजाकर आरती कर लेना देव पूजा है, परमेष्वर की पूजा है। हमारे एक अध्यापक साथी अंग्रेजी प्रवक्ता हैं, पढ़े लिखे हैं, एक दिन हमसे बोले-शास्त्री जी, आप प्रतिदिन यज्ञ करते हैं तो मैं भी प्रतिदिन बिना ईष्वर की पूजा किये कुछ खाता-पीता नहीं हूँ। मैंने कहा-यह आपका नियम है, वत्र्तमान समय को देखते हुए अच्छा नियम है।
एक दिन हमें उनके घर जाने का अवसर मिला। हम प्रातः 8 बजे उनके यहाँ पहुंचे, उनके साथ अन्य साथी के यहाँ ‘कथा’ में जाने का विचार बना था। देखा तो एक केटली में चाय थी, वे चाय पी रहे थे, बोले-दो तीन कप चाय पीने के बाद ही मैं शौचादि नित्य कर्म करता हूँ। मैंने कहा-जल्दी करो, वहाँ मित्र के यहाँ ‘कथा’ में समय पर पहुँचना है। बोले -बस 15-20 मिनट लगेगें, तब तक आप आज के समाचार पढ़ लीजिये। सचमुच वे तैयार होकर बीस मिनट में आ गये, बोले-बस अभी आया, बिना ‘पूजा’ किये बाहर नहीं निकलता हूँ, बस जरा पूजा कर आऊँ। हमने सोचा-अब इतनी देर से बैंठे हैं तो और सही, जाना तो है इनके साथ ही। बस जी, आ गये बोले-शास्त्री जी, चलिये। मैंने आष्चर्य से पूछा-पूजा? बोले -कर आया। हमने पूछा-इतनी जल्दी, बोले-देर क्या लगती है? घर के बड़े से आले में विष्णु, कृष्ण, हनुमान व देवी के चित्र रखे हैं, बस धूप बत्ती जलाकर सब पर घुमा दी, मन में कल्याण करो, अपराध क्षमा करो कहा-बस पूजा हो गयी।
यह सब हमने इस भाव को दर्शाने के लिए लिखी कि जब एक पढ़ा लिखा एम.ए. पास व्यक्ति उक्त कार्य को पूजा सझता है तो सामान्य जन की तो बात ही क्या? आपने देखा होगा चलते-चलते मन्दिर दीखा तो सिर झुका दिया, हाथ जोड़ लिये सोचा-पूजा हो गयी। एक आदरणीय बहन ने अपना अनुभव बताया-एकान्त रास्ते में मेरा स्कूटर खराब हो गया, मैंने सोचा-प्लक खोलकर देखूँ। इतने में क्या देखती हूँ कि एक मोटर साईकिल पर एक युवक-युवती थे। पीछे बैठी युवती ने बड़ी जोर से एक ओर देखकर हाथ उठाकर -‘हाय हनु’ कहा। उनकी गाड़ी जाने पर बहन जी ने सोचा-उधर कोई है नहीं, फिर इसने ‘हाय’ कहकर किसको विष किया। अर्थात् सम्मान दिया। वे बोली-‘‘ध्यान से देखने पर दिखाई दिया कि दूसरी ओर एक छोटी सी हनुमान की मूर्ति थी। उस हनुमान भक्त ने ‘हाय हनु’ कहकर उसकी भावनानुसार हनुमान की पूजा की।’’ वर्तमान समय में इसे ही ‘‘हाय हनु’’ वाली पूजा को देव पूजा समझा जाता है, यही उनकी दृष्टि में ईष्वर की पूजा है।
आईये, विचार करे कि पूजा का तात्पर्य क्या हैं? शास्त्रानुसार-‘पूजनं नाम सत्कारः’ अर्थात् यथोचित व्यवहार करना, पूजा है। लोक व्यवहार में भी यही प्रचलित है। भूखा बालक जब भूख-भूख चिल्लाता है तो माँ कहती है दो मिनट में तेरी पेट पूजा करूँगी। यहाँ पूजा से तात्पर्य हाथ जोड़ना या पेट की आरती करना नहीं, अपितु यथोचित व्यवहार भोजन खिलाना है। दुष्ट के लिए कहते हैं, पीठ पूजा कर दो। मनु ने लिखा है-
‘‘यत्र नार्यस्तु.............भूषणाच्छादनाशनैः।३।५९।।
अर्थात् नारियों की सदैव भूषण, वस्त्र तथा भोजनादि से पूजा-सत्कार, सम्मान करना चाहिए। इस प्रकार पूजा का अर्थ यथोचित व्यवहार, सत्कार, सम्मान करना होता है।
पूजा क्यों-दुर्जन तोष न्याय से पूजा का अर्थ मात्र देवालयों में स्थित देव पूजा स्वीकार कर लिया जाये तो भी वह पूजा क्यों की जाती है? यह जानना आवष्यक है। प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी कामना से पूजा करता है। अपनी-अपनी इच्छा पूर्ति के लिए पूजा की जाती है। तात्पर्य यह है कि पूजा लाभ के लिए की जाती है, स्वर्ग-सुख प्राप्ति के लिए की जाती है।
संसार में सुख किस से प्राप्त होता है, यदि इसका चिन्तन करें तो अनेक वस्तुएँ सुखदायक है, यही कहा जायेगा। किन्तु सत्य पूछें तो सब से अधिक सुख, जिसके बिना जीवन, जीवन ही न रहे, वह प्राप्त होता है-हवा, पानी एवं अन्न से। क्या हम यह अनुभव नहीं करते है कि हवा के बिना जीवन तो क्या संसार भी अत्यल्प समय के लिए भी नहीं टिक सकता है। जल के बिना कुछ दिनों चल सकते हैं किन्तु अधिक दिनों तक नहीं। आप कल्पना करे कि अनेक देषों का राजा यदि प्यासा मरूस्थल में भटक रहा हो, प्यास से तड़प रहा हो, व्याकुल हो रहा हो, उस समय उससे एक गिलास पानी का मूल्य मागे तो वह अपना सारा राज्य देने को तैयार होता है। निष्चय से प्यासे के लिये एक गिलास पानी के सामने सारा संसार ही तुच्छ हो जाता है, सारे संसार का वैभव व्यर्थ है। इसी प्रकार अन्न का महत्व भी जीवन में सर्व विदित है।
अब आप विचार करें कि क्या मन्दिर, गुरूद्धारा मसिजद तथा चर्च में की जानेवाली तथ कथित पूजा से क्या वायु, जल एवं अन्न की शुद्धता के लिए कोई प्रयत्न होता है, जब कि वर्तमान में तो यत्र-तत्र सर्वत्र दूषित पर्यावरण पर अनेक देश क्या सारा विष्व ही चिन्तित है। तो इन तथा कथित पूजाओं से हमें क्या लाभ मिल रहा है, यह चिन्तनीय है। निस्सन्देह यह पूजा नहीं, सच्ची देव पूजा नहीं है। फिर प्रश्न है-सच्ची देव पूजा क्या है?
देव पूजा शब्द में से पहले देव किसे कहते हैं, यह जान लेना आवष्यक है। निरूक्त में वर्णित -देवो दानाद् व दीपनाद् वा द्युस्थानों भवतीति वां 1 देव शब्द के स्पष्ट एवं शास्त्रीय अर्थ को छोड़कर जन सामान्य की दृष्टि से कहे तो-देव वह हैं जो देता है, बदले में कुछ चाहता नहीं हैं। सूर्य देवता, वायु देवता, वृक्ष देवता, पृथिवी देवता आदि जड़ देव जीवन देते हैं, बदले में कुछ नहीं चाहते हैं। चेतन देवों में माता, पिता, आचार्य, अतिथि, सन्त आदि आते है तथा समस्त देवों का देव परमपिता परमेष्वर है। ये सभी अर्थात् यथोचित व्यवहार, सम्मान, सुरक्षा द्वारा अधिक कल्याण, ग्रहण करना चाहते हैं। इस प्रकार चेतन देवों की तो हम पूजा करते रहते हैं, सम्मान करते रहते हैं, किन्तु जड़ की पूजा कैसे की जाये?
इस प्रष्न के समाधान से पूर्व यह जान लेना आवष्यक है कि ये जड़ देवता हमारा क्या और कैसे कल्याण करते हैं? हमारा नित्य का अनुभव हमें यह बताता है कि बिना वायु, जल एवं अन्न के हमारा जीवन चलता नहीं है। इन तीनों की स्थिति द्युलोक, अन्तरिक्षलोक एवं पृथिवीलोक है। उक्त तीन लोक जीवन के लिए आवष्यक है। सृष्टि निर्माता परमेष्वर ने इन्हें शुद्ध, स्वस्थ एवं पवित्र निर्माण किया, किन्तु मानव ने अपनी भौतिक आवष्यकताओं की पूर्ति के लिए जो कल कारखाने, रेल, कार आदि अनेक निर्माण किये हैं। इन निर्माणों से द्यु, अन्तरिक्ष एवं पृथिवी दूषित होगी। हम दूषित जल, अन्न ग्रहण करेंगे तो अस्वस्थ होंगे। आनेवाली सन्तान लूली, लंगड़ी विक्षिप्त आदि रोगों से युक्त होगी। इन सबके कारण हम हैं, मनुष्य हैं, हमारी मात्र भौतिक उन्नति है।
निष्चय से मन्दिरों में आरती करने से ये तीनों लोक, यह पर्यावरण शुद्धि न होगा। संसार की कोई पूजा पद्धति इन्हें शुद्ध, स्वस्थ करने में सक्षम नहीं है। इसीलिए हमारे दूरदर्शी महान् वैज्ञानिक ऋषियों, महर्षियों ने ‘यज्ञ की पावन पद्धति का आविष्कार किया था तथा यज्ञ को ही ‘देवपूजा’ कहा।
यज्ञ देवपूजा कैसे?
ऊपर हमने जड़ चेतन देव बताये। इनमें से चेतन देवों की पूजा यथोचित सत्कार या व्यवहार से सम्भव है तथा वे हमारी पूजा से, सम्मान से तृप्त होकर हमारा कल्याण करते हैं। प्रश्न तो जड़ देवों का है, इनकी पूजा कैसे हो? यह तो स्वीकार है कि इनज ड़ देवों के शुद्ध होने से हमारा जीवन स्वस्थ्य एवं सुखमय होता है। वायु, जल, अन्न जीवन के लिए आवष्यक तत्त्व हैं। इनकी पूजा हम कैसे करें, बात बड़ी उलझन की है।
थोड़ा विचार करें तो हमारे शास्त्रों ने सारे रहस्य स्पष्ट कर दिये हैं। हम अन्न जल से अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं तो क्या अन्न को शरीर में मलने से, सिर पर डाल देने मात्र से उन्हें अन्न जीवन प्रदान करेगा, उनकी तृप्ति होगी। नहीं, उनकी तृप्ति मुख द्वारा भोजन ग्रहण करने से होती है। इस प्रकार चेतन देवों का जीवन मुख द्वारा अन्न जलादि ग्रहण करने से चलता है। अन्न सूक्ष्म होकर उदर में जाता है, फिर पेट के यन्त्र उसे और सूक्ष्म करके सारे शरीर को ऊर्जा प्रदान करते हैं।
इस आधार पर जड़देवों की पूजा के लिए, उन्हें तृप्त करने के लिए उनका मुख क्या है, क्या हो सकता है जो इन्हें सूक्ष्म होकर ऊर्जा प्रदान करें, इन्हें जीवनी शक्ति से युक्त रख सके? शतपथ ब्राह्मण मंे लिखा है-‘‘अग्निर्वै मुखं देवानाम्’’
इन जड़ देवों का मुख अग्नि है, क्योंकि अग्नि में डाले हुए पदार्थ, पदार्थ विज्ञान के अनुसार नष्ट नहीं होते हैं अपितु रूपान्तरित होकर, सूक्ष्म होकर शक्तिशाली बनते हैं। सूक्ष्म होकर अन्तरिक्ष में वायु के माध्यम से फैलते हैं, व्यापक हो जाते हैं। सभी को जीवन शक्ति से संयुक्त कर देते हैं। अन्तरिक्ष में, द्युलोक में, व्याप्त पर्यावरण को शुद्ध करने में सक्षम हो जाते हैं। तभी-‘‘अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः’’ यजु 23//62 इस यज्ञ को भुवन की नाभि कहा है, जो पदार्थ अग्नि में डालते हैं, वे सूक्ष्म होकर वायु के माध्यम से ऊर्जस्वित होकर, शक्ति सम्पन्न होकर द्युलोक तक पहुँचते हैं। मनु महाराज ने स्पष्ट लिखा है-
अग्नौ प्रास्ताहुतिः............प्रजाः।। मनु. ३। ७६।।
अर्थात् अग्नि में अच्छी प्रकार डाली गयी घृत आदि पदार्थो की आहुति सूर्य को प्राप्त होती है-सूर्य की किरणों से वातावरण में मिलकर अपना प्रभाव डालती है, फिर सूर्य से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न पैदा होता है, उससे प्रजाओं का पालन-पोषण होता है। गीता मंे वर्णित है-
अत्राद् भवन्ति..........कर्मसमुद्भवः।। गीता ३।१४
अन्न से प्राणी, वर्षा से अन्न, देवयज्ञ से वर्षा तथा देवयज्ञ तो हमारे कर्मो के कारने से ही सम्पन्न होगा। निष्चय से देवयज्ञ ही वह साधन है जिस के द्वारा हम यथोचित रूप में चेतन देवों का सम्मान करते हैं तथा जड़ देवों की भी पूजा अर्थात् यथोचित व्यवहार द्वारा इन्हें दूषित नहीं होने देते हैं। अग्नि में डाले गये पदार्थ सूक्ष्म होकर वृक्ष देवता, वायु देवता, पृथिवी देवता, सूर्य देवता, चन्द्र देवता आदि सभी लाभकारी देवों को शुद्ध, स्वस्थ, पवित्र रखते हैं, और ये देव हमें स्वस्थ एवं सुखी बनाते हैं। गीता में इस तथ्य को कितने स्पष्ट शब्दों में वर्णित किया है-
देवान्भावयतानेन .................परमावाप्स्यथ।। ३।११
इस यज्ञ के द्वारा (अग्निहोत्र के द्वारा) तुम इन जड़ चेतन देवों को उत्तम बनाओ तब वे देव तुम्हारा कल्याण करेंगे। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे को स्वस्थ रखने से ही परम कल्याण की प्राप्ति होगी। यज्ञ का ही जीवन में अत्यनत महत्व है। यही सच्ची देवपूजा है। इसीलिए महा-भारत काल पर्यन्त यज्ञ का ही विधान प्राप्त होता है। किसी मूर्तिपूजा आदि का विधान नहीं मिलता क्योंकि यज्ञ के अतिरिक्त सभी पूजा पद्धतियों में वायु, जल, अन्न, वृक्षादि पर्यावरण के दोषो को दूर करने की सामथ्र्य नहीं है। जल-वायु शुद्ध होगा यज्ञ से, यथोचित व्यवहार से। अतः सच्चे अर्थो में यज्ञ ही देवपूजा है, सच्ची देवपूजा है। प्रतिदिन दैनिक यज्ञ करके इस देवपूजा को सम्पन्न करना हमारा नैतिक कत्र्तव्य है।
प्रथम सोपान-आचमन मन्त्र
कठोपनिषद का वचन है-
नायमात्मा..............तनंू स्वाम्।। २।२२
यह आत्मा न प्रवचन से, मेधा बुद्धि से, न सत्संग से प्राप्त करने योग्य हैं, जिसको यह आत्मा (परमात्मा) स्वयं स्वीकार करता है, उसी को यह प्राप्त होता है, उीस को यह अपना स्वरूप प्रकट करता हैं।
यहाँ स्वाभाविक रूप से मन में यह भाव बैठ जाता है कि परमात्मा जिसे चाहेगा, उसे अपना स्वरूप प्रकट करेगा, तो हमारे सम्पूर्ण सत्प्रयत्न बेकार होंगे, हमें कोई आवश्यकता नहीं है कि हम प्रतिदिन उस परमेष्वर की स्तुति उपसना करें, यज्ञादि सत्कर्म करें।
इसका समाधान हम अपने व्यवहार से प्राप्त कर सकते हैं। व्यवहार में हम देखें कि एक पिता के तीन-चार पुत्रा हैं तो वे इन पुत्रों में किसे अधिक चाहते हैं या चाहेंगे? इसका उत्तर अत्यन्त स्पष्ट है पिता उस पुत्र को चाहेंगे, जो उनके आदेष का पालन करता है, उनकी सेवा करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो जो सत्पात्र होगा, उस पर ही पिता अपनी कृपा दृष्टि रखेंगे।
इस व्यवहारिक सत्य को कठोरपनिषद् के वचन पर परखें तो यही बात समझ में आयेगी कि परमेष्वर अपनी कृपा दृष्टि उसी पर रखेंगे जो सत्पात्र होगा।
हम वेद मार्ग पर चलें, वेद विरूद्ध मार्ग पर नहीं। इस आधार पर वेद मार्ग पर चलना सत्पात्र बनना है। परमेष्वर तो दया का समुद्र है, अपनी कृपा की वर्षा सतत करता रहता है, वह तो -‘‘अन्ति सन्तं न पश्यति अन्ति सन्तं जहाति’। अथर्व १0 । ८।३२
इस वेद वचन के अनुसार कुपात्र या अज्ञानी उस परमात्मा को नहीं देख पाते हैं, किन्तु परमात्मा के नियम से कोई बच नहीं सकता है। बस उनकी कृपा सत्पात्र को ही प्राप्त होगी।
बाहर बहुत वर्षा हो रही थी, रात्रि का समय था। आचार्य ने षिष्य से कहा-जा, एक घड़ा उठाकर बाहर रख दे, वर्षा का जल प्राप्त होगा। षिष्य शीघ्रता में घड़ा रख आया। थोड़ी देर में आचार्य ने घड़ा मंगवाया तो जल उसमें भरा नहीं था, कारण पात्र उल्टा रखा था। आचार्य ने कहा पात्र सीधा रखोगे तो वर्षा का जल उसमें भरेगा, जाओ, पात्र सीधा रखो। षिष्य थोड़ा आवेश में जाकर रख आया। थोड़ी देर में पात्र मंगवाया तो देखा कि वर्षा का जल उसमें नहीं भरा था, कारण कि आवेष में पात्र रखने से पात्र में छिद्र हो गया था। छिद्र युक्त पात्र में जल कैसे भर सकता था। आचार्य ने दूसरा पात्र पुनः रखने के लिए कहा, कारण कि वर्षा बहुत सुन्दर रूप में बरस रही थी। षिष्य दूसरा पात्र रख आया। आचार्य ने पुनः घड़ा भर गया होगा, इस आशा से मंगवाया, सत्य ही घड़ा भर गया था। आचार्य प्रसन्न हुए, किन्तु प्रकाष में घड़े को देखा तो सारा जल गन्दा था, कारण कि षिष्य गोबर भरे घड़े को बाहर रख आया था। आचार्य बोले-षिष्य वर्षा तो बहुत बरस री थी, किन्तु पात्र उल्टा हो तो वर्षा का जल न मिलेगा, छिद्र युक्त होगा तो भी नहीं मिलेगा, तथा गन्दगी से भरा पात्र होगा तो जल उपयोगी नहीं होगा। इसी प्रकार परमात्मा की कृपा की वर्षा तो सतत बरसती रहती है, केवल सत्पात्र ही उस कृपा को प्राप्त कर सकता है। सत्यपात्र बनने के लिए ही दैनिक यज्ञ करना आवष्यक है। सत्पात्र वह होता है जो विपरीत मार्ग पर, उल्टे मार्ग पर न चलें, जो छिद्र -दोष युक्त कर्म न करे तथा दूषित अन्तः करण की वृत्तिवाला न हो। दैनिक यज्ञ की सम्पूर्ण विधि व्यक्ति को सत्पात्र बने रहने में पूर्ण सहायक है। सत्पात्र को ही प्रभु की कृपा प्राप्त होती है।
आचमन मन्त्रों का महत्त्व-
आचमन करने के साथ निम्न व्रतों को ग्रहण करते हुए जीवन को यज्ञमय बनाना चाहिए।
जल को अमृत’ कहा गया है। अमृत से तात्पर्य-‘‘न मृतम् अमृतम्’’ अर्थात् जल जीवनदायक अमृत स्वरूप है। संस्कृत में जल को जीवन कहते हैं। प्रभु कृपा से मानव शरीर मिला है, इसे जीवन युक्त बनाना चाहिए। प्रभु कृपा से हमारा जीवन जीवनमय बनें, अमृतमय, आनन्दमय बने। प्रथम आचमन के द्वारा यह व्रत लेना है।
द्वितीय आचमन के समय जल अमृतमय तब होता है ज बवह गतिशील होता है। गति ही जीवन है। तदनुसार निरन्तर गतिशील रहकर, कर्म के द्वारा, सत्कर्म के द्वारा जीवन निर्माण का व्रत ग्रहण करना चाहिए। जिस प्रकार गतिशील जल में जीवन तत्त्व रहते हैं, वैसे ही निरन्तर कर्म के द्वारा जीवन को गतिशील बनाने की प्रेरणा द्वितीय आचमन से ग्रहण करना है।
गतिषील जल निर्मल होता है। अतः तृतीय आचमन के साथ गति सदैव निर्मल, स्वच्छ, पवित्र हो, यह भावना ग्रहण करनी चाहिए। निर्मल अन्तःकरण में ही सत्य, यष एवं श्री शोभा, ऐष्वर्य का निवास होता है।
केवल मन्त्र पाठ से गृहीत आचमन से भौतिक दृष्टि से, बाह्य रूप से भले ही लाभ मिले किन्तु आत्मिक लाभ दृढ़ संकल्प एवं तदनुकूल आचरण से होता है। आचमन मन्त्रों के अर्थानुसार यह भाव भी स्मरण रखने योग्य है।
उपस्तरण का अर्थ बिछौना है। बिछौना आधार है, आश्रय है, माँ की गोद का आश्रय कितना आनन्दमय एवं शान्तिदायक होता है। उसी प्रकार ईष्वर भी सम्पूर्ण जगत् का आधार है, उसके आश्रय में रहकर मैं सदैव निर्भीक एवं आनन्दमय स्थिति में रहूँ।
द्वितीय मन्त्र में अपिधानम् का अर्थ है ओढ़नी। जिस प्रकार माँ की गोद में लेटा हुआ षिशु वस्त्र से आच्छादित होकर निर्भीक होता है। कभी षिषु निद्रा में भयभीत होता है तो माँ का हाथ उस पर आच्छादन का सहारा होता है। इस असार संसार में याजक को वह भाव ग्रहण करना चाहिए कि सर्वव्यापक परमेष्वर का हाथ सदैव याजक के ऊपर है। वह सर्वात्मना उसका रक्षक है, उसके रहते हुए संसार में किसका भय?
पूज्य स्वामी केवलानन्द जी का संस्मरण इस आषय को पुष्ट करने वाला है। पूज्य स्वामी केवलानन्द जी किसी पर्वतीय प्रदेष की शोभा देखने गये थे। विचार यह हुआ कि पर्वत पर प्रातः शीघ्र चढ़ेगे। रात्रि में एक धर्मषाला में ठहरे। प्रातः शीघ्र उठकर स्नान ध्यान से निवृत्त होकर धर्मशाला के सामने वाटिका में टहलकर और लोगों के तैयार होने की प्रतीक्षा करने लगे। स्वामी जी जी आकृति भव्य, उस पर लम्बी दाढ़ी और भी अधिक भव्य थी। सबके तैयार होने पर सब ऊपर चढ़ने लगे, अभी कुछ दूर चले होंगे कि स्वामी जी ने देखा कि एक भद्र महिला की गोद में बैठा बालक स्वामी जी को घूंसा दिखा रहा था। स्वामी जी ने आष्चर्य से दृष्टि दूसरी ओर की थोड़ी देर बाद पुनः उनकी दृष्टि उस पर पड़ी तो फिर वही किया। चार-पांच बार घूंसा दिखाने की बात रही। पर्वत पर चढ़कर थोड़ी देर विश्राम करने पर स्वामी जी ने भद्र महिला से पूछ ही लिया-बेटी, मैं आपको जानता भी नहीं, फिर आपका यह बालक सारे रास्ते मुझे घूंसा क्यों दिखा रहा था? क्षमा याचना के साथ महिला ने उत्तर दिया कि बालक का कोई अपराध नहीं। प्रातः यह बालक नहा नहीं रहा था, तब मैंने उसे बाग में टहलते हुए आपको दिखाकर कहा-नहीं नहायेगा तो बाबाजी झोली में डालकर ले जायेंगे, तो शीघ्र स्नान कर लिया। यह मेरी गोद में था। अतः निर्भीक बनकर आपको घूंसा दिखाकर यह कह रहा था कि मुझे क्या ले जाओगे? मैं आपको मारूँगा।
परमेश्वर के आश्रय में रहकर हमारे अन्दर भी निर्भीकता का भाव आना ही चाहिए।
तृतीय आचमन में सत्य, यश एवं श्री की कामना है। निस्सन्देह सत्याचरण यष प्रदान करता है। यषस्वी व्यक्ति का ऐष्वर्य ही शोभा देनेवाला अर्थात् इहलोक एवं परलोक में सुखशान्ति देने वाला होता है। यजुर्वेद का वचन है-
दृष्ट्वा .......प्रजापितः।। १९।७७।।
प्रजापति परमेष्वर ने भी सत्य और अनृत-असत्य के रूप को देखकर यह षिक्षा दी कि मनुष्य अनृत में अश्रद्धा और सत्य में श्रद्धा करे। इस प्रकार सत्याचरण का जीवन में विषेष महत्त्व है। असत्याचरण से प्राप्त धन सुख के साधन दे सकता है, पर सुख शान्ति नहीं। असत्यचरण से प्राप्त धन इस जीवन में थोड़ा सुख भले ही दे किन्तु परलोक तो नष्ट हो जाता है। मनु महाराज ने अर्थ की, धन की पवित्रता पर विशेष बल दिया है-
सर्वेषामेव..........शुचिः।। मनु ५।१0६
सभी पवित्रताओं में धन की पवित्रता सर्वश्रेष्ठ है। जो धनार्जन में पवित्र है, वही पवित्र है। मिट्टी जल की पवित्रता नहीं। अतः जीवन में सत्याचरण का विषेष महत्व है।
स्वाहा शब्द से तात्पर्य
प्रथम आचमन के समय स्वाहा कहते हुए यह संकल्प लेना चाहिए कि जल के समान-‘सु आह इति वा’ हम सदैव मधुर कोमल सर्वहितकारी वाणी बोलेंगे।
द्वितीय आचमन के समय स्वाहा उच्चारण के साथ ‘स्वावाग् आह इति वा’ अपने अन्तरात्मा में परमात्मा का आश्रय उनकी कृपा दृष्टि सदैव मेरे ऊपर है ऐसा विचार करके याथातथ्य अर्थात् ज्ञानानुसार सत्य बात कहने का संकल्प लेना चाहिए।
तृतीय आचमन के साथ स्वाहा का उच्चारण करते हुए श्रद्धा सहित ‘स्वाहुतं हविर्जुहोति इति वा’ अर्थात् स्वार्जित सत्याचरण से प्राप्त यष, लक्ष्मी (धनैष्वर्य) को सदैव संसार के कल्याणार्थ समर्पित करने का संकल्प लेना चाहिए।
उक्त संकल्प मोक्ष प्राप्ति के पात्रत्व का अधिकारी बनाता हैं।
तीन आचमन क्यों?
जिस प्रकार जल शान्त होता है, शान्ति देता है, जीवन देता है, उीस प्रकार हमें शान्त रहते हुए आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त हो। इन तापत्रय से मुक्ति का संकल्प आचमन से ग्रहण करना है।
इसके अतिरिक्त -‘‘मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्’ के अनुसार मन, वाणी एवं कर्म की एकता के द्वारा महान् बनने का संकल्प लेना है।
अगड़स्पर्श मन्त्र
अंग स्पर्श मन्त्रों का महत्व-
बांई हथेली में थोड़ा जल लेकर, दाहिने हाथ्ज्ञ की मध्यमा और अनाममिका अंगुलियों को मिलाकर मन्त्र निर्दिष्ट अंगों का पहले दक्षिण फिर वाम भाग के स्पर्श का विधान है। यहाँ पर ध्यान यह रखना है कि मध्यमा अंगुली-जीवन में मध्यम मार्ग, समन्वयात्मक मार्ग पर चलना अर्थात् त्याग-भोग, प्रवृत्ति-निवृत्ति, श्रेय-प्रेय का समन्वय करके चलने का भाव ग्रहण करना है। ‘‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’’ के अनुसार अति त्याग, अति भोग दोनों ही उचित नहीं है।
द्वितीय अंगुली ‘अनामिका’ है। संसार में प्रषंसनीय कार्य करते हुए भी सम्मान, यष, नाम प्राप्ति की भावना से दूर रहना है। क्योंकि जिस स्वर्ग प्राप्ति के लिये, मोक्ष प्राप्ति के लिये यज्ञ क्रिया करते हैं, उसमें सम्मान, नाम आदि की प्राप्ति में ‘अहम्’ का समावेष होता है। ‘अहम्’ भी मोक्ष प्राप्ति में एक बाधक तत्व है। इसलिए-
सम्मानाद्........सर्वदा।। मनु २/१६२
अर्थात् विद्वान को, मोक्ष मार्ग के पथिक को विष के समान सम्मान से डरना चाहिए तथा अपमान भाव को अमृत के समान स्वीकार करना चाहिए। मनु के इस वचन के अनुसार अनामिका अंगुली का व्रत, ‘नाम’ (यष) की भावना से रहित कर्म करने का व्रत ग्रहण करना है।
अग-स्पर्श के मन्त्र एवं विधि की आवष्यकता को निम्न उदाहरण से समझना उत्तम रहेगा-
एक नवयुवक कार्लमाक्र्स के पास जाकर बोला-‘‘कामरेड, आप साम्यवाद का ढिंढोरा पीटते हैं मैं अत्यन्त निर्धन हूँ। मुझे धन की आवष्यकता है, धन दे’’। माक्र्स ने युवक को देखा और कहा-बड़े दुःख की बात है तुम्हारे पास धन नहीं है, अभी-अभी एक कम्पनी खुली है, उसे मनुष्य के अंगों का परीक्षण करना है, तुम अपने दोनों हाथ देकर आओ, तुम्हें दो लाख मिलेंगे। नवयुवक ने हाथों को देखकर कहा-यह सम्भव नहीं है। कामरेड ने पुनः कहा-वह कम्पनी दो पैर लेगी, दोनों पैरों के दो करोड़ देगी-जाओ, दो करोड़ ले आओ। नवयुवक ने फिर मना कर दिया। फिर माक्र्स बोले-‘वही कम्पनी तुम्हारी आंखें ले लेगी। दोनों आंखों के दो अरब रूपये मिल जायेंगे। नवुयुवक ने फिर मना किया। माक्र्स गम्भीर होकर ‘तुम तो कह रहे थे मैं अत्यन्त निर्धन हूँ किन्तु अरबों की सम्पत्ति तो तुम्हारे पास है।’ नवयुवक एक बड़ा महान् बोध लेकर चला गया।
उक्त उदाहरण शरीर के अंग-प्रत्यंगों के महत्व को प्रकट करता है। इस अंग प्रत्यंग की पुष्टता के लिए इनकी वृत्ति सदैव सन्मार्ग पर रखने के लिए इन अंग स्पर्श के मन्त्रों का विधान है। ईष्वर की कृपा प्राप्त हो, हम सत्पात्र बनें, एतदर्थ ही अंग स्पर्ष करना आवष्यक है।
अंग स्पर्श मन्त्रों का भाव-
१. ओं वाड़् म आस्येऽस्तु- हे परमेष्वर! मेरे मुख में वाक् शक्ति प्रषस्त हो।
२. ओं नसोर्मे प्राणोऽस्तु- हे परमेष्वर! मेरे नासिका -छिद्रों में प्राण शक्ति हो।
३. ओम् अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु- हे परमेष्वर! मेरे नेत्रों में दृष्टि सामथ्र्य बना रहे।
४. ओं कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु- हे परमष्ेवर! म्ेरे कानों में श्रवण शक्ति हो।
५. ओं बाह्नोर्मे बलमस्तु- हे परमेष्वर! मेरी भुजाओं में बल हो।
६. ओम् ऊर्वोम ओजोऽस्तु- हे परमेष्वर! मेरी जंघाओं में ओज-शरीर को धारण करने की शक्ति हो।
७. ओम् अरिष्टानि मेऽगांनि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु- हे परेष्वर! मेरा शरीर और अंग- प्रत्यग रोग रहित या दोष रहित हों तथा ये अग-प्रत्यग मेरे शरीर के साथ पुष्ट हों।
अर्थर्ववेद का वचन है-
इयं या............शान्तिरस्तु नः।।
अर्थात् यदि वाणी कठोर हो तो बड़े भयंकर परिणाम सामने आते हैं, परमेष्वर की कृपा से हमारी वाणी ज्ञान से प्रभाव युक्त होकर हमें सुख शान्ति देने वाली हो।
महाराजा भर्तृहरि ने स्पष्ट लिखा है-
केयूरा न.................नीति शतक १८
केयूर, चन्द्रमा के समान उज्ज्वल हार, स्नान, चन्दन का लेप, पुष्प तथा सिर के बालों आदि की सजावट आदि कोई भी वस्तु कभी भी शोभा नहीं देती है। केवल सुसंस्कृत वाणी ही मनुष्य की शोभा बढ़ाती है। अन्य सारे आभूषण व्यर्थ हैं, केवल वाणी का आभूषण ही श्रेष्ठ आभूषण है।
द्वितीय मन्त्र नासिका में प्राणों की शक्ति तथा घ्राणशक्ति, सूंघने का सामथ्र्य बना रहे, के लिए हैं। निस्सन्देह प्राण-अपान शक्ति उत्तम न हो, स्वस्थ न हो तो जीवन का चलना भी कठिन हो जाता है। नासिका के छिद्रों के स्वस्थ रहने पर ही घ्राण शक्ति, प्राण शक्ति उत्तम स्वस्थ रहती है। प्राणायाम क्रिया का आधार नासिका ही हैं। इन्द्रियों को दोषों से रहित करने में प्राणायाम (नासिका) का विषेष महत्व है। मनु महाराज का वचन है-
दह्यन्ते........निग्रहात्।। ६/७१
जैसे अग्नि में तपाने से सुवर्ण आदि धातुओं के मल नष्ट होकर शुद्ध होते हैं, वैसे ही प्राणयाम के द्वारा समस्त इन्द्रियों के दोष दूर हो जाते हैं। खाद्य पदार्थ सड़ गया हो, बासी हो गया हो इसका भी सम्यक् ज्ञान स्वस्थ घ्राण शाक्ति द्वारा ही सम्भव है। योग दर्षनकार ने तो यहां तक लिखा है कि- योगाड़ानुष्ठानादशुद्विक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः’। २/२८
अर्थात् प्राणायाम के द्वारा क्रम-क्रम से अशुद्धि का नाश और ज्ञान का प्रकाष होता है।
इस प्रकार नासिका का स्वस्थ रहना, घ्राणशक्ति का सबल रहना जीवन के लिए आवष्यक है।
तृतीय मन्त्र में नेत्रों में दृष्टि-देखने की शक्ति बनी रहे, की प्रार्थना है। नेत्रों का महत्त्व नेत्र-हीन व्यक्ति से जान सकते हैं। संसार मे विविध सुन्दर वस्तुयें आनन्ददायी हैं, उन्हें नेत्रों से देखकर ही आनन्द उठाया जा सकता है। यह आनन्द तभी उठाया जा सकता है जब दृष्टि भद्रभाव से युक्त हो-‘‘भद्रं परयेमआक्षभिर्यजत्राः’’ ऋग्वेद १/८९/८ ऋग्वेद का वचन है-
विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे। इन्द्रस्य युज्यः सखा।। १/२२/१९
विष्णु के कर्मो को देखो, जिससे नियम निकलते हैं। यह विष्णु ही जीवात्मा का योग्य सखा है, मित्र है। नेत्रों के द्वारा परमात्मा निर्मित सृष्टि के नियमों को देखें, उससे अपने जीवन को नियमित, परोपकारमय या यज्ञीय बनायें। नेत्रवाले देखकर भी अनदेखा न करें इसलिये नेत्रों में उत्तमता से देखने की सामथ्र्य मांगी गयी है।
चतुर्थ मन्त्र में कानों में सुनने की सामथ्र्य की याचना है। सत्पात्र बनने के लिए इस निरीक्षण की आवष्यकता है-‘‘भ्रदं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवाः’’ ऋग्वेद १/८९/८
कानों से भद्र श्रेष्ठ बातें सुनें। आत्म निरीक्षण करें कि कहीं हममें निन्दित बातें सुनने का अभ्यास तो नहीं हो गया है। आज वैज्ञानिक स्वीकार करने लगे हैं कि ध्वनि का मन की तरंगों पर प्रभाव पड़ता है-शुभ वचनों का शुभ वचनों का अशुभ। अतः निन्दायुक्त, बातें, दूषित बातें न सुनें, न बोलें। दूसरों की निन्दा सुनने में यदि आनन्द आता है तो हमारी वृत्ति अच्छी नहीं है। उत्तम सुनें, उत्तम ही बोलें।
पांचवें मन्त्र में बाहुओं में बल की याचना है। बल भुजाओं में हो। परमेष्वर दत्त भुजाओं का बल सज्जनों, दीनों, अनाथों की सहायता में प्रयुक्त हो। संसार में बल तीन प्रकार के होते हैं-ज्ञानबल, धनबल, और शारीरिक बल। इन तीनों बलों का सदुपयोग जो करता है, वही श्रेष्ठ मनुष्य होता है। किसी नीतिकार ने उचित ही लिखा है-
विद्या विवादाय....................रक्षणाय।।
दुष्ट की विद्या विवाद के लिए, धन अभिमान के लिए तथा शक्ति दूसरों को पीड़ा देने के लिए होती है, सज्जनों के ये बल इससे विपरीत कार्य के लिए होते हैं-विद्या ज्ञान के प्रसार के लिए, धन दान के लिए तथा शारीरिक बल सज्जनों, दीनों, अनाथों आदि पीड़ितों की रक्षा के लिए होता है। हमें सदैव यह ध्यान रखना है कि हमारी भुजाओं की शक्ति लोक कल्याणकारी कार्यो में लगे।
षष्ठ मन्त्र में जंघाओं में ओज-शरीर को धारण करने की शक्ति की कामना है। शरीर को गतिशील रखना ही शरीर को धारण करने का आधार है। गतिशीलता ही जीवन है। यह गति जब स्वार्थ की सीमित सीमा में रहती है, तब उससे किसी पुण्य कार्य का सम्पादन नहीं होता है। तात्पर्य यह है कि अपने बच्चों को पालने की वृत्ति तो पशु-पक्षियों में भी प्राप्त होती है। अपने बच्चों को योग्य बनाना, उनके लिए जमीन जायदाद, वैभव आदि तो बनाना माता-पिता का नैतिक कत्र्तव्य तो हो सकता है, पर वह पुण्य का खाता नहीं होता। पुण्य का खाता तो तब आरम्भ होता है जब अपनों से ऊपर उठकर परायों का ध्यान करते हैं। उनकी गतिशीलता की सार्थकता दीन-दुःखी, अनाथ, अबला आदि के सहयोग में पूर्ण होती है। यह सहयोग ही जंघाओं का ओज है। हमारे महान् आत्माओं की यह घोषणा कितनी उत्तम है-
न त्वहं................प्राणिनामत्र्तिनाषनम्।।
न राज्य, न स्वर्ग (इहलोक सुख), न मोक्ष की ही कामना है। उनकी कामना तो केवल एक ही है, वह है- संसार के समस्त प्राणियों के दुःखों का नाष। यह कामना ऐसी गतिशीलता ही ओज है। हमें यह ओज मिले, यह जीवन मिले, शरीर का सामथ्र्य मिले। इसकी सार्थकता ही इस मन्त्र का भाव है।
सप्तम मन्त्र में शरीर के रोग रहित होने की तथा शरीर के समस्त अवयवों के पुष्ट होने की कामना है।
‘‘ शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’’ कालिदास
स्वस्थ शरीर से ही धर्म की साधना सम्पन्न हो सकती है। शरीर ही स्वस्थ न हो, पुष्ट न हो तो जीवन की साधारण आवष्यकताएँ भी पूर्ण करने में व्यक्ति असमर्थ हो जाता है। उसे सामान्य जीवन भी अच्छा नहीं लगता हैं, तब धर्म अधर्म का चिन्तन कैसे सम्भव हो सकता है। अतएव इस मन्त्र में सम्पूर्ण शरीर के स्वस्थ बने रहने की प्रार्थना की गयी है।
इसके साथ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि स्वस्थ्य शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। एक सर्वविदित वचन है-
यन्मनसा ध्यायति............................................तदभिसम्पद्यते।
जो मन से ध्यान करेंगे, वह वाणी में आयेगा, जो वाणी में होगा तदनुसार कर्म होंगे, कर्मानुसार ही कार्य की सफलता होगी। शुभ फल के लिए शुभ कर्म की आवष्यकता है, शुभ कर्म शुभ विचारों से सम्भव है, शुभ विचार शुभ मन से सम्भव है और शुभ मन की प्राप्ति स्वस्थ शरीर एवं ईष्वर की भक्ति से होती है। इन्द्रियों के संयमित न होने से व्यक्ति अनेक दोषों को प्राप्त होता है। मनु का वचन है-
इन्द्रियाणां..........नियच्छति।। २/९३
इन इन्द्रियों का संचालक मन है। एक मात्र मन वह सोपान है जिससे व्यक्ति ऊँचेप र चढ़ता है और इसके शुद्ध न होने से व्यक्ति अनेक मार्गो से पतन के गत्र्त में गिर जाता है-
‘‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोंः’’
मन ही तो मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का कारण होता है। प्रसिद्ध वचन है-
आपदां कथितः ................तेन गम्यताम्।।
इन्द्रियों को संयमित न करना आपत्ति का मार्ग है, उनको जीत लेना सम्पत्ति का मार्ग है, जो मार्ग अच्छा लगे उसी पर चलना चाहिए। इन्द्रियों का संयम मन पर है तथा मन शरीर के स्वस्थ होने पर स्वस्थ रहता हैं। मन का शुभत्व ईष्वर की कृपा से होता है, ईष्वर की कृपा सुपात्र को प्राप्त होती है। सुपात्रता समस्त शरीर के स्वस्थ एवं शुभ होने पर प्राप्त होती है। इसीलिये अंग स्पर्श का विधान मन्त्र सहित किया गया है।
जल से अंग स्पर्श क्यों?
अंग स्पर्श में जल का प्रयोग विशेष अभिप्राय से किया जाता है। जल की शीतलता का स्पर्ष सम्पूर्ण अवयवों को शीतल शान्ति रहने की प्रेरणा देता है। यदि मन्त्र के साथ-साथ जल की स्पर्शानुभूमि को मन से संयुक्त करके दृढ़ संकल्प हो तो इन्द्रियों पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। बिना जल के यह अनुभूति पवित्र न हो सकेगी। अतः जल का प्रयोग इस विधि में आवष्यक समझा गया है। वैसे भी मनु के विचारानुसार भी-
‘‘अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति’’ ५/१0९
जल से शरीर शुद्ध होता है। जल शीतल, गतिशील एवं निर्मल होता है। हमारे शरीर की इन्द्रियां जल के समान शीतल-शान्त, गतिशील एवं निर्मल हों, इस संकल्प को बल प्राप्त होता है।
आचमन एवं अंग स्पर्श का सम्पूर्ण प्रभाव मन के संयोजन से सफल होता है। बिना मन से किया गया सम्पूर्ण कार्य लाभकारी नहीं होता है।
द्वितीय सोपान
ईष्वर स्तुतिप्रार्थनोपासना मन्त्र
आचमन एवं अंगस्पर्श के मन्त्रों के पश्चात् दैनिक यज्ञ में ईष्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना के मन्त्रों का पाठ करना चाहिये। महर्षि ने सर्वत्र शुभ कर्मो के आरम्भ में ईष्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना करने का निर्देष किया है। ये मन्त्र, अपनी अल्पता का बोध देते हैं, ईष्वर के सामथ्र्य का बोध देते हैं, सृष्टि के सभी विशाल तत्व उसी की सत्ता का परिचय देते हैं, ऐसा ईष्वर हमारा बन्धु है, वही हमारा कल्याण कत्र्ता है, इसी भाव को धारण कर सुपथ पर चलते हुए सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति हो सकती है, आदि भावों को पुष्ट करने वाले ये मन्त्र हैं। अतः हमारे विचार में पूर्ण श्रद्धा के साथ तन्मय होकर इन मन्त्रों का पाठ मधुर स्वर से करना चाहिए।
इन मन्त्रों का इस दृष्टि से अधिक महत्व है कि इन्हें महर्षि दयानन्द ने आर्ष बुद्धि से संकलित किया है। ऋग्वेद के मन्त्रों की संख्या 10552 है, यजुर्वेद की संख्या 1975 है, सामवेद की मन्त्र संख्या 1875 है तथा अथर्ववेद के मन्त्रों की संख्या 5977 है। इस प्रकार चारों वेदों में कुल मन्त्र हुये 20379। इनमें महर्षि की आर्ष बुद्धि ने इन आठ मन्त्रों का चयन विषेष अभिप्राय से ही किया है। अतः हमारी सम्मति में आचमन अंगस्पर्ष मन्त्रों के बाद बिना किसी विवाद के इन मन्त्रों का पाठ अर्थ चिन्तन के साथ करना चाहिए। इन मन्त्रों में निहित भावों को जानने से पूर्व स्तुति, प्रार्थना, उपासना का तात्पर्य एवं उसके फल को जान लेना आवष्यक है।
आर्योद्देष्यरत्नमाला के अनुसार महर्षि के शब्दों में स्तुति ‘‘जो ईष्वर वा किसी दूसरे पदार्थ के गुण, ज्ञान, कथन, श्रवण और सत्य भाषण करना है, वह स्तुति कहती है’’।
प्रार्थना ‘‘अपने पूर्ण पुरूषार्थ के उपरान्त उत्तम कर्मो की सिद्धि के लिये परमेष्वर वा किसी सामथ्र्य वाले मनुष्य के सहाय लेने को प्रार्थना कहते है’’।
उपासना-‘‘जिससे ईष्वर ही के आनन्द स्वरूप में अपने आत्मा को मग्न करना होता है, उसको उपासना कहते हैं’’।
मनुष्य का स्वभाव होता है कि किसी में महान् या उत्तम गुण हो तो वह उसकी प्रषंसा करता ही है। उपकारी के गुणों का कथन करते-करते व्यक्ति आनन्द में डूब जाता है। जो उपकारी के उपकार को स्वीकार नहीं करता है, वह मानव समाज में आदर का पात्र नहीं होता है। जो बालक अपने उत्तम माता-पिता के गुणों को, उपकार को नहीं मानता है, वह समाजमें हेय दृष्टि से देख जाता है।
सच पूछा जाय तो ईष्वर के अनन्त उपकार है, ये सुन्दर नेत्र दिये हैं, विविध दृष्य देखते हैं, आनन्दित होते हैं, नासिका से विविध गन्धों का आनन्द लेते हैं, रसना विविध रसास्वादन में रस लेती है और सभी ईष्वर की कृपा है, जिसने सभी पदार्थो की रचना की है, ऐसे उस महान् ईष्वर के गुणों का गान करना मानव का नैतिक कत्र्तव्य है।
लोक व्यवहार में हम सहायता किस व्यक्ति की करते हैं। आलसी, पुरूषार्थ-हीन व्यक्ति की सहायता कोई करता नहीं है, न करना चाहता है। आप कल्पना करें कि एक व्यक्ति जेब से हाथ डाले खड़ा है और वह आपसे कहता है भाई जी जरा अटैची उठाना, तो आप यहीं कहेंगे कि खुद तो जेब में हाथ डाले खड़ा है और हमसे कहता है अटैची उठा देा। दूसरी ओर एक सामान्य व्यक्ति एक बोझ उठाने का बार-बार प्रयत्न करता है, उठा नहीं पाता है। बस आपकी ओर जरा देखता ही है कि आप शीघ्र उसकी सहायता के लिए तत्पर होते हैं। ठीक ऐसी ही सहायता पूर्ण पुरूषार्थ के उपरान्त याचना परमेष्वर की ओर से हमें सुलभ होती है। परमेष्वर तो दयालु है, वह दया का समुद्र है किन्तु हम तो दया की कटोरी भी नहीं हैं तो दयालु ईष्वर हम पर दया कैसे करेंगे, हम दया के पात्र बनें इसके लिए प्रार्थना-पुरूषार्थ करना आवष्यक है।
उपासना
हमने यहाँ स्थानीय एक संस्कार में ध्यान के महत्व पर कुछ शब्द कहे-प्रतिदिन समय निकालकर 10,15,20,30 मिनट उपासना करने की ध्यान में बैठने की प्रेरणा दी। दो तीन मास बाद एक माता जी बोलीं-मैंने आपके बताये निर्देषानुसार ध्यान में बैठने का कार्य आरम्भ किया। एक सप्ताह बैठने पर भी मन स्थिर नहीं हुआ, इधर-उधर दौड़ता ही रहता है। ऐसी स्थिति में क्या करें? यह दुविधा प्रायः सभी को कचोटती रहती है, फिर वह ध्यान में बैठने का विचार ही छोड़ देता है। आईये, इस समस्या के समाधान पर विचार करें।
मैंने माताजी से कहा कि आपके घर में आपका कोई पुत्र है। माताजी ने कहा -‘जी हां दो पुत्र है, एक बैंक में कार्यरत है, दूसरा एम.एस.सी. कर रहा है। मैंने पुनः उनसे कहा-‘आपने कितने धैर्य से, निष्ठा से, लगन से पुत्र को योग्य बनाने में अपने जीवन को लगा दिया। २२, २३ वर्ष का आपका प्रयास आपकी निष्ठा सफल हुई और निष्ठा की उपलब्धि पुत्र का योग्य होना, अपने पैरों पर खड़ा कर देना, प्राप्त हुई। जीवन के इतने वर्ष सांसारिक योग्यता में, उपलब्धि में व्यतीत हुए। फिर ईष्वर की उपलब्धि में थोड़े समय के बाद आप निराष क्यों हैं? आपने यह कार्य छोड़ क्यों दिया। धैर्य से करती रहती।
स्मरण रखना चाहिये कि मन चंचल ही है, वह तो दौड़ेगा, उसे अव्याहत गति से दौड़ने दीजिये। प्रथम तो कुछ दिन बाहरी बातों में दौड़ेगा, कुछ दिनों दौड़ने दें। फिर धीरे-धीरे अभ्यास करके मन्त्रार्थ में दौड़ाना चाहिए। ईष्वर के जिस गुण की चर्चा हो उस गुण के विषाल स्वरूप के चिन्तन मेे मन को दौड़ाइये, निराषा न हों, धीरे-धीरे अभ्यास से निराकार परमेष्वर की व्यापकता में, उसकी विषालता में दौड़ेगा। सन्ध्या में मनसा-परिक्रमा मन्त्रों का विधान भी इसी दृष्टि से है। मैंने माताजी की वृत्ति देखकर उन्हें यह भी प्रेरणा दी कि भोजन के उपरान्त आधा या एक घण्टे का मौन रखिये। इस अवसर पर एकान्त में बैठें। न कुछ सुनने में ध्यान हो, न बोलने का विचार हो, बस शान्त स्थित रहने का अभ्यास करें। कहने की आवष्यकता नहीं कि इस उपाय से उन्हें आनन्द आया। गीता के द्वितीय अध्याय का 44 वाँ श्लोक इस तथ्य को इन शब्दों में वर्णित करता है-
भोगैष्वर्यप्रसक्तानां...............................विधीयते।। २/४४
अर्थात्-भोग ऐष्वर्य की संलग्नता में जिनका चित्त व्यस्त रहता है, ऐसे व्यवसायात्मक चित्तयुक्त बुद्धि समाधि में, ध्यान में नहीं रमती है, नहीं लगती है। अतः उपासना से पूर्व अन्तःकरण की पवित्रता, चित्त की शुद्धि आवष्यक है। इसलिए प्रथम ईष्वर की स्तुति-गुणों का गान करने का विधान है, तदनन्तर गुणों के अनुसार आचरण के लिए प्रार्थना-पुरूषार्थ का करना आवष्यक है। यही उपासना का क्रम है। उपासना की सफलता के लिए अभ्यास की आवष्यकता है।
ईष्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना का फल क्या है? इस प्रश्न का सुन्दर समाधान महर्षि ने सत्यार्थ प्रकाष के सप्तम समुल्लास में किया है-
‘‘स्तुति से ईष्वर में प्रीति, उसके गुण, कर्म, स्वभाव से अपने गुण, कर्म, स्वभाव से अपने गुण, कर्म, स्वभाग, का सुधारना, प्रार्थना से निरभिमानता, उत्साह और सहाय का मिलना, उपासना से परब्रह्य से मेल और उसका साक्षात्मकार होना।’’
उपर्युक्त वचन से यह तात्पर्य निकलता है कि अपने गुण, कर्म और स्वभाव यदि नहीं सुधरते हैं तो वह स्तुति व्यर्थ है, उस स्तुति से लाभ है जिसमें अपने गुणों का विकास हो, अपने कर्म महान् हों, अपना स्वभाव उत्तम बने। अभिमान जीवन का महान् शुत्र है।
निरभिमानता की उपलब्धि प्रार्थना की महान् उपलब्धि है। महान पुरूर्षो के जीवन में तो ईष्वर की स्तुति प्रार्थना से महान् गुणों का विकास होता है-
निदन्तु ..............पदं न धीराः।। भर्तृहरि नीति ७९
नीति में चतुर लोग निंदा करें या प्रषंसा करें, लक्ष्मी आवे या अपनी इच्छानुसार चली जावें, आज ही मृत्यु हो अथवा वर्षो के बाद हो। निष्चय से धैर्य शाली लोग न्याय के मार्ग से कभी विचलित नहीं होते हैं। यह गुण ईष्वर की उपासना से आता है। महर्षि सत्यार्थप्रकाष के सप्तम समुल्लास में लिखते हैं-
‘‘इसका फल-जैसे शीत से आतुर पुरूष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत्त हो जाता है, वैसे परमेष्वर के समीप प्राप्त होने से सब दोष दुःख छूटकर परमेष्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के सदृष जीवात्मा के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हो जाते हैं। इसलिये परमेष्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना अवष्य करनी चाहिए। इससे इसका फल पृथक् होगा, परन्तु आत्मा का बल इतना बढ़ेगा, वह पर्वत के समान दुःख प्राप्त होने पर भी न घबरायेगा और सबको सहन कर सकेगा। क्या यह छोटी बात है? और जो परमेष्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है।’’ सत्यार्थ प्रकाष सप्तम समुल्लास।
कृतघ्न का कोई प्रायष्चित्त नहीं है, उद्धार का कोई उपाय ही नहीं है। अतः इस दोष से बचना आवष्यक है। महर्षि निर्देशित इन मन्त्रों का पाठ सम्पूर्ण शुभ कर्मो में तथा दैनिक यज्ञ में अवष्य करना चाहिए।
इन मन्त्रों का महत्व अनेक दृष्टियों से समझा जा सकता है। यज्ञ से पूर्व याजक अपने उद्देष्य को -‘यद् भद्रं तन्न आसुवं’ जो कल्याणकारी हो वह हमें प्राप्त हो, वह प्रार्थना सविता देव से है। सविता देव का सामथ्र्य, उसकी शक्ति द्वितीय मन्त्र में वर्णित है तो तृतीय मन्त्र यस्य विष्व उपासते’ कहकर हमें यह कार्य करने की प्रेरणा देता है क्योंकि वह तो ‘‘महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव’’ अपनी महानता से जगत् का राजा है, इतना ही नहीं-उग्रा द्यौ. पृथिवी च दृढ़ा’’ उग्र पृथिवी और द्यौ को भी धारण करने वाला है- उसके समान कोई प्रजापति नहीं है-वही हमारा बन्धु है, पिता है, अमृत की प्राप्ति भी की उपासना से प्राप्त हो सकती है-भद्रता की याचना ऐसे सामथ्र्यशाली परमेष्वर से उचित है, इसकी प्राप्ति कैसे हो सकेगी? इसका उत्तर भी-‘‘अग्ने नय सुपथा’’ सुपथ पर चलने से ही यह सब सुलभ हो सकेगा।
एक अन्य दृष्टि से विचार करें तो -व्यक्ति में १. उत्पादन का अहम् २. सामथ्र्य का अहम् ३. दान का अहम् ४. शासन का अहम् ५. धारणा करने का अहम् ६. प्रजापालन का अहम् ७. बन्धुत्व का अहम् ८. पथ प्रदर्षन का अहम्- इन आठ प्रकार के अहम् के विनाश के लिए आठ मन्त्रों का उच्चारण आवष्यक है। इन मन्त्रों के अर्थ इन सम्पूर्ण ‘अहम्’ का विनाष करते हैं। ‘‘अहम्’’ का विनाष जीवन की महान उपलब्धि है।
ईष्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना का प्रथम मन्त्र
महर्षि दयानन्द ने ‘संस्कार विधि’ के सामान्य प्रकरण के प्रारम्भ में ही लिखा है-
‘‘सब संस्कारों के आदि में निम्नलिखित मन्त्रों का पाठ और अर्थ द्वारा एक विद्वान् वा बुद्धिमान पुरूष ईष्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना स्थिर चित्त होकर परमात्मा में ध्यान लगा के करे और सब लोग उसमें ध्यान लगाकर सुनें अज्ञैर विचारें।’’
इस तथ्य को ध्यान में रखकर महर्षि ने स्वयं इन आठ मन्त्रों के अर्थ लिखे हैं। अतः इन मन्त्रों के अर्थ का रसास्वादन महर्षि कृत अर्थ पर विचार करके प्राप्त करना चाहिये। ईष्वरस्तुति-प्रार्थनोपासना का प्रथम मन्त्र इस प्रकार है-
ओ३म् विष्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।
यद् भद्रं तन्न आसुव।। यजु. ३0/३
महर्षि कृत अर्थ इस प्रकार है-
हे सवितः-सकल जगत् के उत्पत्ति कत्र्ता, समग्र ऐष्वर्ययुक्त, देव -शुद्ध स्वरूप, सब सुखों के दाता परमेष्वर! आप कृपा करके, नः-हमारे, विष्वानि-सम्पूर्ण, दुरितानि -दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को, परासुव-दूर कर दीजिये। यत्-जो, भद्रम्-कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, तत् -वह सब, नः हमको, आसुव-प्राप्त कीजिये।
इस मन्त्र में दुरित दूर हों, भद्र प्राप्ति हो, यह तो प्रार्थना है शेष स्तुति है। इस मन्त्र में दुरितानि दूर पहले करने हैं, तब भद्र प्राप्ति होगी, यह क्रम हे। लोक व्यवहार में भी यह देखा जाता है। ‘पात्र को प्रथम मैल से रहित करते हैं, कमरे को पहले साफ करते हैं, तब अच्छी वस्तु पात्र में डालकर उसको उपयोग में ले सकते हैं। स्वच्छ कमरें में ही आनन्द के साथ निवास सम्भव होता है। अतः मन्त्र में भी प्रथम दुरित को दूर करने की प्रार्थना की गयी है, तब भद्र प्राप्ति की याचना है। वेदमन्त्र का यह क्रम व्यवहार से भी सिद्ध है।
अब विचार यह करें कि प्रार्थना किस से की जाती है। लोकव्यवहार में देखें तो प्रार्थना सदैव सामथ्र्यषाली से की जाती है। दुरित दूर करने के लिए ‘सविता’ से कहा गया है।
विष्वानि दुरितानि- महर्षि ने ‘विष्वानि दुरितानि’ का अर्थ किया है- सम्पूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःख। दुर्गुणी व्यक्ति ही दुव्र्यसनों का शिकार होता है। अतः चंचल मन को वष में करना चाहिये।
नेह..........यथोष्णता।
इस संसार में चञ्चलता से रहित मन कहीं नहीं देखा जाता है, चञ्चलता तो मन का धर्म ऐसे ही है जैसे अग्नि का धर्म उष्णता है। गीता में भी लिखा है-
असंशयं...............गृह्मते।। ६/३५
हे-महाबाहो! मन बड़ा चंचल है, कठिनाई से वश में आता है, इसमे कोई संषय नहीं किन्तु निरन्तर अभ्यास से तथा वैराग्य से यह वष में होता है।
इस तथ्य से मन वष में अर्थात् स्थिर होता है, परन्तु वष का अर्थ स्थिर करना नहीं अपितु उसकी गति का मार्ग बदलना है, कुमार्ग पर है तो सुमार्ग पर चलाना है। दुरित की दृष्टि से मन या तो दुर्गुणों की ओर अग्रसर होगा, या फिर दुव्र्यसनों का षिकार होगा या फिर दुःख समुद्र में गोते खायेगा। मन की दुरित वृत्तियों को इन तीन रूपों में निरूद्ध कर ही महर्षि ने समस्त बुराईयों के आधारभूत इन तीन रूपों का वर्णन किया है। अब प्रष्न है यह दूरित भाव कैसे दूर होंगे क्योंकि बिना पुरूषार्थ के प्रार्थना निष्फल रहेगी।
दुरितों को दूर करने के उपाय
इन दुरितों को समस्त बुराईयों को दूर करने के लिए हमें निम्न उपाय अपनाने चाहिए। दुर्गुणों को दूर करने के लिए स्वाध्याय को अपनाना चाहिए। प्रतिदिन स्वाध्याय करने से आत्म-षुद्धि होती है। आत्म संस्कार का सोपान स्वाध्याय है। इसीलिए विविध विद्याओं में पारगंत छात्र को आचार्य दीक्षान्त संस्कार के अवसर पर -स्वाध्यायान्मा प्रमदः’’ स्वाध्याय में कभी आलस्य न करो, का उपदेष देते थे। मनु महाराज ने भी -‘‘स्वाध्याये नास्त्यनध्यायः’’। अर्थात् स्वाध्याय में कभी अवकाष नहीं ग्रहण करना चाहिए, का उपदेष देकर स्वाध्याय का महत्व दर्षाया है। अतः दुर्गुण को दूर करने के लिए स्वाध्याय का सद्गुण ग्रहण करना चाहिए।
दुरितानि-दुव्र्यसन को दूर करने का साधन है-सत्संग। सत्संग का व्यसन जिसे प्राप्त होता है उसके दुव्र्यसन अनायास ही समाप्त हो जाते हैं। महाराज भर्तृहरि ने ठीक ही लिखा है-
जाड्यं धियो...................करोति पुंसाम्।। नीति २२
सत्संगति भक्त के सभी दुव्र्यसनों को समाप्त कर देती है। बुद्धि की मूर्खता को दूर करती है, वाणी में सत्य का संचार करती है, मान की उन्नति का मार्ग दिखाती है, चित्त को प्रसन्न करती है दिषाओं में यष का विस्तार करती है। निष्चय से सत्संगति कहो क्या नहीं करती है। इस प्रकार दुव्र्यसनों को दूर करने के लिए सत्संगति करनी चाहिए। सत्संग के पुरूषार्थ से ही दुव्र्यसन दूर होने की प्रार्थना सफल होती है।
दुरितानि- दुःखों को दूर करने का सर्वोत्तम साधन समर्पण का भाव है। समर्पण वह सुधा है जिसके पान से भयंकर दुःख भी दुःख नहीं प्रतीत होते हैं। जब देष भक्तों ने अपने आप को देष की स्वतन्त्रता के लिए समर्पित कर दिया, तब कारागार की भीषण यातनाएँ भी उन्हें दुःखदायी नहीं मालूम पड़ी। यहां तक कि फांसी का फन्दा भी उन्हें जय माला ही लगी।
एक व्यक्ति अपने आपको जब परिवार के लिए समर्पित करता है तब नानाविध कष्टों को सहता भी है, साथ ही अपने मालिकों के कटुवचन, अपमान, तिरस्कार आदि सभी सहन कर लेता है। समर्पित जीवन में प्राप्त दुःख, दुःख नहीं होते हैं।
यदि भक्त हृदय अपने आपको परमात्मा को समर्पित कर दे तो उसे लोगों के कटु वचन भी व्यथित नहीं करते हैं। उस पर बरसाये गये पत्थर भी उसे पुष्प लगते हैं। विष को अमृत समझते हैं। महर्षि ने तो विष दाता को धन देकर भागने का ही परामर्ष दिया। समर्पित हृदय करूणा से पूर्ण होता है। समर्पित भाव शारीरिक व्यथा को, दुःख को, दुःख नहीं समझता है।
इस प्रकार विष्वानि दुरितानि परासुव-हे भगवन् सम्पूर्ण दुर्गुण, दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःख दूर करने की प्रार्थना -स्वाध्याय, सत्संग एवं समर्पण के पुरूषार्थ से सफल हो सकती है। पुरूषार्थ हीन प्रार्थना सफल नहीं होती है। एक भी दुर्गुण, एक भी दुव्र्यसन तथा एक भी दुःख भद्र प्राप्ति में बाधक होता है। अतः विष्वानि-सम्पूर्ण दुरितानि-दुर्गुणादि दूर करने की प्रार्थना की गयी है, जो सर्वथा उचित है।
सवितः शब्द का महत्व
सत्यार्थ प्रकाष के प्रथम समुल्लास में महर्षि ने षुन्ञ् अभिषवे तथा षूड् प्राणिगर्भविमोचने दो धातुओं से सविता शब्द सिद्ध किया है। उनके अनुसार-‘अभिषवः प्राणिगर्भविमोचनं चोत्पादनम्, यष्चराचरं जगत् सुनोति सूते वोत्पादयति स सविता परमेष्वरः।
जो सब जगत् की उत्पत्ति करता है, अतः परमेष्वर का नाम सविता है। संस्कार-विधि में इस मन्त्र के अर्थ में महर्षि ने सविता- सकल जगत् के उत्पत्ति कत्र्ता, समग्र ऐष्वर्य युक्त, अर्थ किया है। सविता शब्द बोध दे रहा है कि दुरितानि को दूर करने के लिए जिससे प्रार्थना की जा रही है, वह ईष्वर सामथ्र्यशाली है। वह अपने इस सामथ्र्य से समस्त दुरितों को दूर करे। सामथ्र्य हीन से की गयी प्रार्थना निष्फल हो सकती है, किन्तु इस ‘सविता’ से की गयी प्रार्थना अवष्य सफला होगी। क्योंकि सकल जगत् का उत्पत्तिकत्र्ता होने से ही वह हमारा पिता है, पालक है। वह हमसे स्नेह करता है। ध्यान यह भी रखना है कि वह दरिद्र पिता नहीं है अपितु ऐष्वर्यषाली है। वह ऐष्वर्य युक्त है, सामथ्र्य युक्त है, अतः हमारी प्रार्थना को पूर्ण करने में सक्षम है। हमारी प्रार्थना अवष्य सफल होगी, यह आषा ही हमें पुरूषार्थ करने की प्रबल प्रेरणा देती है। निष्चय से-‘‘आषा सर्वोतमं ज्योतिः’’ आषा ही सर्वोत्तम प्रकाष होता है।
‘यद् भद्रं तन्न आसुव’ इसका अर्थ महर्षि ने किया है-
जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ है, वह सब हमको प्राप्त कीजिये। भद्र शब्द-‘भदि कल्याणे सुखे च’ के अनुसार भदि धातु से औणदिक रक् प्रत्यय के योग से बनता है। महर्षि ने जो यहां भद्र शब्द का -गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ अर्थ किया है वह उनकी ऋषि बुद्धि या आर्ष बुद्धि का वैशिष्टच है। दुरितानि का अर्थ किया है-दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःख। भद्र का अर्थ है- गुण, कर्म, स्वभाव (और पदार्थ)। दुरित शब्द दुर, उपसर्ग पूर्वक् इण् गतौ धातु से बनता है। तथा वैयाकरणों के अनुसार -‘गतेस्त्रयोऽर्थाः ज्ञानं गमनं प्राप्तिष्चेति’।
गति के तीन अर्थ हैं-ज्ञान, गमन और प्राप्ति। दुर्गुण दूर होंगे सद् ज्ञान से, ज्ञान का विकास होगा स्वाध्याय से।
दुव्र्यसन दूर होंगे सद् गमन, सद् व्यवहार या सत्कर्म से, सत्कर्म में प्रवृत्ति होगी सत्संग से।
दुःख दुर होंगे प्राप्ति से, प्रभु प्राप्ति से, प्रभु प्राप्ति होगी, भक्ति से समर्पण भाव से। यह समर्पण का भाव हमारे स्वभाव का अंग होना चाहिए। अतः भद्र का अर्थ महर्षि ने गुण, कर्म, स्वभाव प्रमुखता से किया है।
‘भद्र’ शब्द का अर्थ पदार्थ भी किया है। बिना पदार्थ के, भौतिक वस्तुओं के अभाव में सामान्य जीवन भी नहीं चल सकता है।
भूखा व्याकरण के सूत्रों से पेट नहीं भरता है और प्यास व्यक्ति काव्य रस से अपनी प्यास नहीं बुझाता है। कणाद मुनि ने धर्म की परिभाषा की है- ‘‘यतोऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः’’ इहलोक उन्नति तथा परलोक उन्नति या मोक्ष की प्राप्ति जिन कर्मो से होती है वे कर्म, धर्म हैं। कालिदास का वचन है-‘‘षरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’’। स्वस्थ शरीर ही धर्म की साधना में सक्षम होता है शरीर स्वस्थ रहता है भौतिक आवयष्यक साधनों की पूर्ति से, भौतिक आवष्यक साधनों की पूर्ति से, भौतिक वस्तुओं या पदार्थो से। भूखा व्यक्ति आत्म -साधना में कैसे प्रवृत्त हो सकता है? यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का वचन इस तथ्य को इस आलंकारिक शैली में व्यक्त करता है-
विद्यां चाविद्यां..............विद्ययाऽमृतमष्नुते।। यजु. ४0.१४
इहलोक से तरने के दो साधन या मार्ग हैं-विद्या अविद्या दोनों को ही जानना है, प्राप्त करना है। अविद्या से-भौतिक साधनों से मृत्यु को, सांसारिक दुःख को दूर करना है तथा विद्या से, ज्ञान से, आत्म बोध से अमृत को मोक्ष को, प्राप्त करना है।
इस आधार पर ही महर्षि ने ‘भद्र’ शब्द के ‘भदि कल्याणे सुखे च’ के अनुसार गुण कर्म स्वभाव और पदार्थ अर्थ किये हैं। भौतिक पदार्थो के बिना आत्म उन्नति सम्भव नहीं है। निष्चय से महर्षि की आर्ष बुद्धि का ही यह वैषिष्टच है जो उन्होंने त्याग-भोग, प्रवृत्ति-निवृत्ति, श्रेय-प्रेय के वैदिक सिद्धान्त को ध्यान में रखकर ‘भद्र’ शब्द का समीचन या सार्थक अर्थ किया है।
‘देव’ शब्द का महत्व
निरूक्त का वचन है-‘देवो दानाद्वा, द्योतनाद्वा0’ इत्यादि सुखों का दाता, ज्ञान का प्रकाषक व प्रकाष स्वरूप होने से परमात्मा का नाम देव है। महर्षि ने देव शब्द का अर्थ किया है- ‘षुद्ध स्वरूप, सब सुखों का दाता परमेष्वर’। लोक व्यवहार में जो व्यक्ति निर्मल अन्तःकरण वाला है, ज्ञानानुसार आचरण वाला है, वही शुद्ध पवित्र कहलाता है। परमेष्वर शुद्ध स्वरूप इस अर्थ में भी है कि उसके सब कर्म लोक कल्याणा कारक है, समानता के साथ बिना भेदभाव के-
‘‘याथातथ्योऽर्थान् व्यदधाच्दाष्वतीभ्यः समाभ्यः’’ यजु ४0/८
अर्थात् नित्य प्रजाओं के लिए ठीक-ठीक कत्र्तव्य पदार्थो का विधान करता है। इसी अर्थ में तो वह ईष्वर बिना किसी पक्षपात के सबको शुद्धस्वरूपता के साथ सुविधायें प्रदान करता है। वह तो ‘‘षुद्धम् अपापविद्धम्’’ यजु. ४0/८
सब इन्द्रियों में से यदि एक इन्द्रिय भी पथ भ्रष्ट हो जाये तो उससे ज्ञान सम्पन्न की भी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है या ऐसे नष्ट हो जाती है जैसे फूटे पात्र में से पानी बूँद-बूँद करके टपक जाता है और पात्र रिक्त हो जाता है। अतः दुरितानि का विषेषण ‘विष्वानि’ साभिप्राय रखा गया है अर्थात् ‘सम्पूर्ण बुराईयाँ’। एक भी बुराई शेष न रहे। एक भी दुर्गुण व्यक्ति को पतन की ओर ले जाने में समर्थ है। इन दुर्गुणों को सावधानी से दूर करना है। सम्पूर्ण दुर्गुणों के समाप्त होने पर ही ‘भद्र’ की प्राप्ति सुलभ है। दुर्गुणों को दूर कर सत्पात्रता प्राप्त करनी है। अतः मन्त्र ने ‘विष्वानि दुरितानि’ सम्पूर्ण- बुराईयों को दूर करने की प्रार्थना की गयी है।
मन्त्र में ‘यद् भद्रं’ कहा गया है। यहां ‘यद्’ शब्द परमात्मा के प्रति पूर्ण आस्था भाव को प्रकट करता है। जीव अल्पज्ञ हैं, अत$ उसे क्या पता है, उसके लिए क्या भ्रद्र है? कोई धन के माध्यम से ‘भद्र’ की प्राप्ति करता है, कोई निर्धनता में ही ‘भद्र’ के मार्ग पर अग्रसर होता है, कोई नानाविध कष्टों को प्राप्त कर ‘भद्र’ मार्ग पर अग्रसर होता है तो कोई विरक्त भाव को प्राप्त होकर ‘भद्र’ प्राप्त करता है। हम अल्पज्ञ है। हमें बोध नहीं है कि हमें ‘भद्र’ क्या प्राप्त हो। जन्म-जन्मान्तर के कर्मजाल में ग्रथित मानव अपनी अल्पज्ञता के कारण उसे जान भी कैसे सकता है? अतः ‘समर्पण’ भाव के साथ उस परमात्मा से प्रार्थना है-‘यद् भद्रं तन्न आसुव’ जो ‘भद्र’ हो वह हमें प्राप्त कराइये। हम तो आपको समर्पित है। समर्पण एवं प्राप्ति का सुन्दर योग ही इस मन्त्र का वैषिष्टच है।
ईष्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना के ये आठों मन्त्र ‘अहम्’ भाव को दूर करने वाले भी है। जो यह कहे कि मैं तुम्हारा भद्र करने वाला हूं, यह उसका मिथ्याभिमान ही है। क्योंकि किसका कब कैसे ‘भद्र’ सम्भव है यह ‘अल्पज्ञ’ के ज्ञान से परे है। अतः हम ‘भद्र’ करने वाले हैं आदि मिथ्या ‘अहम्’ भाव से बचाने वाला यह मन्त्र है।
द्वितीय मन्त्र
ईष्वरस्तुति प्रार्थनोपासना का द्वितीय मन्त्र सविता देव के सामथ्र्य को प्रकट करता है। ‘दुरित’ दूर करने की ‘भद्र’ प्राप्ति की प्रार्थना प्रथम मन्त्र में की गयी है। यह प्रार्थना सफल होगी या नहीं याचक यह शंका न करे, इसके निवारणार्थ महर्षि ने इस मन्त्र को क्रम में दूसरे स्थान पर रखा है। इस द्वितीय मन्त्र में उस ईष्वर के सामथ्र्य का उत्तम वर्णन किया गया है। द्वितीय मन्त्र इस प्रकार है-
ओं हिरण्यगर्भः............................विधेम।। यजु. १३/४
जो हिरण्यगर्भः- स्वप्रकाषस्वरूप, और जिसने प्रकाष करने हारे सूर्यचन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं, जो भूतस्य-उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का जातः प्रसिद्ध पति-स्वामी एकः एक ही चेतनस्वरूप आसीत् था, जो अग्रे-सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्ण समवर्तत- वर्तमान था, सः- सो (वह) इनाम् - इस पृथिवीम्- भूमि उत -और द्याम्- सूर्यादि को दाधार -धारण कर रहा है। हम लोग उस कस्मैं -सुखस्वरूप देवाय-शुद्ध परमात्मा के लिए हविषा-ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से विधेम-विषेष भक्ति किया करें।।
इस मन्त्र में परमेष्वर के सामथ्र्य का निम्न रूप में बोध होता है-
१. हिरण्यगर्भः- विभुत्व या विषालता की दृष्टि से।
२. समवत्र्तताग्रे- अग्रज की दृष्टि से।
३. भूतस्य जातः-उत्पादन सामथ्र्य की दृष्टि से।
४. पतिरेक आसीत्- स्वामित्व की दृष्टि से।
५. स दाधार पृथ्वी द्यातुतेमाम्-शक्तिमत्ता की दृष्टि से।
हमने यह वर्णन महर्षिकृत अर्थ की दृष्टि से किया है। प्रथम मन्त्र वर्णित प्रार्थना सफल होगी या नहीं होगी, इस शंका का निवारण हो, इसी दृष्टि से उस ईष्वर के, सविता देवे के सामथ्र्य का वर्णन् इस मन्त्र में किया गया है। ईष्वरीय सामथ्र्य का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
१. हिरण्यगर्भः- स्वप्रकाशस्वरूप। जिससे प्रार्थना की है वह स्वयं प्रकाष स्वरूप है। उस का प्रकाष उसका स्वयं का है, किसी अन्य तेजोमय पदार्थ से उसका प्रकाष गृहीत नहीं है।
महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाष प्रथम समुल्लास में ‘हिरण्यगर्भः’ का अर्थ इस प्रकार किया है-
‘‘ज्योति वै.................हिरण्यगर्भः।’’
जिसमें सूर्यादिक तेजवाले लोक उत्पन्न हो के जिसके आधार पर रहते हैं अथवा जो सूर्यादिक तेजःस्वरूप पदार्थो का गर्भ नाम उत्पत्ति और निवास स्थान है, इससे उस परमेश्वर का नाम हिरण्यगर्भ है।
उक्त के आधार पर ही महर्षि ने ‘हिरण्यगर्भ’ का अर्थ किया स्वप्रकाषस्वरूप और जिसने प्रकाष करने हारे सूर्य चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं। सूर्य पृथिवी से तेरह लाख गुण बड़ा है। जरा कल्पना करें कि सूर्य के तेरह लाख टुकड़े करें तो एक हिस्सा, एक भाग के बराबर पृथिवी है। सूर्य से भी विशाल ग्रह, नक्षत्रों आदि को जो धारण किये हुए है, उसकी विषालता के विषय में सन्देह नहीं रहता है। निष्चय ही वह ईष्वर-‘‘महतो महीयान्’’ है। यजुर्वेद के अनुसार -‘‘ स ओतः प्रोतष्च विभुः प्रजासु’’ ३२।८।।
वह सब में विद्यमान है, विभु-विषाल है।
इस प्रकार विभुत्व की दृष्टि से, विषालता की दृष्टि से उसका सामथ्र्य महान् है।
२. सवमत्र्तताग्रे-जो सब जगत् के उत्पन्न होनें से पूर्व विद्यमान था। निष्चय से ईष्वर, जीव और प्रकृति ये तीनों तत्व अनादि हैं। फिर अग्रज की दृष्टि से उसका सामथ्र्य किस अर्थ में समझना चाहिये?
निश्चय से तीन तत्व अनादि है। प्रकृति मात्र जड़ है, उसके जड़त्व के कारण स्वयं कुछ होने का सामथ्र्य नहीं है। दूसरा जीव है। जीव अल्पज्ञ है, अल्पशक्तिवाला है, अतः शरीरनिर्माणादि सामथ्र्य से वह हीन है। यह सामथ्र्य तो मात्र-सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान ईष्वर में ही है। यजुर्वेद का वचन है-
परीत्य भूतानि परीत्य लोकान् परीत्य सर्वाः प्रतिशो दिषष्च।
उपस्थाय प्रथमजामृतस्यात्मनात्मानमभिसंविवेष।। ३२।११।।
महर्षि ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में इसका अर्थ इस प्रकार किया है-
‘‘जो परमेष्वर आकाषादि सब भूतों में तथा सूर्यादि सब लोकों में व्याप्त हो रहा है। इसी प्रकार जो पूर्वादि सब दिषा और आग्नेयादि उपदिषाओं में भी निरन्तर भरपूर हो रहा है अर्थात् जिसकी व्यापकता से अणु भी खाली नहीं है जो अपने भी सामथ्र्य का आत्मा है और जो कल्पादि में सृष्टि की उत्पत्ति करने वाला है, उस आनन्द स्वरूप परमेष्वर को जो जीवात्मा अपने सामथ्र्य अर्थात् मन से यथावत् जानता है, वही उसको प्राप्त होके सदा मोक्ष सुख भोगता है।
इस सृष्टि निर्माणादि के साथ जो जीवात्मा को शरीर के साथ अनेक साधन प्रदान करता है निष्चय से वह अपने इस सामथ्र्य से अग्रज है। ऐसा सामथ्र्यवान् वह अग्रज निस्सन्देह हमारे सम्पूर्ण दुरितों को दूर करने में सक्षम है तथा ‘भद्र’ प्राप्त कराने में भी वह समर्थ हैं
३. भूतस्य जातः- उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का वही प्रसिद्ध (स्वामी है)। कितना सामथ्र्यशाली है वह। इस विषाल ब्रह्माण्ड का रचयिता है। वह इसका स्वामी है, वह अत्यन्त प्रसिद्ध है।
‘‘सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्’’
उस धाता ने, सबको धारणा करने वाले परमात्मा ने पूर्व के समान सूर्य चन्द्रादि उत्पन्न करके उनको धारण किया है। विविध प्रकार के वृक्ष, पुष्प्, फल, रस आदि सभी उसी के उत्पादन सामथ्र्य का परिणाम है। हम अपने शरीर को ही देखें तो इसकी अद्भुत रचना को देखकर उसके उत्पादन सामथ्र्य का बोध हमें होता है। अन्न खाने के लिए दाँत, रसास्वादन के लिए रसना, विविध प्रकार के शरीर के यन्त्र जो भोजन पचाते हैं, रस बनाकर रक्त में परिवर्तित करते हैं, अशुद्ध रक्त को शुद्ध करके सारे शरीर में रक्त को पहुँचाकर सम्पूर्ण नस नाडिछयों को पुष्ट करने की प्रक्रिया, मज्जा, मांस, अस्थि आदि शारीरिक विकास को करने वाले तत्वों का निर्माण, विविध दृश्यों को देखने वाले सूक्ष्म तन्तुओं से निर्मित नेत्रादि अवयवों के निर्माण का सामथ्र्य जिस ईष्वर में है, उस ईष्वर के प्रति पूर्ण आस्था, श्रद्धा भाव रखना चाहिए, जिनसे हमारी कामनायें सफल होगी, यह आषा, विष्वास उसके उत्पादन सामथ्र्य को देखकर हममें होना चाहिए।
विज्ञान की उन्नति को सब कुुछ समझने वाले, वैज्ञानिक को, सामथ्र्यषाली समझने वालों को यह समझ लेना चाहिए कि समस्त वैज्ञानिक मिलकर भी एक सिर के बाल पर निर्माण नहीं कर सकते हैं। ‘लाप्लास’ ने पृथ्वी के अनेक रहस्यों को खोलने वाली रचना लिखी, किन्तु उसमें रचयिता का कोई वर्णन नहीं था। जब मित्रों ने कहा तो लाप्लास का उत्तर था कि मुझे उसकी कोई आवष्यकता ही अनुभव नहीं हुई। वह लाप्लास जब मृत्यु की घड़ियां गिनने लगा, तब उस ने अपने मित्र से कहा-रचना का दूसरा संस्करण छपे तो सबसे पहले उस रचयिता को प्रणाम लिखना, उसके रचना सामथ्र्य को मेरा अभिवादन लिखना। लाप्लास कहता है- उसका सामथ्र्य महान् उसका रचना कौषल आष्चर्यजनक है, उसके नियम अटल है, मैं मरना नहीं चाहता हूँ किन्तु मुझे कोई बलपूर्वक अपनी ओर खींच रहा है, निष्चय से उसका सामथ्र्य अदुभुत है।
४. पतिरेक आसीत्- स्वामी एक ही चेतन स्वरूप था। वह परमेष्वर जिससे हम अपनी मनोकामना पूर्ण करना चाहते है वह चेतन स्वरूप ही नहीं अपितु स्वामी है, मालिक है, पति है, पिता है-
त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ।
अथा ते सुम्नमीमहे। ऋग्वेद ८।९८।११।।