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Tuesday, 23 August 2016

ध्यान तथा उपासना
ध्यान में प्रवेष की विधि
    अब मैं संक्षेप में प्रवेष की विधि की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ। वेदों के प्रकाण्ड पण्डित सातव लेकर जी एक बार अरविन्द आश्रम पाण्डेचेरी गये। वहाँ उन्होंने श्री माँ से ध्यान की सरलतम विधि पूछी। माँ ने कहा कि अपने हृदय में बच्चे की तरह सरलता का अनुभव करते हुए जगन्माता को पुकारना सबसे सरल विधि है। ध्यान में प्रवेष को आप ऐसा ही समझें जैसा कि किसी नदी, सरोवर या समुद्र में प्रवेष। इसमें सर्वप्रथम मन में आतुरता उत्पन्न होनी चाहिए, अन्यथा प्रवेष नहीं कर पाओंगे, ठीक उसी तरह जैसे नदी ंके किनारे जाकर भी अनिच्दुक व्यक्ति उसमें प्रवेष नहीं करता है। यदि कदाचित् कोई व्यक्ति अन्यों को देखकर, या किसी की प्रेरणा से अथवा केवल प्रदर्शनार्थ जल में प्रवेष कर भी ले तो वह उस आनन्द को प्राप्त नहीं कर सकता जिसे कि प्रवेष के लिए उत्कण्ठित व्यक्ति प्राप्त करता है। इसलिए ध्यान में प्रवेष करने से पूर्व प्रवेषार्थी के मन में पूर्ण आतुरता, प्रवेष की तीव्र इच्छा होनी ही चाहिए। अनिच्छुक व्यक्ति जल में प्रवेष करके भी उसमें डुबकी लगाए बिना ही बाहर निकल जायेगा। यही अवस्था ध्यान में प्रवेषार्थी की भी होगी। वहाँ भी स्वल्प समय के लिए ध्यान की मुद्रा में बैठकर और औपचारिकता का निर्वाह कर लेगा, किन्तु इससे कार्य बनने वाला नहीं। इससे कुछ भी अभीष्ट सिद्ध नहीं होगा। इसलिए ध्यान में प्रवेष करने से पूर्व उसके लिए मन में उत्कृष्ट आतुरता उत्पन्न कीजिए। हाँ, एक बात और, वह यह कि यह उत्कण्ठा दो प्रकार की होनी चाहिए। एक तो मन में सर्वदा वर्तमान यह विचार कि मुझे अवष्य ही ध्यान में प्रवेष करना है। यह विचार चैबीसों घण्टे उसके अन्तर्मन में घूमता रहे, उसी प्रकार जैसे कि धन प्राप्ति के इच्छुक को सर्वदा धन प्राप्ति का विचार बना रहता है। इसके अतिरिक्त प्रति दिन आपका जब भी ध्यान में प्रवेष करने का समय हो, उससे कुछ देर पूर्व इस विचार से आपका मन पूरित एवं प्रफुल्लित हो जाना चाहिए कि अब मेरे ध्यान का समय उपस्थित होने वाला है। अब इस बाह्य क्रिया कलाप से मुक्ति मिलने वाली है। अब प्रभु के चरणों में उपस्थित होना तथा वहाँ आनन्द सागर में गोते लगाते हैं। यह उत्सुकता उसी प्रकार की होनी चाहिए जैसी कि एक दिन भर विद्यालय पढ़ने वाला छात्र सांयकाल छुटटी का समय निकट आते ही इस भाव से भर जाता है कि छुट्टी की घण्टी अब लगने वाली है, अब लगने वाली है। घण्टी लगते ही बच्चों की हालत देखिए, उनकी प्रसन्नता का अनुमान आप नहीं कर पायेंगे। इसका अनुभव वे छात्र ही कर सकते है, जिन्होंने वह जीवन व्यतीत किया है। छुट्टी होते ही एकदम कितना शोर होता है। कितने प्रसन्न होते हैं वे। प्रसन्न वदन सभी अपना-अपना बस्ता उठाकर घर की ओर दौड़ पड़ते हैं, मानों वहाँ जाकर ही उन्हें शान्ति मिलेगी, सुख मिलेगा। प्रातः काल से लेकर अब तक के स्कूली बन्धन से अब वे मुक्त हुए हैं। अतः कितने प्रसन्न हैं वे , जरा इस ओर सोचिए।
    दिन भर के सभी कार्यो को छोड़कर ध्यान में प्रवेष करने से पूर्व आप भी ऐसा ही सोचिए तथा इतने ही प्रसन्न होइए जितने कि स्कूल के बच्चे। ऐसा नहीं कि इससे पूर्व वे स्कूल में अपना कार्य नहीं कर रहे थे। कर रहे थे। वे कक्षा में तन्मयता से पढ़ रहे थे। अपना पाठ याद कर हे थे, किन्तु छुट्टी का समय आते ही सब कुछ भूल गये। बस इसी तरह ध्यान का समय आते ही आप भी सब कुछ भूल जाइए। भूल जाइए दिन भर के कार्यो को तथा भूल जाइए दिनभर के झंझटों को। भूल जाइए सभी प्रकार के अषुभ विचारों को तथा सभी प्रकार की चिन्ताओं को। तभी आप ध्यान में प्रवेष के अधिकारी बन सकोगे, अन्यथा नहीं। यदि दिनभर की चिन्ताओं का, दिन भर के व्यापार का, झंझटों का बोझ तब भी तुम्हारे सिर पर रहा तो ध्यान में प्रवेष बिल्कुल नहीं हो सकता। यह तो सांयकाल की बात है। प्रातःकाल भी यही मनःस्थिति बनानी होगी। इससे पूर्व कि आप दिन भर में करणीय करणीय कार्यो की सूचि बनाएं, अपना दिन भर का कार्यक्रम सुनिष्चित करें, आपको सर्वप्रथम अपनी साधना को ही ध्यान में लाना है। केवल ध्यान के बारे में ही उत्कण्ठित एवं उत्साहित होना है। इससे पूर्व किसी भी प्रकार की सांसारिक बातें, सांसारिक उलझने आपके मस्तिष्क में आनी ही नहीं चाहिए।
    प्रिय पाठकों! थ्जस उत्सुकता का मैंने ऊपर उल्लेख किया है, उसे आप साधारण न समझें। यह अति अनिवार्य है, अन्यथा ध्यान का लाभ प्राप्त नहीं कर पाओगे। ऐसा मत सोचिए कि आसन पर जाकर ध्यान के लिए बैठकर ही यह सब हो जायेगा, तभी बाह्य व्यवहार भी आपके साथ्ज्ञ आपके मन में बैठा है। इसलिए उस आतुरता को ध्यान के लिए उपस्थित होने से पूर्व ही मन में बैंठा लीजिए। एक ओर दिन भर के कार्यो का निबटान होता रहे तथा इसके साथ ही दूसरी ओर आपके मन में ध्यान के लिए उत्सुकता बढ़ती रहे, आतुरता जगती रहे तथा प्रसन्नता से आपका मन प्रपूरित होता रहे। इसके पष्चात् अब ध्यान के आसन के पास चलते हैं। यहाँ मैं ध्यान में बैठने की विधि तथा ध्यान करने की विधि की चर्चा करूँगा, जो इस प्रकार है-
    यह तो सामान्य प्राथमिक बात है कि ध्यान का आसन शुद्ध -पवित्र होना चाहिए। प्रतिदिन एक ही आसन का प्रयोग किया जाए तो उत्तम है अन्य कार्यो में उसका उपयोग नहीं करना चाहिए। इससे ध्यान के प्रति दृढ़ता में अभिवृद्ध होगी। यह आसन एकान्त में हो जहाँ कि बाह्य वातावरण आपको उद्विग्न न कर सके, तभी ध्यान लग जायेगा, अयथा लगा लगाया ध्यान भ्ज्ञी बाह्य वातावरण से भंग हो जाता है।
    कोई ऐसा आसन लगाकर बैठ जाएं जिसके बैठने में आपके कष्ट न हो तथा इच्छानुसार जितनी देर भी चाहें, बैठ सकें। सिद्धासन या पद्मासन लगा सकें तो उत्तम होगा। ध्यान के लिए ये दोनों आसन सर्वश्रेष्ठ माने गये हैं। इनमें भी पदमासन। न लग सके तो जबरदस्ती न करें। वैसे कुछ दिनों के अभयास से ये आसन लगाने लग जाते हैं। हाँ, प्रारम्भ में तो अवष्य कष्ट होगा।
    आसन पर बैठकर सर्वप्रथम दोनों हथेलियों को मृदु स्पर्ष के साथ पूरे सिर तथा मुख-कंधों पर घुमाएं। सर्दी के दिन हों तो हथेलियों को थोड़ा मसल कर चेहरे पर फेरें। इससे आपको हल्कापन तथा ताजगी का अनुभव होगा। इसके बाद शरीर को बिल्कुल ढीला करके बैठ जाएं।
    इस समय आपकी स्थिति नदी के किनारे खड़े हुए उस व्यक्ति की है जो पानी में छलांग लगाने को बस तत्पर ही है। वह बाहर की गर्मी से परेशान है तथा एकदम पानी में कूद कर शान्ति एवं शीतलता प्राप्त करने को आतुर है। आप भी अपने आसन पर उपासना में इसी तत्परता से, इसी उत्कण्ठा से बैठें, अन्यमनस्क होकर ढीले-ढाले रूप में नहीं। यहाँ पर यह भ्ज्ञी जान लेना जरूरी है कि इस समय स्नानार्थी के पास कुछ नहीं है, सिवाय एक लंगोट या कच्छे के। अन्य कोई सांसारिक विचार भी उसके मन में नहीं आ रहा है। बस, उसका तो पूरा ध्यान पानी में कूदने की ओर है, क्योंकि उसे पता है कि उसे इसमें ही शीतलता एवं शान्ति मिलेगी। केवल जानना ही नहीं, अपितु इस समय वह अपने इसी ज्ञान को क्रियान्वित करने भी जा रहा है।
    ध्यान में बैठने पर प्रारम्भ में आपकी भी यही दषा होनी चाहिए। आपका मन इन विचारों से पूरित होना चाहिए कि अब मैं आनन्दसागर में गोता लगाने ही वाला हूँ। अब मैं प्रभु के समीप पहुँचने ही वाला हूँ। आप बार-बार अपने मन में कहते जा रहे हो-कदान्वन्तर्वरूणे भुवानि अर्थात् मैं अपने उपाय वरूण प्रभु में कब प्रवेष करूँगा, कब प्रवेष करूँगा। यह अवस्था तभी सम्भव है जबकि सांसारिक विचारों को आपने इससे पूर्व ही दूर छोड़ दिया हो।
    अब तृतीय चरण इस प्रकार है-
    धीरे-धीरे आँखों को बन्द कर लीजिए। बन्द केवल आँखों को ही न करें, अपितु उस मन को भी मन्द करें कि जो आँखें बन्द करने पर भी अन्दर ही अन्दर बाहर के दृष्य हमें दिखलाता रहता है। आँखें बन्द करके अति धीमी आवाज से या केवल मन के द्वारा ही प्रभु के गुणों का स्मरण करना प्रारम्भ करें। उसकी सर्वज्ञता, दयालुता, सर्वव्यापकता का न केवल विचार ही करें, अपितु ऐसा अनुभव करने का भी यत्न करें। अपने मन में इस प्रकार के भाव भरें कि मैं आनन्द सागर प्रभु के बीच में बैठा हुआ हूँ। वह प्रभु यहाँ वहाँ सर्वज्ञ प्रत्येक अणु-परमाणु में व्याप रहा है। हे आनन्द सागर, तू तिनके में तथा जड़चेतन सभी में समा रहा है। तू ही तो उपवन में फूलों के रूप में मुस्कुरा रहा है।
        तेरा महान् तेज है छाया हुआ सभी स्थान।
        सृष्टि की वस्तु -वस्तु में तू हो रहा है विद्यमान।
    तू आनन्द स्वरूप है। बस, मुझे इसी आनन्द की प्राप्ति होने ही वाली है। अभी होने वाली है। प्रभु दयालु है, आनन्द सागर है। अतः दया करके मेरे ऊपर भी आनन्द की वर्षा अवष्य करेगा। हे प्रभो! त्ेरी कृपा से ही मुझे यहाँ पर तेरे चरणों में बैठने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। प्रभो! कृपा कर कि मैं भी तुझ आनन्द सागर में प्रवेष कर सकूँ। अपने आनन्द के 2-4 कण मेरे ऊपर ही डाल दे जिससे मैं धन्य हो जाऊँ, आनन्द में निमग्न हो जाऊँ। ये वाक्य केवल तोता रटन्त की तरह नहीं करने चाहिए, अपितु आप के हृदय से निकलने चाहिएं। इनमें एक आत्मीयता, एक प्रेम, एक आतुरता, एक कृतज्ञता होनी चाहिए। भाषा तथा शब्द कोई भी हो सकते हैं, भाव यही होने चाहिए।
    चतुर्थ चरण- इसके पश्चात् आप किसी मन्त्र का जप पूर्ण लय के साथ प्रारम्भ करें। गायत्री मत्र में अच्छी लय बन जाती है। अन्य मंत्र भी इसके स्थान पर लिये जा सकते हैं। यह उच्चारण इतनी तन्मयता से होना चाहिए कि आप स्वंय भी इसी में लीन हो जाएं। बाहर की यहाँ तक कि अपनी सुध-बुध भी बिल्कुल भुलाएं। उत्तम तो यही है कि यह जपम न से ही किया जाए जो कि सम्भव है, किन्तु यदि प्रारम्भ में आप ऐसा न कर सकें तो मुख से धीमा उच्चारण भी कर सकते हैं, किन्तु इस काल में भी आपकी वृत्ति आन्तरिक ही बनी रहे तथा आपकी पूर्ण तन्मयता इसमें हो। इस काल में आपका ध्यान मन्त्र के शब्दों पर बना रहेगा। मन्त्र के शब्दों का अर्थ भी साथ-साथ दोहराते रहें। एक समय ऐसा आ जाए जब आपको मन्त्र के शब्दों तथा उनके अर्थो में कोई अन्तर ही मालूम न पड़े। मन्त्र के शब्दों का उच्चारण करते ही उनका अर्थ भी आपको प्रत्यक्ष होता चला जाए। इसके लिए अलग से कोई यत्न करने की आवष्यकता न पडे़। इससे पहली अवस्था में आपको मन्त्र के शब्दों पर ध्यान लगाना पड़ता था। वह अर्थ स्वतः ही उपस्थित नहीं होता था। यह अवस्था पहली अवस्था से उत्कृष्ट है तथा ध्यान की प्रगाढ़ता की परिचायक है। इसका प्रमाण यही है कि जब आपको मन्त्र के शब्द बोलते ही उनका अर्थ भी उच्चारण के साथ ही उपस्थित हो जाए, उसके लिए अलग से कोई यत्न न करना पड़े तब इस अवस्था को पूर्ण समझिए। कुछ देर ऐसा ही करते रहें।
    इसके पश्चात् अपने शाब्दिक उच्चारण को लम्बा कीजिए। यथा ओ....म्। भू....र् भुव....स्व...। यहाँ पर जहाँ.....यहनिषान लगा है, वहाँ उससे पूर्ववर्ती शब्द को ही लम्बा करके बोलते जाएं। यथा ओ को पर्याप्त लम्बी ध्वनि से बोलकर धीरे से ‘म्’कहकर मुख बन्द कर लीजिए। इसी प्रकार अन्य शब्दों में भी समझना चाहिए। इस बात में लम्बी ध्वनि करते हुए आपका ध्यान उस शब्द के अर्थ की ओर निरन्तर लगा रहेगा। ऐसा स्वतः ही हो जायेगा। इसमें आपके अधिक श्रम नहीं करना पड़ेगा। हाँ, प्रारम्भ में स्वल्प सा यत्न करना पड़ सकता है। इसी प्रकार कुछ देर यही क्रम चलता रहने दीजिए।
    इसके पश्चात् इस को लम्बा तो किये रखिए, किन्तु इसके शब्दों के उच्चारण को धीमा कर दीजिए। शनैः-षनैः अत्यन्त धीमा करते-करते एक अवस्था ऐसी आयेगी जब आपको मन्त्र के शब्द उच्चारण करने की आवष्यकता ही नहीं पड़ेगी। उनका उच्चारण अन्तःस्थल से स्वतः होने लगेगा। इस समय आप मुख से शब्दों उच्चारण नहीं कर रहे होंगे। ध्यान पूर्वक उसे सुन रहे होंगे। हाँ, इस अवस्था में आपका ध्यान पूर्णतः केन्द्रित रहना चाहिए। जरा सा भी ध्यान टूटा तो यह ध्वनि तुरन्त बन्द हो जायेगी। इसकी प्राप्त के लिए आपको पुनः यत्न करना पडे़गा। यह ऐसी अवस्था है कि आप इस समय बिल्कुल शान्त बैठे हैं। मुख से तथा मन से कुछ भी उच्चारण नहीं कर रहे हैं, तथापि आपके अन्दर से वह ध्वनि निरन्तर आती जा रही है। जिसका कि आप इससे पूर्व मुख से तथा मन से उच्चारण कर रहे थे। इस आन्तरिक ध्वनि के साथ ही आपको मंत्र के सभी शब्दों को अर्थ भी स्पष्ट होता जा रहा होगा। इस समय आपका ध्यान थोड़ी-थोड़ी देर के लिए बाह्य जगत् से हट कर इसी ध्वनि में केन्द्रित होता चला जायेगा। बीच में यह टूट भी सकता है। ऐसा होने पर यत्न पूर्वक पुनः उसी अवस्था को प्राप्त कर लेना चाहिए। धीरे-धीरे यह अवस्था दृढ होती चली जायेगी। यह ध्यान की प्रथमावस्था है। इस समय आप ध्यान में प्रवेष करने के पात्र हैं, इससे पूर्व नहीं। इस समय आप जहाँ भी चाहेंगे, वहीं अपने ध्यान को स्थिर कर सकते हैं। एक समय ऐसा भी आयेगा कि इस अवस्था में ध्यान करते-करते यदि आपको नींद भी आ जाती है तो नींद से जगने पर मन्त्र का उच्चारण पूर्ववत् स्वतः ही होने लगेगा। आपको इसके लिए यत्न नहीं करना पडे़गा। जब ऐसा हो जाए तो समझ लीजिए कि ध्यान में एकाग्रता का प्रारम्भ हो गया है।
    अनेक बार ध्यान लगाने पर बाह्य सांसारिक भाव मन में आने प्रारम्भ हो जाते है। कभी-कभी तो वे निरन्तर एक के बाद एक करके आने लगते हैं। ऐस विचार भी आने लगते हैं कि जिनका उस समय प्रसड़ भी नहीं होता। यह कार्य इतने छद्म रूप में होता है कि आप तो समझ रहे हैं कि मेरा जप चल रहा, किन्तु वह ज पतो इस प्रकार होता रहता है कि आपकी वाणी या मन से किसी मन्त्र आदि का उच्चारण भी कर रहे होते हैं, तथा अन्य विचार भी इसके साथ ही साथ मन में घूमते रहते हैं। इसे इस प्रकार समझिए कि जैसे किसी गन्दी जगह को स्वच्छ करने के लिए आप को झाडू से कूड़े-कर्कट को इक्टठा करते रहें तथा साथ ही साथ वायु का झोका पुनः उसे इधर-उधर विखेरता रहे। दोनों कार्य साथ-साथ हो रहे हैं। स्वच्छता भी तथा पुनः गन्दगी भी। इसी प्रकार जप का क्रम भी चलता रहेगा तथा ब्राह्यभाव भी रहेंगे। यद्यपि यह अवस्था पहली अवस्था की अपेक्षा अच्छी है, क्योंकि इससे पूर्व की अवस्था में तो आप उन विचारों के साथ जप कर ही नहीं सकते थे उस अवस्था में बाह्य विचार आने पर आपका ध्यान अपने केन्द्र से हट कर उन विचारों में ही खो जाता था। आपका ध्यान भंग हो जाता था। इस अवस्था में ध्यान भी किसी न किसी रूप में लगा रहेगा, किन्तु इसके साथ ही बाह्य विचार भी मन में चलते जायेंगे। ध्यान तथा विचारों का ऐसा घालमेल होता है कि यह पता ही नहीं चल पाता कि बाह्य विचार कब आ गये तथा आप उनमें कब लीन हो गये।
    ऐसी अवस्था होने पर क्या करे? यह अवस्था आने पर थोडा सावधान होने की आवष्यकता है। वस्तुतः यह धारणा की स्थिति है, ध्यान की नहीं। ध्यान की स्थिति में तो ये उपद्रव हो ही नहीं सकते। यह अवस्था इस बात की सूचक है कि धारणा भी अभी परिपक्व नहीं हो पायी है। इसे परिपक्व बनाया है, बाह्य विचारों से रहित करना है, तभी तो आप ध्यान में प्रवेष कर पायेंगे, अन्यथा नहीं। जब कभी उपयुक्त अवस्था आए तो साधक को सावधान हो जाना चाहिए तथा पता चलते ही बाह्य विचारश्रृंखला को तुरन्त ही बन्द करके धारणा में मन को स्थिर करने का यत्न करना चाहिए। ऐसा करने के लिए कई उपायों का ले सकते हैं जो इस प्रकार हैं (१) केवल श्वास पर ध्यान लगाइए। आने-जाने वाले श्वास का सावधानी से निरीक्षण करना प्रारम्भ करें कि नाक से श्वास लिया जाकर शरीर में कितनी दूर तक प्रविष्ट हो रहा है तथा शरीर के अन्दर वह किस-किस स्थान का स्पर्ष कर रहा है। इसी प्रकार नासिका से निकलने पर वह बाहर कितनी दूर तक जा रहा है तथा किस गति से जा रहा है। इस प्रकार परीक्षण करने पर आप देखेंगे कि आपका श्वास धीरे-धीरे सूक्ष्म होता जा रहा है। तथा उस पर आपका ध्यान निरंतर बना हुआ है। इस अवस्था में बाह्य विचार अपने आप विलीन हो जायेंगे, आप इन पर विचार ही मत कीजिए, क्योंकि उनके बारे में सोचा, तो वे विचार तुरन्त ही प्रकट हो जायेंगे। उन्हें प्रकट नहीं करना है, अपितु लुप्त करना है तथा उनका यह लोप तभी सम्भव है जबकि आप उनके बारे में बिल्कुल भी न सोचें। केवल श्वास पर दृढता से ध्यान लगाए रहेें।
    (२) श्वास की भांति ही किसी अभीष्ट मन्त्र या ओम् आदि पर भी मन को टिकाया जा सकता है। यह भी उत्तम मार्ग है। ऐसा करते समय आप मन्त्र के पदों का अर्थ भी अपने ध्यान में लाते रहें, उस पा विचार करते रहें। उसके एक-एक शब्द के अर्थ पर अपना ध्यान केन्द्रि करते रहें। मन्त्रार्थ पर विचार के साथ-साथ परमेष्वर को भी विचारों का विषय बनाएं। मन्त्र के अर्थ को परमेष्वर से सम्बन्धित करके उस पर विचार करें। इस प्रकार मन अन्य विचारों से हटकर धारणा/ध्यान में लीन हो जायेगा। ऐसा करते समय ओम् आदि की आकृति को भी ध्यान में लाने का यत्न करें। कल्पना के द्वारा ओम् का चित्र आकृति में बनाएं तथा उस पर अपना ध्यान केन्द्रित करें।
    (३) यदि इन उपायों से सफलता नहीं मिलती तो शीघ्र -शीघ्र मानसिक जप प्रारम्भ कर दीजिए। यह जप आपके ध्यान को केन्द्रित करेगा। ऐसा करते हुए जब बाह्य विचार आने बिल्कुल बन्द हों जाएं तो जप की गति को मन्द करते हुए शनैःशनैः जप को पूर्णतः छोड़कर शरीर के किसी भी भाग में अथवा किसी सूक्ष्म मन्त्र में मन को स्थिर कीजिए। ओम् ही इसके लिए सबसे अच्छा है।
    एक उपाय यह भी है कि इस अवस्था में आप अपने प्रभु से वार्तालाप प्रारम्भ कर दीजिए। यह वार्तालाप एकांगी ही होगा। केवल आपकी ओर से ही होगा, किन्तु आप उत्तर की परवाह किये बिना अपनी बात कहते जाइए। इसमें सबसे अच्छा है परमेष्वर के गुण स्मरण तथा उच्चारण करते हुए उससे प्रार्थना करना तथा उसमें खो जाना। उक्त उपायों से मन बाह्य विचारों से हटकर धारणा में ही दृढ होने लगेगा।
    जप की धारणा दृढ होने पर एक स्थिति यह भी आयेगी कि जब आप वाचिक तथा उपांशु जपों के पश्चात् मानसिक जप कर रहें होंगे तो प्रारम्भ में तो इसके लिए आपको थोड़ा यत्न करना पड़ेगा। इससे पूर्व उपांषु जप में आपके होठ थोडे़ बहुत हिल रहे थे। उनसे इतनी धीमी ध्वनि आ रही थी कि उसे केवल आप ही सुन सकते थे, अन्य नहीं। अब आप इस अवस्था से भी आगे बढ़ गये हैं। होठों का हिलना बिल्कुल बन्द हो गया है तथा आपका जप केवल मन से हो रहा है। यह तृतीय अवस्था है। इससे भी अगली चतुर्थ अवस्था यह है कि यह मानसिक जप भी शनैःशनैः बन्द हो जायेगा। इस अवस्था में आप सूक्ष्मता से देखेंगे तो आपको एक ध्वनि सुनायी पडे़गी। यह ध्वनि वैसी ही होगी जैसी कि मानसिक जाप में थी। अन्तर केवल यह है कि इस अवस्था में मन से जप न करने पर भी यह ध्वनि निरन्तर आ रही होगी। आपको इसे केवल साक्षी भाव से सुनते जाना है। आप देखेंगे कि आपका मन भी इसी ध्वनि में लीन होता जा रहा है। यह पहले की अपेक्षा धारणा की उत्कृष्ट अवस्था है।
    ध्यान की प्रक्रिया को इस प्रकार समझें कि जैसे किसी बछड़े को जवान होने पर तांगे या हल आदि में चलना सिखलाया जाता है तो प्रारम्भ में वह बहुत तंग करता है, इधर-उधर भागता है, कभी-कभी मार्ग में बैठ भी जाता है तो कभी बहुत तेज भागने लगता है। किन्तु कुछ बाद यही बड़डा बिना तंग किए ही भार या सवारी ढोने लगता है। सधी गति से गाड़ी आदि में चलते लगता है। इसी प्रकार प्रारम्भ में एक बच्चे को अक्षराभ्यास कराने में पर्याप्त परिश्रम तथा कठिनाई होती है। बाद में वह स्वंय ही पढ़ने लगता है। कोई भी स्कूटर आदि वाहन सीखते समय नये चालक की कभी यही अवस्था होती है। बाद में वह बातें भी करता चलता है तथा वाहन को भी भली-भांति चलाता जाता है।
    यही अवस्था मन की है। प्रारम्भिक दिनों में मन भी बछड़े की भांति बहुत उत्पात मचायेगा, सरल रास्ता छोड़ कर कुपथ पर भी भागेगा। इससे घबराने की आवष्यकता नहीं। कुछ दिनों के अभ्यास से वह आज्ञाकारी बन जायेगा। यह साधक के प्रयत्न पर निर्भर करता है कि यह मन कितने समय में काबू में आए। इसके पूर्व ध्यान का प्रारम्भ नहीं हो सकता।
    जब मन को शान्त रहने की आदत पड़ गयी तो, तब उसे धारणा में लगाना सुखकर एवं सुगम होता है। धारणा ही परिपक्व होकर ध्यान बन जायेगी। ऐसी अवस्था में ध्यान लगाया नहीं जाता, अपितु वह स्वंय लग जाता है। बस आवष्यकता है उसकी उछल-कूद, विषयों में बाहर भागने की प्रवृत्ति पर रोक लगाने की। इसके दो प्रकार हैं- (१) मन को किसी लक्ष्य पर स्थिर करें, तो धीरे-धीरे स्वंय  ही वह बाहर के पदार्थो से हटने लगेगा। जैसा कि अर्जुन ने अपने ध्यान को पेड़ पर बैठी, चिड़िया की आँख पर लगाकर उस पेड़ के अन्य अवयवों से उसे हटा लिया था। दूसरा उपाय यह है कि मन को पहले बाहर के पदार्थो से हटाएं। ध्यान काल में मन जिन विषयों में भागे, वहाँ से बार-बार हटाकर एक स्थान पर केन्द्रित करने का प्रयत्न करें। से ही गीता में इस प्रकार कहा गया है कि जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है। उसी प्रकार बाह्य विषयों से अपने मन को समेट लेना चाहिए।     

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